सुभाष बोस की विरासत सावरकर से एकदम उलट है

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— सुभाषिनी अली —

क शरारती चिड़िया के बारे में बचपन में सुनी एक कहानी याद आती है, एक शरारती और फूहड़ चिड़िया, जो सुंदर सुंदर चूजे जनना चाहती थी। वह शरारती चिड़िया किसी सुंदर चिड़िया के घोंसले में, जिसने अभी-अभी अंडे दिए हों, चोरी-छिपे घुस जाती और कोई अंडा चुराकर अपने घोंसले में ले आती और उसे सेने लगती, तब तक सेती रहती जब तक कि उससे एक नन्हा सा चूजा बाहर नहीं आ जाता।

हाल में मुझे यह कहानी याद आई जब मैंने प्रधानमंत्री द्वारा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा का अनावरण के फोटो देखे। यह साफतौर पर न केवल संघ परिवार में कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं होने के अभाव बल्कि विनायक दामोदर सावरकर को जनता की निगाह में एक महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित करने में कोई खास सफलता न मिल पाने की भी क्षतिपूर्ति का प्रयास था। और इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी गई।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए महान स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ सावरकर का भी नाम लिया था; कर्नाटक में उनकी पार्टी और संघ परिवार के लोगों ने सुभाष और सावरकर, दोनों के फोटो के साथ बैनर लगाये थे। लेकिन इस तथ्य पर परदा डालना मुश्किल बना रहा है कि एक समय के उग्रपंथी, ब्रिटिश हुकूमत विरोधी क्रांतिकारी सावरकर जो आजीवन कारावास की सजा पाकर अंडमान की सेलुलर जेल में बंद थे, उन्होंने दयायाचना करते हुए अंग्रेज सरकार को प्रार्थनापत्र भेजे थे, जिसमें यह वादा किया गया था कि अंग्रेज सरकार उन्हें माफ कर देती है तो वह हमेशा उसके वफादार बने रहेंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि अपने इस वादे को पूरा करने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी और उलटा चोर कोतवाल को डांटे कहावत को चरितार्थ करते हुए न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन तथा उसमें शामिल लोगों की लानत मलामत की बल्कि हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का बैरी बनाने में अपनी सारी ताकत झोंक दी। उन्होंने ‘इशेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ नाम से एक किताब भी लिखी जिसमें यह सिद्धांत पेश किया कि मुसलमानों और ईसाइयों समेत उन सभी को समान नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाना चाहिए जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है। संघी घराने ने ‘हिंदुत्व’ को अपनी राजनीतिक विचारधारा के तौर पर शुरू में ही स्वीकार कर लिया था।

यह गौरतलब है कि सावरकर को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से खास चिढ़ थी। वह नेताजी को ‘जेहादी हिंदू’ कहते थे और हिंदू-मुसलिम एकता के प्रतीकों के प्रति नेताजी के उत्साह की भर्त्सना करते थे। मसलन, आजाद हिन्द फौज का झंडा तीन रंग का था, जिसके बीच में टीपू सुलतान का झपट्टा मारता हुआ शेर बना होता था। आजाद हिंद फौज का नारा था- इत्तेहाद, इत्तेमाद, कुर्बानी। आजाद हिंद फौज के कई आला अफसर मुसलमान थे। नेताजी जब पहली बार बर्मा (म्यांमार) गए तो उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र के मजार पर चादर चढ़ायी थी। हिन्दू-मुसलिम एकता के लिए नेताजी की दृढ़ता के और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं।

संघी खेमा नितांत बेमेल चीजों में मेल बिठाने में जुटा हुआ है। सावरकर को मानते हुए, सुभाष बोस की विरासत की कुछ चीजों को हथिया लेना इसी बेचैन कोशिश का हिस्सा है।

प्रधानमंत्री द्वारा नेताजी की प्रतिमा के अनावरण के पीछे एक बड़ी तैयारी दीखती है। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि सारा फोकस प्रधानमंत्री पर और नेताजी की प्रतिमा पर था। इसमें किसी और के लिए गुंजाइश नहीं थी, न तो राष्ट्रपति के लिए, न किसी मंत्री के लिए और न ही नेताजी की पुत्री अनिता फाफ या उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य के लिए। वहां सिर्फ प्रधानमंत्री और प्रतिमा दृश्यमान थे, सुनहरी रोशनी में नहाये हुए, निस्तब्ध खामोशी के बीच।

नेताजी की प्रतिमा को देखने रोजाना भीड़ उमड़ती है। शाम के वक्त, भीड़ के कारण, प्रतिमा की एक झलक पाना मुश्किल हो जाता है। नेताजी की सुपुत्री अनिता से हाल में एक इंटरव्यू में पूछा गया कि क्या उन्हें यह लगता है कि प्रधानमंत्री, नेताजी सुभाष बोस को विस्मृति के धुंधलके से बाहर ला रहे हैं और नेताजी को जो सम्मान मिलना चाहिए था आखिरकार अब जाकर मिल रहा है। वह पल भर सोच में डूब गयीं फिर कहा, “मैं सोचती हूं कि यह सही नहीं है। सुभाष हमेशा अपने देश के लोगों के दिलों पर राज करते रहे हैं। वास्तव में, यह बात मुझे चकित करती रही है कि देश के कोने-कोने में उनके प्रति कितना प्रेम और सम्मान का भाव है।”

यह सच है और इसकी पुष्टि बहुत से लोग करेंगे। सुभाष के साहस, औपनिवेशिक गुलामी से अपने देश के लोगों की आजादी के ध्येय के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता और उनकी असामयिक मृत्यु ने उनको सारे भारतीयों की निगाह में एक महानायक बना दिया। इनमें से बहुत-से लोगों में नेताजी के बारे में और जानने की उत्सुकता पैदा हुई है। हाल में उनकी आत्मकथा पुनर्प्रकाशित हुई है और इस नए संस्करण को जोरदार प्रतिसाद मिला है। अनेक भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में पहले के मुकाबले कहीं अधिक लेख लिखे जा रहे हैं। लोग उनके दिए भाषण सुन रहे हैं और उनसे जुड़े व्यक्तियों तथा आजाद हिंद फौज के बहादुर नायकों व वीरांगनाओं के बारे में और नेताजी के विश्वासों, उनके व्यक्तित्व और भारत की आजादी में उनके योगदान के बारे में जानने को उत्सुक हैं।

नेताजी का सेकुलरिज्म

यह एक सवाल बहुत-से लोग पूछते हैं कि ‘जय हिन्द’ का नारा किसने दिया? वे यह जानकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि यह नारा आबिद हसन ने गढ़ा था, जो कोलकाता की नजरबंदी से नेताजी के बड़े नाटकीय ढंग से भागकर जर्मनी पहुंचने पर उनके सचिव बने थे। पनडुब्बी के जरिए जर्मनी से जापान की लंबी और खतरों से भरी यात्रा में वह नेताजी के साथ रहे। यह जानकर और भी आश्चर्य हो सकता है कि एशिया पहुंचने पर सुभाष बोस ने आबिद हसन से इसरार किया कि उनके साथ रहें, उसी मकान में, कहीं जाना हो तो वह भी साथ चलें। लिहाजा आबिद सिंगापुर, बैंकाक, टोकियो और बर्मा (म्यांमार) में नेताजी के साथ ही रहे। जबकि यह कल्पना करना भी कठिन है कि हमारे प्रधानमंत्री ऐसा कुछ कर सकते हैं। और आबिद हसन के मुताबिक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सेकुलरिज्म को लेकर जो समझ थी, उसे हमारे प्रधानमंत्री स्वीकार करेंगे इसकी कल्पना तो की ही नहीं जा सकती।

हसन ने नेताजी सुभाष बोस के भतीजे शिशिर बोस की पत्नी कृष्णा बोस को एक लंबा इंटरव्यू दिया था। उस इंटरव्यू की एक विस्तृत रिपोर्ट अनूदित होकर कृष्णा बोस के लेखों की पुस्तक ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस : लाइफ, पालिटिक्स एंड स्ट्रगल्स’ में प्रकाशित हुई है।

हसन ने कृष्णा बोस को बताया था कि जर्मनी में नेताजी ने आजाद हिन्द फौज गठित करने के लिए भारतीय युद्धबंदियों की भर्ती की थी और उनमें से कई हसन के साथ ही विशेष ट्रेनिंग के लिए भेजे गए थे। कृष्णा बोस ने जो वृत्तांत दर्ज किया है वह बताता है कि आजाद हिन्द फौज के कैंपों में सैनिकों के लिए अलग से उपासना स्थल तय होते थे। सैनिक वहां अकेले या सामूहिक रूप से प्रार्थना कर सकते थे – अपनी पसंद के मुताबिक स्थान पर, जहां एक छोटा सा मंदिर भी होता था, मस्जिद भी, चर्च और गुरुद्वारा भी।

जब एकता की भावना सुदृढ़ हो गयी (निस्संदेह इसके पीछे नेताजी का प्रोत्साहन था) तब कुछ सैनिक आबिद हसन के पास एक प्रस्ताव लेकर गए। उन्हें लगा कि सैनिक अलग अलग ग्रुप के बजाय एकसाथ प्रार्थना कर सकते हैं। हसन इस पेशकश से खुश हुए। फिर सैनिकों ने साथ बैठकर ईश वंदना के लिए एक प्रार्थना रची। उन्होंने तय किया कि अगली बार जब नेताजी कैंप का निरीक्षण करने आएंगे तो वे एक स्वर से यह प्रार्थना नेताजी के सम्मुख गाएंगे। और नेताजी के दौरे के अंत में वे उनके सामने खड़े हो गए और बड़े गर्वीले अंदाज में एक स्वर से अपनी साझी प्रार्थना गायी। नेताजी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। कुछ देर बाद नेताजी ने आबिद हसन को अकेले में बुलवाया और पूछा, “यह क्या बकवास तुमने शुरू किया है?”

नेताजी ने आबिद हसन से जोर देकर कहा कि हिंदुस्तानियों को एक करने का यह तरीका ठीक नहीं है और इसे छोड़ देना चाहिए। नेताजी ने आबिद से कहा कि धार्मिक आस्था किसी का व्यक्तिगत मामला है और किसी भी राजनीतिक आंदोलन में इसकी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। भारत के राष्ट्रवाद को धार्मिक पहचानों और भावनाओं से परे होना चाहिए। इसे अंतरधार्मिक एकता या धार्मिक समन्वयवाद की शक्ल नहीं देनी चाहिए। नेताजी ने आबिद से कहा, “अपने लोगों को एक करने के लिए धर्म का इस्तेमाल करके तुम भविष्य में किसी और के लिए धार्मिक भावनाओं के सहारे वैमनस्य और फूट डालने का रास्ता साफ कर रहे हो।”

नेताजी के विश्लेषण का औचित्य आबिद की समझ में आ गया और वह सोचने लगे कि सभी हिंदुस्तानियों के लिए वह कौन सा अभिवादन हो जिसमें कोई धार्मिक रंगत न हो और इस कवायद का नतीजा ‘जय हिंद’ के रूप में आया, जो आज तक एक लोकप्रिय अभिवादन बना हुआ है। इसके पंथ निरपेक्ष चरित्र के कारण, पुलिस और सेना के जवान अपने अफसरों को सैल्यूट करते वक्त यही अभिवादन करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे दशकों पहले आजाद हिन्द फौज के फौजी अपने अफसरों को सैल्यूट करते वक्त करते थे।

नेताजी का सेकुलरिज्म गांधीजी से काफी अलग था; यह सर्व धर्म समभाव से भी काफी भिन्न था, जो भारत में सेकुलरिज्म को व्याख्यायित करने का तरीका है। इस व्याख्या के कारण ही उन्होंने सख्त एतराज जताया था। हमारे प्रधानमंत्री और संघ परिवार जिस बहुसंख्यकवाद को लेकर चल रहे हैं उसे देखकर तो नेताजी माथा पीट लेते।

बचपन में शरारती और फूहड़ चिड़िया की कहानी सुनी थी, जो सुंदर चिड़ियों के घोंसलों से अंडे चुरा लाती और उन्हें तब तक सेती रहती जब तक कि चूजे नहीं निकल आते, लेकिन इस कहानी का अंत यह है कि जैसे ही चूजों के पर निकल आएंगे वे जबरदस्ती मां बन बैठी इस चिड़िया के चंगुल से बाहर निकल उड़ जाएंगे और अपने वास्तविक परिवार से जुड़ जा सकते हैं।

यह एकदम असंभव है कि सुभाष बोस की विरासत को वे ताकतें हथिया लें जो हर मामले में उनसे इत्तिफाक रखती हैं। वह हमेशा अपने देश के स्वतंत्रता-प्रेमी स्त्री-पुरुषों के दिलोदिमाग में बसे रहेंगे, न कि उन तत्त्वों के हो जाएंगे जो उनके यश और सम्मान से लाभान्वित होना चाहते हैं मगर उनके किसी भी उसूल को नहीं मानते।

(द वायर से साभार)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन 

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