21 अक्टूबर। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने पर्यावरण और वन मंत्रालय से आग्रह किया है, कि नए वन संरक्षण नियम 2022 को रोक दिया जाए। क्योंकि यह वन अधिकार अधिनियम, 2006 के आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। आयोग ने सरकार से डायवर्जन के लिए प्रस्तावित वनभूमि पर आदिवासियों को वन अधिकार अधिनियम अधिकार देने के लिए नियम 2017 के कार्यान्वयन को पुनर्स्थापित और कड़ाई से उसकी निगरानी करने के लिए भी कहा है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, आयोग ने निष्कर्ष निकाला है, कि वन संरक्षण नियम 2022 ने वन संरक्षण नियम 2014/2017 में प्रदान किए गए ‘सहमति खंड’ को हटा दिया है। उक्त खंड वन अधिकार अधिनियम के तहत इस आवश्यकता को लागू करता है, कि अधिकारियों को वनवासियों के वन अधिकारों को मान्यता देनी चाहिए और पहले चरण की मंजूरी के लिए वन भूमि के डायवर्जन का प्रस्ताव भेजने से पहले ग्राम सभाओं की सहमति भी प्राप्त करनी चाहिए।
आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को लिखे पत्र में कहा है, कि मौजूदा नियमों ने सहमति लेने की आवश्यकता को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। साथ ही पहले चरण की मंजूरी या यहाँ तक कि दूसरे चरण की मंजूरी के बाद किए जाने वाले अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया को छोड़ दिया है। उन्होंने लिखा है, कि नए नियम ‘वनीकरण की प्रक्रियाओं’ में वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन करते हैं। पर्यावरण मंत्री को भेजे गए पत्र में आयोग के प्रमुख ने मंत्रालय की इस दलील को खारिज कर दिया है, कि नए नियम वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन नहीं करते हैं, क्योंकि ये ‘समानांतर वैधानिक प्रक्रियाएं’ हैं।
अध्ययन का हवाला देते हुए वनभूमि के डायवर्जन की एक गंभीर तस्वीर पेश करते हुए आयोग के प्रमुख चौहान ने तर्क दिया, यही कारण है कि वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन और वन संरक्षण अधिनियम के तहत प्रक्रियाओं को अलग-अलग समानांतर प्रक्रियाओं के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इसके बजाय दोनों कानूनों को एक-दूसरे के संयोजन के साथ लागू करने की आवश्यकता है।
मालूम हो कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 28 जून 2022 को 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया था। कुछ रिपोर्टों में उल्लेख किया गया था, कि नए नियम बुनियादी ढांचे और विकास परियोजनाओं के लिए वनभूमि को डाइवर्ट करने की प्रक्रिया को सरल बनाएंगे तथा क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि की उपलब्धता को आसान बनाएंगे। नए नियमों के तहत जंगल काटने से पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासी समुदायों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अब राज्य सरकार की होगी, जो कि पहले केंद्र सरकार के लिए अनिवार्य थी।
जानकारों का मानना है, कि नए वन संरक्षण नियम-2022 से आदिवासियों के विस्थापन और बचे-खुचे प्राकृतिक जंगलों के खात्मे की प्रक्रिया और तेज होगी। केंद्र सरकार की अनुमति के बाद यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी, कि वो उस जंगल में रह रहे लोगों से या जिन लोगों के उस वनभूमि पर वन अधिकार कानून-2006 के तहत दावे हैं, उनसे अनुमति हासिल करें। लेकिन यदि केंद्र सरकार पहले अनुमति दे देती है तो उसके बाद राज्य सरकार के पास जबरदस्ती लोगों से अनुमति लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होगा।
वन अधिकार कानून-2006 के तहत आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति लिये कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था। अब नए नियम ने अनुमति लेने की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। ऐसे में नए वन कानून से आदिवासियों के वनाधिकार का हनन और जंगलों की अंधाधुंध कटाई होगी। कई आदिवासी क्षेत्रों में वन अधिकार कानून-2006 के तहत वन पट्टों के दावे पाने की लड़ाई अभी भी चल रही है। नए नियम के तहत किसी परियोजना को केंद्र सरकार बिना आदिवासियों से अनुमति लिये वन काटने की मंजूरी दे देगी तो अनुमान यह लगाया जा रहा है, कि ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के वन पट्टे और वन दावे दोनों ही खारिज हो जाएंगे।
आजादी के बाद से विकास के नाम पर लाई गई विभिन्न परियोजनाओं से आदिवासियों का विस्थापन होता आया है, और जंगल काटे गए हैं। 2005 के बाद खनिज संपदा से संपन्न इलाके में खनन के लिए देश भर में विभिन्न परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। यह खनन परियोजनाएं देश के आदिवासी बहुल इलाकों में केंद्रित हैं। ऐसे में खुली खुदाई वाले खनन के साथ आदिवासियों के विस्थापन में और तेजी आएगी।
(MN News से साभार)