कविता में देश का दुख

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— अरमान —

नपक्षधर और सुपरिचित कवि धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव के पहले काव्य संग्रह अच्छा भी हो सकता है का प्रकाशन हाल में हुआ है। संग्रह में कुल एक सौ सत्तावन कविताएं हैं। काव्य संग्रह के शीर्षक से ही कवि की मनःस्थिति का पता चलता है। कवि के लिए कविता साध्य नहीं साधन है, अच्छे समाज के निर्माण का, अन्याय के विरोध का, सभी धर्मों के मूल में स्थित प्रेम की अभिव्यक्ति का। कवि का काव्य हेतु के लिए प्रमुख अभिप्राय ‘परहित’ है। उनके लिए कविता जीने की कोशिश का नाम है, इस बिंदु पर कवि को कोई गलतफहमी भी नहीं है। वे लिखते हैं –
“पी सुकरात ज़हर का प्याला,
थके जागकर फैज़, निराला,
पता है तू ना जागने वाला,
फिर भी लगा रहा हूँ चक्कर।
हे ग़रीब!तूँ पारस पत्थर। ”

धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव की कविताएँ आजाद हिन्दुतान की लोकतांत्रिक यात्रा की समीक्षा करती नजर आती हैं। इस यात्रा में आए तमाम पड़ावों, बाधाओं को लेकर व्यवस्था की आँख में आँख डालकर प्रश्न पूछती हैं।

संग्रह की पहली कविता है ‘अच्छा भी हो सकता है’। यह कविता कवि की मनोवृत्ति को दर्शाती है। वे विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी आशा की किरण देखते हैं। भारत की सभ्यता बहुत पुरानी है, सदियों से हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई साथ-साथ रहते आए हैं। लेकिन आज कुछ ताकतें समाज में नफ़रत फैलाने में जुटी हैं। कवि इस संदर्भ में आह्वान करता है –

“हाथ मिला कोशिश कर भाई, ऐसा भी हो सकता है।’
अपना आंगन मंदिर मस्जिद, गिरजा भी हो सकता है।
सच कहता हूँ नफ़रत की यह, आग भरोसेमंद नहीं,
कल इसका आहार तुम्हारा, बच्चा भी हो सकता है।”

कवि की भाषा बेहद सहज और सरल है। यह वही भाषा है जिसमें आम आदमी संवाद करता है। वे अपने नागरिक धर्म का पालन करते हुए कहते हैं- ”बहुत बुरा है लोकतंत्र पर, इतनी अच्छाई मानो, इस रस्ते पर चलकर प्यादा, घोड़ा भी हो सकता है।” इस पंक्ति से जाहिर है कि व्यापक लोकतांत्रिक समाज के प्रति उनकी गहरी आस्था है। वे किसी भी कीमत पर लोकतंत्र को खोना नहीं चाहते हैं। लोकतंत्र ही वह बुनियादी व्यवस्था है, जिसके मूल्यों से नागरिक को ‘नागरिक’ होने का बोध पैदा होता है। और लोकतंत्र में ‘नागरिक’ के पास ही सर्वोच्च सत्ता होती है।

संग्रह की दूसरी महत्त्वपूर्ण कविताओं में से एक है ‘फिर से मीठा फल आएगा’। कवि क्रांति के सुंदर सपने देखता है उसे इस बात का यकीन है कि एक न एक दिन क्रांति होगी, व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव होगा। आज जो बाग़ उजड़ गए हैं, उन्हीं में मीठे फल आएंगे। दरअसल इंकलाब की यह आशा मानव जिजीविषा का प्रतीक है।

”आज नहीं आया है लेकिन, कर यकीन वह कल आएगा।
इसी बाग में, इसी डाल पर, फिर से मीठा फल आएगा।
नहीं बराबर होगी लेकिन, इन्कलाब आया तो खुद ही,
आसमान कुछ नीचे होगा, कुछ ऊपर भूतल आएगा।”

कवि का मन लोक में रचा-बसा है। उसे गाँव समाज, खेत-खलिहान आकर्षित करते हैं। मिट्टी की गंध उसके अंदर ऐसे बसी है कि –

“चना चबेना दूध आब की जय लिखता हूँ।
खेतों में पल रहे ख्याब की जय लिखता हूँ।
घृणा नहीं है मिल की चीनी से भी लेकिन,
शक्कर, भेली और राब की जय लिखता हूँ।”

खेती-किसानी मानव सभ्यता की मौलिक जरूरत है, भारत सहित दुनिया की आर्थिक-राजनीति का ताना-बाना ऐसे बुना गया है कि मानव सभ्यता की प्राथमिक जरूरत बेहद संकट में पड़ गई है। जनसंख्या का जो हिस्सा इस नेक काम में लगा हुआ है, उसके सामने जीवन चलाने का संकट गहरा हो गया है। परिस्थितियां ऐसी बना दी गई हैं कि किसानों को आत्महत्या ही विकल्प नजर आता है। ‘चाह यही है’ कविता में धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव भारतीय किसानों के प्रतीक होरी की ख़ुशहाली की कामना करते हैं, उन्हें इस बात का यकीन है कि किसानों के जीवन में ख़ुशहाली आवश्यक होगी, वे कहते हैं –

“होरी के घर मस्ती आए चाह यही है।
निर्भय हो किसान मुस्काये चाह यही है।”

कवि की प्राथमिक चिन्ताओं में एक घृणामुक्त समाज का नव निर्माण है। वे उन बांटने वाली तमाम शक्तियों को डुबोने व सभी प्रकार के नफरत के पौधों के मुरझाने की बात करते हैं –

“गंगा जमुना की धारा को जिसने बांटा,
गंगा जमुना उसे डुबाये चाह यही है।
अपने आंगन का या उसके आंगन का,
नफरत का पौधा मुरझाए चाह यही है।”

प्रायः यह देखा जा रहा है कि व्यवस्था की नैतिकता, उसकी शर्म, लोक लाज सब समाप्त हो चुका है। कभी ऐसी स्थिति के लिए रहीम ने कहा था ‘रहिमन पानी रखिये, बिनु पानी सब सून। पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून’। धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव की विशिष्टता यह है कि वे इस कड़वी सच्चाई को जानते समझते हैं लेकिन कुछ घाटों पर आँखों का पानी बचे होने की बात करते हैं। वहीं इन विशिष्ट वर्गों को वह सावधान करते हैं, जिन्होंने आम आदमी के हिस्से और हक को दबा रखा है –

“यह कड़वी सच्चाई है कि नदी का पानी घटा हुआ है।
लेकिन अब भी इन घाटों पर, आँख का पानी बचा हुआ है।
चैन किसी को नहीं मिलेगा, सभी की नींद हराम रहेगी,
जब तक आम जनों का हिस्सा, खासमख़ास में बंटा हुआ है”

कवि की कविताओं का दायरा व्यापक व विस्तृत है। वे देश दुनिया की घटनाओं को संज्ञान में लेते हैं। ग्लोबलाइजेशन के बाद आवारा पूंजी ने पूरी दुनिया को अपना चरागाह बना लिया है। इसका व्यापक प्रभाव छोटे-बड़े चुनावों में पूंजी के भारी व्यय में दिखने लगा है। आम आदमी की रोजी-रोटी व जन-जीवन इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ‘हम भी लंका जैसे होंगे’ कविता में वे व्यवस्था के कर्णधारों को खबरदार करना चाहते हैं-

“जब आवारा पूंजी के बल, पंचायत में लुच्चे होंगे।
नकलबाज़ उपदेशक होंगे, बंद जेल में अच्छे होंगे।
नाक तलक कर्जा का बोझा, खर्च राजसी देख लग रहा,
घर के लोग नहीं चेते तो हम भी लंका जैसे होंगे।”

इसी कविता की कुछ पंक्तियां लोकतंत्र में बुलडोजर की संस्कृति पर सवाल उठाती हैं।

“मद में डूबे बुलडोजर से, हर रहजन को कुचलो लेकिन,
सत्य कुचलने की कोशिश में, बुलडोजर के चिथड़े होंगे।”

सभी बच्चों को समान शिक्षा मिले, यह आजादी के आंदोलन का सपना था। समान शिक्षा का सवाल, आजादी के बाद, बड़े सवालों में रहा है। अरसे से जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की मांग होती रही है। लेकिन शिक्षा बजट की स्थिति यह है कि कई राज्यों की सरकारें, सरकारी विद्यालयों को बंद कर रही हैं या निजी क्षेत्र को उन्हें सौप रही हैं। ऐसी स्थिति में ‘समान शिक्षा’ का सवाल गंभीर सवाल बन गया है।आज शिक्षा में, बहुस्तरीय व्यवस्था कायम हो चुकी है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है। कवि की ये पंक्तियां इस पूरी स्थिति को स्पष्ट कर देती हैं-

“शिक्षा की चाभी पूँजी के, हाथों में गैर कैद रही तो,
बहुतायत लोगों के घर में, संदूकों में बंद बस्ते होंगे।
कमजोरों की पीर अनसुनी, करने वाले मित्रो सुन लो,
आज जहाँ कमजोर खड़े हैं, कल को तेरे बच्चे भी होंगे।”

भारत का समाज जाति आधारित रहा है। जातियों में तुलनात्मक रूप से सवर्ण अमीर और अवर्ण गरीब रहे हैं। युगीन साहित्य में इस बात की प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। प्रेमचंद की कई कहानियां और उपन्यास इस बात के गवाह हैं। लेकिन स्थितियों में बदलाव आया है, समाज में जो वर्ग व जातियां कल ठीक-ठाक जीवन जी लेती थीं अब उनके घरों में गरीबी और अभाव ने दस्तक दी है। कवि अपनी ‘दो छूट गेहूं धान में भी’ कविता में इसे रेखांकित करते हुए कहते हैं –

भूख, बदहाली, गरीबी, बढ़ी है बभनान में भी।
बेबसी दिखने लगी है, आजकल ठाकुरान में भी ।
कल तलक हालात जैसे,थे दलित की बस्तियों में,
दिख रहे हैं हालात वैसे, गांव के कयथान में भी।

व्यवस्था के द्वारा खेती-किसानी के साथ अरसे से सौतेला व्यवहार किया गया है। उद्योग और कृषि को देखने के नजरिये अलग-अलग हैं। जहाँ एक तरफ लाखों करोड़ों रुपये की रियायत और छूट उद्योगों की दी जाती है, वहीं इस छूट से कृषि जगत वंचित रह जाता है। उद्योगों में उत्पादित समानों की क़ीमत मुनाफा जोड़कर उद्योगपति तय करता है। वहीं किसानों की फसलों की कीमत सरकार तय करती है जिसमें मुनाफा तो दूर की बात है उनकी लागत भी नहीं निकल पाती है। कवि का सहज आग्रह है –

“सर” मिलों के माल में जो, छूट है मिल मालिकों को,
चाहिए उत्थान तो दो, छूट गेहूं धान में भी।
मैं “अदम” की याद में बस, गुज़ारिश कर रहा हूँ,
लाभ थोड़ा बांट दीजिए मामूली इंसान में भी।

कवि धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव की पृष्ठभूमि, पत्रकारिता की रही है। वे मीडिया की बारीकियों और लोकतंत्र में उसकी उपयोगिता को अच्छी तरह से समझते हैं। वर्तमान में मीडिया जिस प्रकार पूंजी व सत्ता का दुमछल्ला हो गया है, ऐसे में लोकतंत्र पर संकट और गहरा गया है। वे मीडिया को, उसके स्वधर्म की याद दिलाना चाहते हैं –

“लोकतंत्र सिसकेगा हर दिन धन पशुओं के दरवाजे पर,
जहाँ कैमरा अंधा होगा चुप साधे अखबार रहेगा”

मुख्यधारा के मीडिया घराने अपनी स्वायत्तता पूरी तरह गिरवी रख चुके हैं, सत्ता व व्यवस्था से प्रश्न पूछने के बजाय सरकारी झूठ के प्रचारक हो गए हैं। देश-समाज के वास्तविक सामाजिक-आर्थिक हालात से अवगत कराने के बजाय सत्ता के झूठ का प्रचार कर रहे हैं। वे अपील करते हैं –

“चंद सिक्कों के लिए महल की खुशामद में,
आम के पौधों को बबूल मत लिखो भाई।
जहाँ किताबों में नफ़रत पढ़ाई जाती हो,
उसे कुछ भी लिखो स्कूल मत लिखो भाई”

लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वतंत्र व स्वायत संस्थाओं से चलती है।हाल के वर्षों में संस्थाओं की आजादी व स्वायतता कमजोर हुई है। ऐसा देखा गया है कि तमाम एजेंसियां सरकारों की चंगुल में फंस गई हैं। सरकारें अपनी उंगली पर उन संस्थाओं को नचा रहीं हैं, जिन पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की जिम्मेदारी है। ऐसे में लोकतंत्र कैसे बचेगा यह अहम सवाल है। एक कविता, ‘सब राजा के घर में है’ में कवि कहते हैं –

“हीरा,मोती, वेद, पढ़ाई,सब राजा के घर में है।
मुंसिफ, मुजरिम और गवाही सब राजा के घर में है।
जो जिससे मानेगा उसको ,वही दवा दी जाएगी,
चौकस थाना और सिपाही सब राजा के घर में है।
दवा, हवा का इश्तहार ले, प्रश्न एक दिन पूछे तो,
नोटिस, कुर्की, रपट, पिटाई, सब राजा के घर में है।”

संग्रह की कवियाएँ सामयिक मुद्दों से गहरा सरोकार रखती हैं।1991 में, ‘नई अर्थ नीति’ लागू हुई,उसके बाद बनी,तमाम सरकारों ने ग्लोबीकरण की उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया है।सरकारें कानून बनाकर जनता की खून-पसीने की बनी सार्वजनिक संपत्ति को देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों में कौड़ी के मोल बेच रही हैं। ऐसे में कवि का सवाल वाजिब है –
“मुर्दों को जिंदा करने का, पहले आकर्षण बेचेगा।
मजमा जमा लिया हँसकर, दांतों का मंजन बेचेगा।
लोकलाज तज बाजारों में, वे अपने लोगों की खातिर,
बूढ़ों का सपना बेचेगा, बच्चों का भोजन बेचेगा।
घर में भूंजी भाग नहीं है, राजाओं के शौक सभी हैं,
इनको पूरा करने को वह, सब बहुमूल्य रतन बेचेगा।
बक्से में रखने से अच्छा,कर उपयोग बढ़े हम आगे,
यही तर्क देकर हम सबको, माँ का कंगन बेचेगा।
अभी तो केवल शुरू हुआ है, आगे फिर अवसर पाया तो,
बता कबाड़ा एक-एक कर, पुरखों का बरतन बेचेगा।”

धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव की कविताएं आज़ादी के सपने, आज़ाद हिन्दुतान में उन सपनों के बिखरने तथा उससे उपजे दुख और निराशा को सामने लाती हैं। वहीं आशा की किरण ‘संघर्ष’ और उसके सपने को नई ज्योति भी देती हैं। संग्रह की कविताओं में अन्य भी बहुत सारी महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं। इनमें हैं- लड़ने को तैयार रहें, दीवाने आने वाले हैं, राजा सड़कों पर बैठे हैं, पहले कभी नहीं देखा था, लोकतंत्र मरने मत देना, अपना हिस्सा पा सकते हैं, यह देश पुनः मुस्काएगा, अपना देश बचाने को, सबके घर तक जाएगी, केवल तेरी चर्चा होगी, चौराहे पर फांसी दो जैसी महत्त्वपूर्ण कविताएं हैं। अन्त में कवि का संकल्प है –
“पढ़ना चाहूंगा उदास सब घाटों की पीड़ा,
रोती लहरों की की पीड़ा को गढ़ना चाहूंगा।
जो नब्बे फीसदी की पीड़ा जो समझें,
खुली सड़क पर उनको सजदा करना चाहूंगा ”

किताब – अच्छा भी हो सकता है
कवि – धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव
प्रकाशन – हाजरा प्रकाशन
नया हैदराबाद, लखनऊ- 226007
[email protected]
मूल्य 200 रुपए

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