क्या विभाजन के लिए गांधीजी जिम्मेवार थे?

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विभाजन के लिए गांधीजी को जिम्मेदार माननेवाली हिन्दूराष्ट्रवादी विचारधारा के अंधभक्त अनुयायियों को इतिहास का कुछ भी ज्ञान नहीं है।

1942 का ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो आंदोलन’ गांधीजी के नेतृत्व में छेड़ा गया अंतिम राजनीतिक आंदोलन था। इसके बाद की कांग्रेस की राजनीति ने गांधी को लगभग पूरी तरह से दरकिनार कर दिया था।

1942 का आंदोलन, गिरफ्तारी, तीन साल के बाद जेल से मुक्ति, विश्वयुद्ध की समाप्ति, दुनिया के जड़मूल से बदलते संयोग और आजादी का उषःकाल!

अब स्वराज्य प्राप्त करने के लिए अन्य किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं थी और उसके कारण कांग्रेस के नेताओं को गांधीजी के नेतृत्व की जरूरत भी नहीं थी। दोनों के मार्ग अलग अलग हो गए।

स्वराज्य के बारे में जो बातचीत हुई उसमें गांधीजी की तथा अन्य नेताओं की भूमिकाओं में जमीन आसमान का अंतर था।गांधीजी के जीवन के इस ‘लास्ट फेज़’ को बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि गांधीजी सचमुच क्या करना चाहते थे, परंतु कर न सके और अपने जीवन भर के राजनैतिक साथियों को साथ नहीं ले सके।

‘पूर्णाहुति’ में प्यारेलाल लिखते हैं कि :

“जाग्रत रूप से या अनजाने में, समग्र पुराना नेता मंडल, बाह्य अवकाश में आकाशगंगा के तारामंडलों की तरह, अगोचर रीति से, एक अन्य सूर्य की कक्षा में – नये वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन की कक्षा में खिंचा जा रहा था।कुछ समय से यह नेता मंडल और गाँधीजी अलग अलग भूमिकाओं में कार्य कर रहे थे और इसके कारण उनके सोच विचार, उनकी दृष्टि तथा उनके झुकाव को अलग अलग रूप मिला था। उनकी भूतपूर्व प्रेरणामूर्ति तथा उनके बीच का अंतर उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। अनाड़ी बूढ़े को ऊंचे आसन पर बिठाया गया, उसकी प्रतिभा के लिए, तथा उसकी अचूक सूझ के लिए उसकी प्रशंसा की गई, उसकी सलाह ली गई। आदरपूर्वक उसकी बात सुनी गई और फिर उसको एक कोने में रख दिया गया।”

1946 के अप्रैल माह में एक पत्र में गांधीजी ने लिखा : ‘मैं चार दिन से यहां हूँ परंतु सरदार से मैं कुछ मिनटों से ज्यादा मिला नहीं हूं। कई बार मुझे लगता है कि उन सबमें से मुझे ही समय की कमी नहीं है।’

और उनके सब साथियों ने गांधीजी की सलाह लिये बिना अथवा उन्हें खबर भी दिये बिना देश के भविष्य के बारे में अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये। उनमें सबसे महत्त्व का और बहुत दूर तक असर डालनेवाला निर्णय था देश के विभाजन का। वाइसराय के साथ परामर्श में यह निर्णय ले लिया गया था।

विभाजन ही एकमात्र हल है, अराजकता और अंधेरे से डरकर हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए – ऐसा गांधीजी अब भी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उनको लगता था कि यह बहुत गलत कदम उठाया जा रहा है और उसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी होगी। उनकी दिली इच्छा यही थी कि, ‘ऐसा न कहा जाय कि गांधी हिंद के विभाजन का समर्थक था।विभाजन की योजना में अनिष्ट के सिवा मुझे दूसरा कुछ भी दिखाई नहीं देता।’

आखिरी प्रयत्न के रूप में गांधीजी ने माउंटबेटन को एक निजी पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि “देश का विभाजन करने की बजाय अंग्रेज किसी भी एक पक्ष को सारी सत्ता सौंपकर यहां से चले जाएं – चाहें तो जिन्ना को सत्ता सौंप दें, फिर बाद में हम अंदर-अंदर हमारा हिसाब कर लेंगे।”

गांधी की प्रतिभा में से और जीवन भर की उनकी अहिंसा की साधना में से पैदा हुआ यह अनोखा प्रस्ताव था।

गांधीजी का यह प्रस्ताव एक पुरानी कथा की याद दिलाता है।बच्चा किसका? दो स्त्रियों के बीच विवाद हुआ, परंतु जब कहा गया कि बच्चे के दो भाग करके दोनों में बांट दो, तब सच्ची मां से नहीं रहा गया। उसने कहा, ‘उसे मारना मत, भले दूसरी के पास वह रहे। मुझसे उसके टुकड़े नहीं देखे जाएंगे।’

गांधीजी देश का विभाजन होते नहीं देख सकते थे, इसलिए उन्होंने कहा कि सत्ता जिन्ना को सौंपकर आप चले जाइए, परंतु देश का विभाजन मत कीजिए।

परंतु ऐसा कोई भी कदम उठाने की तैयारी, माउंटबेटन से भी अधिक, कांग्रेस के नेताओं की बिल्कुल ही नहीं थी। इसलिए इस प्रस्ताव पर गंभीरता से सोच विचार नहीं किया गया।आखिर देश का विभाजन हुआ ही। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने की वर्षों की लड़ाई के बाद जब सचमुच मुक्त होने का समय आया तब देश के भावी गठन के लिए इन राजनैतिक नेताओं को गांधी की जरूरत नहीं रही।

आखिर गांधी ने ही नीलकंठ बनकर बचा लिया!

जहर के फल जहरीले ही होते हैं। राजनीति ने वर्षों तक कौमी बखेड़े का जहर घोल रखा था। अब, जब वह जहर राष्ट्रजीवन के रोम रोम में व्याप्त हो गया तब उसका शमन करने की हिम्मत कट्टर कौमवादियों तथा राजनीति वालों के पास नहीं थी। आजादी मिली। उससे पहले तथा तुरंत बाद के समय में देश भयंकर कौमी दंगों में झुलस गया। तब उस अग्नि को शांत करने तथा उस जहर का शमन करने के लिए किसी नीलकंठ की आवश्यकता थी, गांधी नीलकंठ बन गए।

वह दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व दावानल था। लाखों निर्दोष लोग उसमें मारे गए। कई दिनों तक अमानुषिक हत्याकांड चला, कत्लेआम हुआ, बलात्कार हुए, जबरदस्ती से धर्मांतरण हुए, घर जलाए गए, माल-मिल्कियत का भारी नुकसान हुआ।

दुनिया में कभी उतने बड़े पैमाने पर जनसंख्या की अदलाबदली नहीं हुई थी। लगभग डेढ़ करोड़ लोग अपने घरबार, अपनी माल-मिल्कियत और सर-सामान छोड़कर, नई खड़ी की गई एक बनावटी सरहद लांघकर स्वदेश में से अन्य देश में गए और वहाँ निराश्रित बनकर रहे। दोनों तरफ आमने-सामने दिशाओं में जानेवाले पैदल तथा जो कुछ वाहन मिला उसमें बैठकर, हिजरतियों की 50-60 मील लंबी कतारें लग गई थीं। दोनों कतारें पास-पास आ जातीं तो एक दूसरे पर हल्ला भी बोल देतीं। अन्य लाखों लोगों को यहां से वहां कराने के लिए लगभग हजार विशेष रेल, ट्रक आदि उपयोग में लिये गए। निराश्रितों के तकलीफ भरे किस्से, भयंकर हकीकतें तथा तरह तरह की अफवाहों से सारा वातावरण जहरीला बन गया था।

इस वातावरण ने लगभग हरेक व्यक्ति को मानो संयोग का पुतला बना दिया था। लोग परिस्थिति के हाथ में प्यादे बन गए थे।

परंतु गांधी ने इस तरह परिस्थिति के हाथ प्यादे बनने से बिल्कुल इनकार कर दिया। उन्होंने परिस्थिति का मुकाबला किया। वे अकेले जूझते रहे। वे नोआखाली, कलकत्ता, बिहार, दिल्ली दौड़कर पहुंचे और उन सब स्थानों पर गांधी ने जो कुछ भी किया, उसकी तुलना में दुनिया की कोई भी घटना नहीं आ सकती। उन्होंने इस दावाग्नि को शांत करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। उनके लिए यह अहिंसा की तथा मानवता की सख्त से सख्त कसौटी थी।

गांधी के जीवन का यह परम उज्ज्वल अंतिम अध्याय है।सत्याग्रह का शुद्ध स्वरूप उससे प्रकट हुआ है। गांधीजी कहते थे कि सत्याग्रही को असफलता कभी मिलती नहीं। सत्याग्रही स्वयं अपने को मिटा देता है, किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना जीव मात्र की सेवा करने की इच्छा रखता है और ईश्वर में अटल श्रद्धा रखकर उसकी शरण में जाता है। उन दिनों एक ऐसे ही शुद्ध सत्याग्रही का स्वरूप गांधीजी में देखने को मिला।

उन्होंने तय कर लिया था कि वे इस दावानल की ज्वालाओं के बीच ही रहेंगे। ‘जबतक ज्वालाएँ शांत नहीं होंगी तबतक मैं वहाँ से हटूंगा नहीं।’

नवंबर,1946 में वे नोआखाली गए। तब से लेकर 30 जनवरी,1948 के हत्या के दिन तक का पंद्रह महीनों का समय उनका ‘करेंगे या मरेंगे’ के मिशन में ही बीता। उस दरम्यान उनके उदगार थे : ‘मैं भट्टी में पड़ा हूँ। चारों ओर आग सुलग रही है… मानवता को हम पैर के नीचे रौंद रहे हैं… मैं तो चिता पर बैठा हूँ , नीचे अग्नि धधक रही है।’

गाँधीजी की इस तपस्या ने चमत्कार किया। नोआखाली, कलकत्ता, बिहार, दिल्ली – सब जगह परिस्थिति में न केवल परिवर्तन आया, परिस्थिति का कायाकल्प हो गया। माउंटबेटन ने इसकी ‘वन मैन बाउंड्री फोर्स’ के चमत्कार के रूप में प्रशंसा की। उन्होंने गांधीजी को पत्र लिखा : “पंजाब में हमारे पास 55 हजार सैनिक हैं, पर वहां दंगे हो रहे हैं, बंगाल में आपका दल एक ही आदमी का बना हुआ है, वहां अभी बिल्कुल दंगा नहीं है। एक सैनिक अमलदार के रूप में तथा एक प्रशासक के रूप में आपकी इस ‘एक आदमी की फौज’ को मेरी ओर से मुबारकबाद देने दीजिए।”

अंतिम दिनों की तपस्या के बारे में राजाजी (चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य) ने एक पत्र में गांधीजी को लिखा था : “आप अभी जो कर रहे हैं, वह हर रीति से महान कार्य है और दूसरी कोई भी वस्तु कई रीतियों से देखने पर उसमें रुकावट नहीं बन पाएगी। मुझे लगता है कि आप प्रथम बार ही विधायक अहिंसा का प्रयोग कर रहे हैं। यह अत्यंत मूल्यवान बन जाएगा। मैं मानता हूं कि आपका यह नया अनुभव, विचार और कार्य की सर्वथा नई दिशाएं खोल देगा।”

गांधीजी एक श्रेष्ठ समाजविज्ञानी थे और उस नाते से चारों ओर हिंसा के घोर वातावरण के बीच भी उन्होंने अपनी अहिंसा की खोज आगे बढ़ाई। अहिंसा के शुद्ध प्रेम के असल रचनात्मक और सृजनात्मक रूप को मानवजाति के सामने पेश करने का भगीरथ पुरुषार्थ उन्होंने किया। अत्यंत विषम और प्रतिकूल परिस्थिति के सामने वे झुके नहीं। बिल्कुल झुके नहीं।परिस्थिति को वे बदल नहीं सके तो परिस्थिति भी उनको बदल नहीं सकी, उनको अपना प्यादा बना नहीं सकी, उनके ऊपर हावी हो नहीं सकी। वे परिस्थिति के सामने जूझते रहे, आखिरी दम तक जूझते रहे। प्राण छूट गए और देह भस्मीभूत हो गई, वे जूझते ही रहे।

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने उपन्यास ‘ओल्ड मैन एंड द सी’ में अनुभवी बूढ़े मच्छीमार के मुंह से एक महत्त्वपूर्ण वाक्य कहलाया है – ‘मानव का नाश कर सकते हैं, मानव को हरा नहीं सकते।’ गांधी मनुष्य के ऐसे अदम्य आत्मबल की प्रतीति दुनिया को करा गए। अहिंसा की एकनिष्ठ उपासना से कौमी दावानल को शांत करते गए। गांधी अजेय रहे। अहिंसा का विचार और दर्शन अमर हो गया।”

( स्रोत : कांति शाह की पुस्तक; ‘हिंद स्वराज्य’ – एक अध्ययन’ से साभार)
प्रस्तुति : विनोद कोचर

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