— रमाशंकर सिंह —
और अपने को ज़्यादा तीसमार खॉं न समझें, रहे होंगे आप कभी बड़े पहलवान, धावक या तीरंदाज़ श! उम्र अच्छे अच्छों को ठिकाने लगा देती है, सही रफ़्तार पर लाकर खड़ा कर देती है।
बूढ़े होना एक अनिवार्य सुंदर प्रक्रिया है। गरिमामय पके बाल, झड़ चुकी केशराशि, चेहरे पर झुर्रियों की लटकन, धीमी गति, अनुभव-भरा जीवन, बस और इसके आगे खानपान पर मर्यादाएं। बाक़ी सब जस का तस बनाये रखें। प्रेम को जीवन में ज़रूर बढ़ाइए, प्रेम को सिर्फ़ यौन क्रियाओं की नज़र से देखने की गंदगी दिमाग़ से हटा दीजिए यदि पहले से हटी नहीं है तो। सुबह शाम हल्का व्यायाम, बाहर घूमना जारी रखिए। देशाटन और विदेशाटन भी। अपनी विल में लिख दीजिए कि जहॉं देहांत हो उसी स्थान पर अंत्येष्टि कर दी जाए, पृथ्वी मैया की गोद सब जगह अच्छी है। जीवन में अनिवार्य अपरिहार्य नियमबद्ध मौत से ख़ौफ़ नहीं डर नहीं सुखद मुलाक़ात की तैयारी रहनी चाहिए। पल आ गया तो बॉय बॉय !
सात दिन पहले मैं (सत्तर का) मोबाइल देखते देखते, बग़ल में किसी सज्जन से बात करते करते और दिमाग़ में हमेशा की तरह कोई तीसरी चीज़ सोचते सोचते काले पत्थर की तीन सीढ़ियों को कम रोशनी की जगह पर एक कदम में ही नाप गया और फिर जो होना था वही हुआ। एक घंटे बाद लगा कि कुछ ख़ास नहीं हुआ, मोच भी नहीं आयी, मामूली दर्द ही है। सुबह रोज़ की तरह व्यायाम तेज कदम चाल आदि को नियमित करने लगा और अब चौथे दिन सूजन आयी!
है कुछ ख़ास नहीं एकाध दिन में ठीक हो जाएगा पर….नीचे का लिखा पढ़ जाइए और वृद्धोचित सजग जीवन सतर्क शैली पर आ जाइए। लंबा और ज़्यादा सानंद जीवन ज़रूरी है, खुद के बनाये एक्सीडेंट में मरने में कोई रस भी नहीं है और मरने के बाद खिल्ली भी खूब उड़ेगी, क्या फ़ायदा तब बग़लें झांकते फिरोगे! ! !
इसका अर्थ यह नहीं कि बिस्तर पर पड़े पड़े सारा दिन टीवी पर मोदीजी की पोशाकों के दर्शन करते रहिए। मोहल्ले में निकलिए, मिलिए जुलिए, एकसाथ कहीं पार्क में बैठकर किसी सामुदायिक सार्थक प्रोजेक्ट पर सब मिलकर काम करें – या लिखना पढ़ना पढ़ाना। अभी कई युवा लड़के लड़कियॉं लंपीग्रस्त गायों को बचाने में लगे हैं होमियोपैथिक दवाओं से, उसमें शामिल होइए। अच्छे संगीत साहित्य को साथी बनाइए। ख़ुश रहने के सार्थक सुंदर जीवन को जीने के उपक्रम सोचिए। हिंदू मुसलमान का ज़हर बाँटने का नहीं।
मात्र सरकारों या राजनीतिक दलों के भरोसे ही इस देश का क ख भी नहीं सुधरेगा। कुछ रचनात्मक करते रहने की गांधीसंस्कृति पर लौट जाइए। न नरक है न स्वर्ग है, मरने के बाद न कोई आत्मा नाम की चीज कहीं जाती है। लाश जली दफ़्न हुई, खेल ख़त्म हुआ और यही प्रक्रिया बहुत सुंदर है।
दीवाली पर भरपेट मिठाई खाने से परहेज़ करें और बाज़ार का ज़हर तो बिल्कुल भी नहीं। या तो समय लगाकर खुद बनाइए और सबको खिलाइए या आभासी मीठी दुनिया में रहिए।
दिल्लीवालों से बड़ी हमदर्दी है – खाने में भी ज़हर और हवा में भी ज़हर। दीवाली के आगे पीछे कई दिनों तक अस्पताल पहुँचने की हद तक हज़ारों बीमार हो जाते हैं लेकिन अंदर का मूढ़ हिंदू औरंगजेब की लायी आतिशबाजी करने से बाज नहीं आता है।