ताल ठोक! समाजवादी मुलायम सिंह यादव

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— प्रो. राजकुमार जैन —

र्ष 1968 का दिसंबर या जनवरी का महीना,’ नेताजी’ राजनारायण (उस वक़्त सोशलिस्टों में नेताजी की पदवी केवल राजनारायण जी को ही मिली थी) का 95 साउथ एवेन्यू वाला सरकारी घर में, मैं अपने नेता प्रो. विनयकुमार तथा सांवलदास गुप्ता जी के साथ बैठा हुआ था कि सहसा चार आदमी कमरे में दाखिल हो गए। प्रो. विनयकुमार और गुप्ता जी खड़े हो गए उनकी देखादेखी मैं भी खड़ा हो गया। एक लम्बे क़द का आदमी मंकी टोपी लगाए तथा पुराने ज़माने का ओवरकोट, धोती पहने हुए था। उन्होंने पूछा कि राजनारायण जी कहाँ हैं? जबाव प्रो. विनयकुमार ने दिया कि गुसलखाने में है, आने ही वाले हैं रामसेवक जी। फिर विनय कुमार जी ने उनसे मेरा तारीफ करवाते हुए कहा कि यह हमारे नेता, रामसेवक यादव जी हैं, जो अखिल भारतीय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री हैं। हालाँकि मंकी टोपी ओवरकोट के कारण पहचान नहीं पाया था, परंतु मैं उनको उनके नाम से जानता था तथा डॉ. लोहिया के निधन के बाद जो पहली शोकसभा साउथ एवेन्यू एम.पी. क्लब के हॉल में मामा बालेश्वर दयाल की सदारत में हुई थी, उसमें उनको बोलते हुए सुना था। फिर विनय जी ने बताया कि ये वीरेश्वर त्यागी जी, मंजूर अहमद तथा मुलायम सिंह यादव हैं। ये तीनों उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य हैं। रामसेवक जी जितने लम्बे क़द के थे मुलायम सिंह जी उतने ही छोटे क़द के। हमारे दिल्ली के नेता, सांवलदास गुप्ता जी एकदम उत्साह में बोले रामसेवक जी, आज शाम को दिल्ली में जामा मस्जिद पर हो रहे ‘भारत-पाक एका महासंघ’ की सभा में इन सबको लेकर आप ज़रूर आएं। इतनी देर में नेताजी बैठक में पहुँच गए, दरअसल गुप्ता जी नेताजी को याद करवाने आए थे कि आप जलसे में कितने बजे पहुँचेंगे? गुप्ता जी ने नेताजी से कहा कि आप अपने साथ इन सभी को साथ लेकर आइए, नेताजी ने कहा क्यों नहीं, फिर गुप्ता जी ने अन्य नेताओं से अलग से इसरार किया आपको ज़रूर जलसे में आना है, सभी ने बातचीत में इसको कबूल कर लिया।

शाम को जलसा चल रहा था, डॉ. अब्बास मलिक जो कॉरपोरेशन के सदस्य भी थे उनकी तकरीर चल रही थी कि अचानक ज़ोर से नारा लगा, ‘साथी राजनारायण जिंदाबाद, डॉ. लोहिया अमर रहें’, जलसे में हलचल मच गई। देखा कि एक टैक्सी से राजनारायण जी, मंजूर अहमद, मुलायम सिंह यादव आए हैं, रामसेवक जी नहीं।

उन दिनों ना तो टेलीविजन, मोबाइल फोन की ईजाद हुई थी, अख़बार, पोस्टर और आल इण्डिया रडियो से समाचार सुनने पढ़ने को मिलते थे। दिल्ली शहर में सोशलिस्टों के जलसे में बड़ी तादाद में आसपास के लोग सुनने आ जाते थे, क्योंकि शहर का रिवाज़ था कि शाम को अपने कारोबार, नौकरी पेशे से फारिग होकर लोग, पान खाने, बीड़ी, सिगरेट, दूध पीने के लिए दुकानों के सामने बने फट्टों पर बैठकर गप्प करते थे। इसलिए जलसों की नफरी बढ़ जाती थी और देर रात तक चलता था। हम मंच के नीचे समाजवादी साथियों के साथ बीच-बीच में नारे लगाते रहते थे।

मैंने एकाएक देखा कि मंजूर अहमद और मुलायम सिंह यादव पीछे से मंच से उतर कर नीचे आ गए और मंजूर अहमद ने पूछा कि चाय की तलब लगी है चाय कहाँ मिलेगी। मैंने कहा कि चितली कवर पर चाय मिलती है, सामने ही है। मैं, मंजूर अहमद, मुलायम सिंह यादव वहाँ चाय पीने के लिए चले गए। चाय पीते हुए पहली बार मुलायम यादव जी से बातचीत हुई। जब मैंने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का उपाध्यक्ष रहा हूँ, तो उन्होंने कहा कि छात्र मार्च के सिलसिले में तुम्हारा नाम सुना था।

मैं हर रोज़, बेनागा मधु लिमये जी के घर जाता था, उनके घर पर आने वाले मुलाकातियों के लिए दरवाज़ा खोलने, चाय, काफ़ी बनाने तथा संसद की लायब्रेरी जाने, चुनाव क्षेत्रों से आने वाले ख़तों का मधु जी के निर्देशानुसार जबाव भी भेजने लगा। मधु जी व्यक्तिगत रूप में बहुत सिद्धांतवादी, शुद्धतावादी, सचेत तथा संकोची थे परंतु मैंने उनके विश्वास को जीत लिया था। मधु जी के घर प्रधानमंत्री, मंत्री एम.पी., विधायक, राज्यपालों, मुख्तलिफ दलों के नेताओं, पत्रकारों, संगीतकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों के आर-जार का तांता लगा रहता था।

इसी बीच मुलायम सिंह यादव भी जब दिल्ली आते तो मधु जी के घर ज़रूर आते थे। वहीं पर मुलायम सिंह जी से निकटता बढ़ती गई।

चन्द्रशेखर जी की अध्यक्षता में समाजवादी जनता पार्टी का गठन हुआ। चौ. ओमप्रकाश चौटाला उसके महासचिव बने तथा मुलायम सिंह जी भी पार्टी के वरिष्ठ नेता थे। मैं दिल्ली प्रदेश समाजवादी जनता पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। अक्सर बैठकों में बहस-मुबाहसे में मुलायम सिंह जी और मेरा स्वर एक जैसा होता था। कई बार दूसरे साथियों से टकराव हो जाता था। मुलायम सिंह जी ने समाजवादी जनता पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी का गठन कर लिया। दिल्ली से सांवलदास गुप्ताजी के नेतृत्व में कई साथी सम्मेलन में शिरकत करने के लिए पहुँचे। परंतु मैं नहीं गया, मधु जी ने मुझसे पूछा कि तुम क्यों नहीं गए? मैंने कहा मधु जी, इस समय चन्द्रशेखर जी का राजनैतिक बुरा समय चल रहा है, मैं इनको छोड़कर नहीं जाना चाहता। सम्मेलन के बाद मुलायम सिंह जी मधु जी से दिल्ली मिलने आए तो उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम क्यों नहीं पहुँचे? मैंने गोलमोल जवाब दे दिया। कुछ दिन बाद फिर मुलायम सिंह मधु जी के यहाँ आए तो उन्होंने मधु जी से शिकायती लहजे में कहा कि ये राजकुमार पहले हर वक़्त कहते थे कि समाजवादी पार्टी बननी चाहिए, अब बन गई है तो ये दिल्ली की ज़िम्मेदारी क्यों नहीं संभालते। मैंने फिर कहा कि नहीं, मैं आपसे कहाँ अलग हूँ?

इस बीच एक बड़ी घटना सोशलिस्ट पार्टी में लखनऊ में हुई। हैदराबाद के हमारे पुराने सोशलिस्ट साथी हंसकुमार जायसवाल जिनको मुलायम सिंह जी ने राष्ट्रीय समिति का सदस्य बनाया हुआ था उन्होंने मीटिंग में जातिवाद को लेकर कोई अप्रिय बात कही। उनके कहते ही कुछ लोग उनको मारने दौड़े तथा यहाँ तक कहा कि हम तो नेताजी मुलायम सिंह जी का लिहाज़ कर रहे हैं वरना इसको गोमती में फेंक देते। उसके बाद उनको पार्टी से बर्खास्त भी कर दिया गया। इस ख़बर से मुझे बड़ी तकलीफ़ हुई अब मैंने पक्का इरादा बना लिया कि मैं समाजवादी पार्टी में शामिल नहीं होऊँगा। मधु जी चाहते थे कि मैं समाजवादी पार्टी में चला जाऊँ तो मैंने साफ़ तौर पर मधु जी को कह दिया कि ‘मधु जी, मेरी उस पार्टी में निभेगी नहीं, अगर बोलने की भी आज़ादी नहीं होगी तो क्या फायदा?’ एक यही तो आकर्षण है कि हर तरह की तकलीफ़ सहकर, दिल्ली जैसे शहर में जहाँ सोशलिस्ट पार्टी का कोई वजूद नहीं उसके बावजूद पार्टी जलसों में दरियां बिछाने, स्टेज लगाने, मुनादी करने, नेताओं के जिंदाबाद नारे लगाने से जो सुख मिलता है, वह भी न मिले तो फिर क्या फायदा? फिर मैंने मधु जी को हंसकुमार जायसवाल का क़िस्सा सुना दिया, उसके बाद उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा।

दिल्ली का बाशिंदा होने के कारण, मुझे सोशलिस्ट नेताओं से इतर हिंदुस्तान की मुख्तलिफ पार्टियों के नेताओं को नज़दीक से जानने तथा संगत करने का मौका मिला है।

मेरे पचास साल से ज़्यादा के सियासी तजुर्बे में, हिंदुस्तान के तीन सोशलिस्ट नेता – लोकबंधु राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर जी और मुलायम सिंह यादव – ज़मीन से जुड़े ऐसे नेता रहे हैं, जो चौबीस घंटे, आठों पहर, राजनैतिक, जद्दोजहद में गुजारते थे, ये अपने कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते थे। कार्यकर्ताओं के दुख-सुख उनके अपने थे। इन नेताओं की ज़िंदगी संघर्षों, रेल-जेलों में गुजरी है। चुनाव में टिकट से लेकर पैसों के इंतजाम तथा उनके व्यक्तिगत जीवन की ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी भी यही निभाते थे।

आजकल के वातानुकूलित कमरों, कारों तथा बेशुमान धन-दौलत के बल पर सियासत करने वाले नेता अंदाज़़ा भी नहीं लगा सकते, आँधी तूफ़ान, बारिश, गर्मी, सर्दी में पार्टी के प्रोग्रामों, मोर्चा, संघर्षों, कार्यकर्ताओं के दुख-सुख के मौके पर हाजिर हो जाते थे। सोलह-अठारह घंटे धूल फांकते दिन रात जागते, गाँव देहात, कस्बों में अलख जगाते रहते थे। इन नेताओं ने, विपक्ष में रहते हुए, पुलिस की मार, जेलों की तकलीफों को भोगा है।

इसी कारण ये ज़मीनी नेता भी बने। इन पर इनके कार्यकर्ताओं को नाज रहा है। इन नेताओं को अपने कार्यकर्ता का नाम, गाँव, शहर तक अधिकतर मुँहजबानी याद रहता था। जलसे के बाद जहाँ रात पड़ी, वही खेत, दुकान, मकान में खाट बिछाकर लेट गए। इस कारण ये जन-नेता भी बने। अपने दम पर अपनी पार्टियों को खड़ा किया।

सोशलिस्ट तहरीक में पहली कतार के नेताओं को छोड़कर हिंदी पट्टी में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव तथा हाल फिलहाल में कुछ हद तक नीतीश कुमार जननेता के रूप में उभरे, इनसे सोशलिस्टों को एक नयी आशा जगी थी। ख़ास तौर से मुलायम सिंह यादव से,क्योंकि मुलायम सिंह यादव ही ऐसे नेता थे जो ताल ठोंक कर, डंके की चोट पर अपने को फ्रख़ के साथ लोहिया का अनुयायी घोषित करते थे और पार्टी का नाम भी समाजवादी पार्टी रखा। मुलायम सिंह में एक खांटी समाजवादी की सारी खूबियाँ सोशलिस्ट रहबर कमाण्डर अर्जुन सिंह भदौरिया तथा नत्थू सिंह से विरासत में मिली थीं। यह भी कबूल करना पड़ेगा कि हिंदुस्तान के आम नागरिक में लोहिया के नाम का जितना प्रचार मुलायम सिंह के कारण हुआ, वह बेमिसाल है।

मुलायम सिंह ने सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय घोषणा की थी कि “समाजवादी पार्टी समीकरण की नहीं बल्कि संघर्ष की राजनीति करेगी।” कुछ हद तक वो इस पर चले भी, इसी कारण उन्हें ‘धरतीपुत्र’ ‘जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है’ जैसे नारों से नवाजा गया। छोटी उम्र में एमएलए बन गये। 12 बार एमएलए-एमएलसी।
1989 में पहली बार मुख्यमंत्री
1993 में दोबारा मुख्यमंत्री
1996 में हिंदुस्तान के रक्षामंत्री
2003 में फिर मुख्यमंत्री। सात बार संसद सदस्य बनने का मौका मिला।

अब सवाल उठता है कि क्या सत्ता में आने पर उन्होंने समाजवादी नीतियों, कार्यक्रमों, सपनों को परवान चढ़ाया? क्या उनका खांटीपन आखि़र तक कायम रहा? इस पर बहुत सारे प्रश्नचिह्न हैं?
सत्ता प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या-क्या रास्ते अपनाए, उनकी रणनीति किस प्रकार अपने रंग बदलती रही, सन्तति और संपत्ति के मोह से वो कितना बचे, यह तो विवादास्पद पहलू है। परंतु कुछ ऐसी सगुण ठोस नजीरे हैं जो ज़ाहिर तौर पर उनको कठघरे में खड़ा करती हैं।

अमर सिंह, अमिताभ बच्चन, अनिल अम्बानी, सहाराश्री, जयाप्रदा जैसों की सोहबत, सैफई में फिल्मी सितारों का हुडदंग, 2005-2006 में दादरी में अनिल अम्बानी की रिलायंस के लिए भूमि अधिग्रहण। उत्तर प्रदेश की जनता ने मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने के लिए बहुमत दिया, परंतु उन्होंने राजशाही अंदाज़ में अपने गैर-राजनीतिक, अनुभवहीन बेटे के सिर पर मुख्यमंत्री का ताज पहना दिया।

उन्होंने न जाने किन कारणों से, दो सियासी दाग जो अपने ऊपर लगाए उसका कलंक, उनके नाम के इतिहास के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा।

पहला 23 अप्रैल 2007 को इलाहाबाद की रैली में उनकी रहनुमाई में चन्द्रबाबू नायडू, एस. बंगरप्पा, ओमप्रकाश चौटाला, जयललिता आदि ने तीसरा मोर्चा बनाने की पहल सार्वजनिक रूप से की थी परंतु मुलायम सिंह ख़ामोश रहे। जनता दल के पाँच दलों के विलय का प्रयास हुआ। नयी पार्टी का अध्यक्ष, चुनाव चिह्न सब उन्हीं का माना गया परंतु एकता तो दूर, बिहार में महागठबंधन का हिस्सा तो क्या, अपनी पार्टी के उम्मीदवार भी महागठबंधन को हरवाने के लिए उतार दिये।

एक सोशलिस्ट के नाते मुझे सबसे ज़्यादा रंज उस घटना से है, जब एक ऐसा मौका आया कि हिंदुस्तान के सभी तरह के सोशलिस्टों ने, जिनमें लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, केरल के एम.पी. वीरेन्द्र कुमार, हैदराबाद से बदरी विशाल पित्ती ने एक आवाज़ में मुलायम सिंह की अध्यक्षता में सोशलिस्ट पार्टी बनाने तथा उनका चुनाव चिह्न, पार्टी का नाम कबूल करने का निर्णय मुलायम सिंह के घर पर लिया था, उसी वक़्त नीतीश कुमार को बिहार में मुलायम सिंह के दबाव में लालू यादव ने मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया था। सारी बातें तय हो गई थीं। तमाम हिंदुस्तानी सोशलिस्ट कार्यकर्ता जोश में भरे हुए थे। मुलायम सिंह जी ने उस मुहीम पर पलीता लगा दिया। कलंक की आखि़री कील 2019 के आम चुनाव में ठोंकी जब उन्होंने संसद में खड़े होकर कहा कि मोदी जी सबको साथ लेकर चलते हैं, मैं चाहता हूँ कि अगली बार भी वे प्रधानमंत्री बनें।

अंत में मैं बहुत शिद्दत से महसूस करता हूँ कि मुलायम सिंह यादव की सारी राजनैतिक यात्रा का मूल्यांकन किया जाए तो उनका त्याग, संघर्ष, सोशलिस्ट, तन्जीम का परचम लहराने में बड़ा योगदान है। अपने साधारण कार्यकर्ताओं से जुड़ाव बेमिसाल है। सांप्रदायिकता के खिलाफ, चट्टान की तरह खड़ा होकर, सब कुछ दाँव पर लगाने से हिंदुस्तान की अकलियत को यह अहसास दिलाना कि तुम अकेले नहीं हो, भले ही तासुब्बी, नफरती ताकतें अगर ज़हर उगल रही हैं तो अक्सरियत की बड़ी तादाद उनको नेस्तनाबूद करने के लिए भी खड़ी है।

डंके की चोट, ताल ठोक समाजवादी नेता को अपने श्रद्धा सुमन व्यक्त करता हुआ कहूंगा, कि अगर वो, सत्ता की राजनीति से थोड़ा अलग हटकर काम करते तो सोशलिस्ट तहरीक में उनका निर्विवाद स्थान होता।

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