— राजू पाण्डेय —
कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगानेवाले कांग्रेस-विरोधियों को निराश करते हुए पार्टी के अध्यक्ष पद का बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित चुनाव अंततः लोकतांत्रिक रीति से सफलतापूर्वक संपन्न हो गया और मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में कांग्रेस को एक नया अध्यक्ष मिल गया जिसके साथ तीन विशेषण प्रेक्षकों को अभी से जोड़ने पड़े हैं- अनुभवी, दलित और गैर-गांधी किंतु गांधी परिवार समर्थित।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव घटनाप्रधान और हंगामाखेज रहा, जैसी कल्पना थी कि यह निर्विरोध संपन्न होगा या कठोर पार्टी अनुशासन से भयभीत मतदाता यांत्रिक भाव से आलाकमान की पसंद पर मुहर लगा देंगे वैसा बिलकुल नहीं हुआ। पराजित प्रत्याशी शशि थरूर अपनी वैचारिक असहमतियों और परिवर्तन के एजेंडे के साथ अंत तक डटे रहे। मल्लिकार्जुन खड़गे से पहले थरूर के प्रतिद्वंद्वी के रूप में चर्चित अशोक गहलोत की निजी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण उत्पन्न विवाद ने जितनी चिंता कांग्रेस समर्थकों में पैदा की उससे अधिक संतोष इस प्रकरण के बुद्धिमत्तापूर्ण और सहज पटाक्षेप ने उन्हें दिया। चुनाव प्रक्रिया और मतदान को लेकर शशि थरूर की आपत्तियां भी यह सिद्ध करती रहीं कि यह सचमुच का चुनाव है, चुनाव का नाटक नहीं।
अब जब चुनाव निर्विवाद रूप से सम्पन्न हो गए हैं, पराजित और विजयी प्रत्याशी दोनों ने उच्चतम लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन किया है और एक साथ मिलकर कांग्रेस को मजबूत करने की बात कही है तब चुनाव के दौरान उत्पन्न तनावपूर्ण परिस्थितियों को भी कांग्रेस के मजबूत होते आंतरिक लोकतंत्र के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
चुनावों में 9385 पीसीसी प्रतिनिधियों ने मतदान किया। विजयी प्रत्याशी खड़गे को 7897 और पराजित शशि थरूर को 1072 मत मिले। कांग्रेस आलाकमान और नवनिर्वाचित अध्यक्ष दोनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि इन परिवर्तनकामी 1072 पीसीसी प्रतिनिधियों और पराजित प्रत्याशी के साथ किसी तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई न हो न ही इनकी मांगों को एकदम खारिज किया जाए। बल्कि आनेवाले दिनों में इनकी असहमति को या तो स्वैच्छिक सहमति में बदला जाए या फिर गुण-दोष के आधार पर इनके सकारात्मक सुझावों को स्वीकार किया जाए। शशि थरूर और उनके साथियों को भी चुनावी कटुता को भुलाकर पार्टी अनुशासन में बंधते हुए पार्टी हित के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट देना होगा।
नवनिर्वाचित अध्यक्ष खड़गे के लिए आनेवाला समय बहुत चुनौतीपूर्ण है। सबसे बड़ी चुनौती तो कांग्रेस के उस वैचारिक आधार को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करने की है जो अहिंसक संघर्ष, सेवा, सहयोग, समावेशन और बहुलताओं की स्वीकृति जैसी विशेषताओं से युक्त है। बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के वर्तमान फासीवादी उभार का मुकाबला असंभव है।
इसलिए कोई दीर्घकालिक रणनीति बनाते हुए ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार करने की कवायद होनी चाहिए जिन्हें कांग्रेसवाद की बुनियादी समझ हो। जब तक स्वयं कांग्रेसजन कांग्रेसवाद की अपनी विचारधारा पर विश्वास नहीं करेंगे, कांग्रेस की गौरवशाली विरासत और अपने महान नेताओं पर गौरव नहीं करेंगे तब तक सॉफ्ट हिंदुत्व जैसी भटकाने वाली आत्मघाती वैचारिक पगडंडियों पर चलने का आकर्षण उनमें बना रहेगा।
खड़गे को अपनी प्राथमिकताएं भी बड़ी स्पष्टता से तय करनी होंगी। क्या येन केन प्रकारेण प्रशांत किशोर मार्का रणनीतियों के माध्यम से जल्द से जल्द चुनावों में प्रदर्शन सुधारने का प्रयास करना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए भले ही इसके लिए ऐसी कांग्रेस गढ़नी पड़े जो नाम भर की कांग्रेस हो किंतु जिसकी आत्मा में भाजपा के हिंदुत्व और आम आदमी पार्टी के सजावटी राष्ट्रवाद के लटके झटके समाए हुए हों? या फिर क्या कांग्रेस के पुराने जांचे परखे अहिंसक प्रतिरोध के रास्ते पर चलना उन्हें श्रेयस्कर लगेगा जिसमें पदयात्राओं और समाज सुधार एवं सेवा कार्यक्रमों का सहारा लेते हुए सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसी विधियों के द्वारा साम्प्रदायिक शक्तियों से संघर्ष किया जाएगा? क्या खड़गे की प्राथमिकता कांग्रेस की आईटी सेल और सोशल मीडिया सेल जैसी आभासी दुनिया की युद्धक टोलियों को मजबूत करने की होगी या फिर सेवादल जैसे जमीनी संगठनों को ताकतवर बनाकर सीधे जनता के बीच जाना उनकी पसंद होगी?
नवनिर्वाचित अध्यक्ष को क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस के संबंधों को पढ़ना, सुधारना, रचना, गढ़ना होगा। उन्हें बताना होगा कि यह वह दर्प में डूबी अधिनायकवादी कांग्रेस नहीं है जो क्षेत्रीय दलों को कमजोर करने पर आमादा रहा करती थी, यह गलतियों से सबक सीखने वाली नई कांग्रेस है जो क्षेत्रीय दलों को आदर-सम्मान देती है, उन पर भरोसा करती है।
हाल के दिनों में कांग्रेस ने अनेक क्षेत्रीय दलों के साथ वोटों के अंकगणित को आधार बनाकर गठजोड़ किए हैं किंतु मतदाता क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस की जो केमिस्ट्री देखना चाहता था वह नदारद थी, इसलिए गठबन्धन के पक्ष में वोट ट्रांसफर नहीं हुआ और दोनों पार्टियों को नुकसान हुआ।
कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों को यह समझाना होगा कि भाजपाई राष्ट्रवाद देश को एक रंग में रॅंगने का लक्ष्य लेकर चल रहा है और देश की भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय और प्रजातीय विविधता को अभिव्यक्ति देने वाले क्षेत्रीय दलों के खात्मे के बिना उसका यह लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो सकता। कांग्रेस की मजबूती क्षेत्रीय दलों की रक्षा के लिए आवश्यक है और क्षेत्रीय दलों का साथ कांग्रेस की मजबूती के लिए जरूरी है। सबसे बढ़कर दोनों के सहयोग, सामंजस्य और साझा प्रयासों से ही देश की गंगा जमनी तहजीब को बचाया जा सकता है।
अनेक प्रदेश जो कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करते थे उनमें पार्टी का पारंपरिक मतदाता उससे ऐसा विमुख हुआ कि न केवल कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि स्थिति ऐसी बन गई है कि आज उसके पास निष्ठावान कार्यकर्ताओं का कैडर भी नहीं है।
एक समय था जब ग्रामीण मतदाता और किसान कांग्रेस पर अगाध विश्वास करते थे। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक कांग्रेस से जुड़कर स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते थे। कांग्रेस को आत्मचिंतन करना होगा कि कांग्रेस पर इतना भरोसा करने वाला निष्ठावान मतदाता उससे विमुख क्यों हुआ? पार्टी को स्वयं से चुभने वाले सवाल पूछने होंगे और इनके सच्चे न कि सुविधाजनक जवाब हासिल करने होंगे भले ही वे कितने ही कड़वे क्यों न हों। कांग्रेस को इस बात की भी पड़ताल करनी होगी कि क्या ब्राह्मणवादी आभिजात्य सोच कहीं न कहीं कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर उत्तरोत्तर हावी होती गई और जब पार्टी की कथनी और करनी का अंतर लोगों की समझ में आया तो उन्हें ऐसा लगने लगा कि उनका भरोसा तोड़ा गया है, उन्हें छला गया है।
एक प्रश्न कांग्रेस के कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं का भी है। कांग्रेस आलाकमान पर इनके पर कतरने के आरोप लगते रहे हैं और इन क्षत्रपों पर भी अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के कारण पार्टी के सिद्धांतों को त्यागकर अवसरवाद का आश्रय लेने के आक्षेप लगे हैं। यह दोनों ही स्थितियां कांग्रेस के लिए घातक हैं। यह देखना रोचक होगा कि मल्लिकार्जुन खड़गे किस प्रकार यह सुनिश्चित करते हैं कि शीर्ष नेतृत्व और क्षत्रप एक दूसरे से असुरक्षित महसूस न करें।
अनेक प्रेक्षक यह मानते हैं कि कांग्रेस की अलोकप्रियता का एक बड़ा कारण जनता तक अपनी बात पहुंचाने, अपना पक्ष रखने व जनता से संवाद स्थापित करने के कौशल का नितांत अभाव रहा है।
आखिर क्या कारण है कि जो कांग्रेस कभी देश की धड़कन हुआ करती थी उसके बारे में दक्षिणपंथी शक्तियों ने यह नैरेटिव बनाने में कामयाबी हासिल की है कि वह देश की शत्रु है, देश की बर्बादी के लिए जिम्मेदार है? यह कैसा विरोधाभास है कि अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति पक्षपात के आरोप झेलती कांग्रेस का अल्पसंख्यक मतदाता अब क्षेत्रीय दलों को पसंद कर रहा है या फिर चरम दक्षिणपंथी अर्द्ध धार्मिक पार्टियों को। यह कैसी विडंबना है कि दलित और आदिवासी समुदाय कांग्रेस में सवर्णों के दबदबे से नाराज हैं और इधर सवर्ण ही कांग्रेस से सर्वाधिक रुष्ट हैं और उसे दलितों,आदिवासियों और अल्पसंख्यक वर्ग को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देनेवाली पार्टी मान रहे हैं। गांधी, सुभाष, सरदार सबके दक्षिणपंथी बहुरूप तैयार किए जा रहे हैं, वे उत्तरोत्तर लोकप्रिय भी हो रहे हैं और कांग्रेस असहाय खड़ी देख रही है। नेहरू जैसे उदार नेता को भारतीय राजनीति के खलपुरुष के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और कांग्रेस लाचार है। स्वतंत्र भारत को गढ़ने के 70 वर्षों को अंधकार के सात दशकों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और कांग्रेस के बड़े नेताओं की चुप्पी यह संकेत दे रही है कि उन्हें स्वयं अपनी उपलब्धियों पर विश्वास नहीं है।
क्या नव निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष कांग्रेस और जनता के बीच सीधे संवाद का कोई कारगर जरिया ढूंढ़ पाएंगे- अपनी बात कहने का ऐसा माध्यम जो किसी पक्षपाती इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सत्ता नियंत्रित सोशल मीडिया का मोहताज न हो? क्या वे भारत जोड़ो यात्रा कर रहे राहुल की भांति हर कांग्रेसजन को यथाशक्ति जनता से प्रत्यक्ष संवाद हेतु प्रेरित कर पाएंगे? क्या वे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को गांधी, जवाहर और सरदार के आदर्शों के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण के लिए अहिंसक जन आंदोलन खड़ा करने को तैयार कर सकेंगे?
कांग्रेस और गांधी परिवार के संबंधों पर इन दिनों बहुत कुछ लिखा गया है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि नायक पूजा और परिवारवाद भारतीय राजनीति का अपरिहार्य और अविभाज्य अंग हैं। हमें यह भी मानना होगा कि भारतीय जनता अपने नायकों पर भरपूर प्यार लुटाती है किंतु जब जब वह नायक स्वेच्छाचारी और निरंकुश होता है तो उसे अनुशासित करने के लिए सत्ता से बाहर का रास्ता भी दिखाती है। सत्ता का कोई भी केंद्र हो शीर्ष नेतृत्व के चारों ओर चापलूस दरबारी अपना डेरा जमा लेते हैं। यह राजतंत्र के जमाने से होता चला आ रहा है और आज लोकतंत्र के युग में भी हर राजनीतिक दल में हर बड़े नेता के चारों ओर चाटुकार स्वार्थी हितचिंतकों का जमावड़ा देखा जाता है जो उसे कार्यकर्ताओं और जनता से सीधे संवाद नहीं करने देते। गांधी परिवार और राहुल कोई अपवाद नहीं हैं। यदि राहुल को एक सफल नेता बनना है तो उन्हें इन तथाकथित हितचिंतकों से छुटकारा पाना होगा।
असल सवाल यह है कि जनता के इस प्यार और विश्वास पर खरा उतरने का, इसका नाजायज फायदा न उठाने का और जनता के लिए अपनी कुर्बानी देने का जज्बा किसी नायक में कितना है? इंदिरा और राजीव की शहादतें देने वाले गांधी परिवार के पास आत्मावलोकन और आत्मविश्लेषण की नेहरू की वह उदार विरासत है जिसकी छोटी सी झलक नवंबर 1936 में कोलकाता की ‘माडर्न रिव्यू’ पत्रिका में ‘चाणक्य’ के छद्म नाम से लिखे उनके लेख “राष्ट्रपति” में मिलती है।
आदर्श स्थिति तो यही है कि कोई भी लोकतांत्रिक पार्टी परिवारवाद और अधिनायकवादी दृष्टिकोण से सर्वथा मुक्त हो। किंतु जब कोई परिवार पार्टी की उस विचारधारा का पर्याय बन जाता है जो उसकी बुनियाद है तब वह परिवार पार्टी की जरूरत बन जाता है। जैसा हम देख रहे हैं कि कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता, समावेशन और बहुलताओं की स्वीकृति के आदर्श के लिए गांधी परिवार मजबूती से फ़ासिस्ट शक्तियों के सामने डटा हुआ है, एक आम आदमी भी यह अनुभव कर रहा है कि कांग्रेस के असमावेशी हिंदुत्व के सम्मुख शरणागत होने की प्रक्रिया में गांधी परिवार का प्रखर विरोध ही मानो अब एकमात्र अवरोध रह गया है।
कांग्रेस को गांधी परिवार की आवश्यकता है। कांग्रेस को परिवारवाद के दायरे से बाहर निकालने का उत्तरदायित्व भी गांधी परिवार को ही निभाना होगा। मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष पद पर निर्वाचन इस दिशा में पहले कदम की भांति भी देखा जा सकता है।