श्रवण गर्ग की तीन कविताएं

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पेंटिंग : अनिल शर्मा

1. कब निकलेगा देश यात्रा पर अपनी?

इससे पहले कि थक जाए वह यात्री
निकलना होगा देश को यात्रा पर !
सौंप दिए हैं पैर अपने
यात्री ने सब के बदले
नहीं पड़ेगा चलना ज्यादा सबको
थामने के लिए सैलाब आंसुओं के
बह रहे हैं जो सालों से चुपचाप
सड़कों के दोनों बाजुओं पर !

सदियों में होती है ऐसी एक यात्रा
आदि शंकराचार्य की माटी से
बद्री-केदार के मंगल स्वरों की ओर !
दिलाना पड़ता है याद जिसमें लोगों को
उनका निर्मल अतीत, निर्मम यातनाएँ
हो जाता है दिल उनका भी हल्का
रो लेने से थोड़ा सामने सबके
फूटने लगती हैं तब कोपलें भी
जमीनों से, करार दी गई हैं जो बंजर
बही-खातों में सरकारों के !

नहीं देखना पड़ेगा दूर तक भी ज्यादा
गिन रहा है यात्री सबके लिए
सूई के छेद से पीड़ाओं के पहाड़
तैरने लगेंगी सामने आँखों के—
वे अतृप्त आत्माएँ तमाम
चली गई थीं जो यात्राओं पर अनंत की
गूंजने लगेगा बुझ चुके कानों में
उनका आर्तनाद
सुनाई देंगे बुदबुदाए दुख भी साफ !

बदल सकता है अगर
एक यात्री का साहस इतना कुछ !
बदली जा सकती है सूरत दुनिया की
निकल जाए सड़कों पर अगर
मुल्क एक सौ तीस करोड़ आत्माओं का !
गुजर रहा है ‘अमृत काल’ भी इस समय
प्रसव वेदना से हजारों यात्राओं की !

2. पिता तुम तो बार-बार पहाड़

नहीं बिखरता टूटकर
समूचा ही पहाड़ एकमुश्त !
दरकती हैं चट्टानें सबसे पहले
अंदर ही अंदर।
खूब गहरे भीतर कहीं
आत्मा के भी गर्भगृह से
रिसने लगती हैं पारदर्शी औ
चाँदी जैसी बूँदें पानी की।
या फिर लगती हैं झाँकने
भीतर के अनंत से कहीं
प्रार्थना में उठे हाथों की तरह
बारीक-बारीक और
हरी-हरी कोमल पत्तियाँ
किसी अव्यक्त को व्यक्त
करने के लिए बेचैन।
चल ही नहीं पाता पता—
खुश हो रहे हैं या फिर
रो रहे हैं पहाड़।
चलता रहता है सिलसिला ऐसे ही
सालों-साल, उम्र भर पहाड़।
और फिर एक दिन !
लगती हैं खिसकने
चट्टानें जो गई थीं दरक,
उग आई थीं पाटों के बीच जिनके
पत्तियाँ हरी-हरी, या फिर
लगी थीं फूटने बूँदें
निर्मल जल की कहीं अंदर से।
गिरने लगती हैं चट्टानें अचानक
कई बार चुपचाप और कई बार
तेज आवाज के साथ
लगता है ऐसा लगा रहा हो आवाजें
कोई बहुत जोर-जोर से।
और फिर जाता है बिखर
समूचा पहाड़ एक दिन
बदल जाता है वह
एक तपते हुए मैदान में।
रह जाते हैं करते हुए प्रतीक्षा हम
बूँदों के झरनों में तब्दील होने की,
पत्तियों के टहनियों में बदलने की।

‘हम लोग’ रुके रहेंगे यहीं !

ठीक से ही समझाया गया था हमें—
रुक जाएँ, जहाँ भी हैं और उसी क्षण।
जाना नहीं है – कहीं भी आगे या पीछे।
थम गए हैं अब वहीं पूरी तरह से
रुकते हुए आए हैं जहाँ
थके हुए पैर हमारे, सदियों से।
और है पैरों के ठीक नीचे वैसी ही
नुकीली और झुलसती हुई जमीन
जलाती आई है जो हमेशा से
तलवों को हमारे कायम हैं जो फिर भी
कटे-फटे जगह-जगहों से
हमारे टूटे जिस्मों की खूँटियों
पर लटके मैले कपड़ों की तरह।

हम देख रहे हैं खड़े-खड़े आसपास—
रोशनियों से खिलखिलाते
कुछ छोटे, कुछ बड़े आशियाने।
और निकालकर चोकों से उनके
तैरती हवा में सोंधी-सोंधी कोई गंध
लिये हुए साथ चिमनियों से फूटता
हुआ काला-काला धुआँ।

हाँ, झांकने भी लगे हैं अब लोग कुछ
बालकनियों और छतों से हमारी ओर
भरे हुए किसी अज्ञात भय से शायद।
क्यों खड़े हुए हैं हम वहाँ ?
पूछ रहे हैं होंगे वे अपने आप से !
क्योंकर नहीं खिसक रहे हैं हम—
आगे या पीछे, किसी भी तरफ?

घूरने भी लगे हैं वे अब हमें
शक भरी निगाहों से।
डरने लगे हैं हम भी अब कुछ-कुछ।
लगता है लगने तभी भीतर से कहीं –
धँसे जा रहे हैं पैर हमारे, जमीन में
जो निश्चित ही नहीं है हमारी कहीं से भी।

पर यह क्या ! लौटने लगी हैं वापस
सारी की सारी निगाहें नीची होकर
अपने-अपने बंद कमरों की ओर,
जैसे कि हुआ ही नहीं हो कुछ भी।
समझ गए हैं शायद वे भी सब कुछ –
नहीं होगी कोई जमीन या घर हमारे पास।

बुझने लगी हैं बत्तियाँ सारी की सारी
आशियानों की सारे, एक-एक करके।
पर रहना है हमें तो खड़े हुए यहीं
होने तक जारी फरमान अगला।
समझते हैं हम भी पूरी तरह से कि—
है संकट में समूचा मुल्क इस समय
और देना है साथ हमें हर हाल में अपने।

पेंटिंग : विजेन्द्र

3. बहती होगी कहीं तो वह नदी !

कहीं तो रहती होगी वह नदी !
बह रही होगी चुपचाप
छा जाते होंगे ओस भरे बादल
जिसकी कोमल त्वचाओं पर
आते होंगे पक्षी, लांघते हुए
देस, समुद्र और पहाड़ हजार
चुगने बूँदें उसकी मोतियों वाली !

कहीं तो बहती होगी वह नदी !
खोजी नहीं जा सकी है जो अभी
डूबी भी नहीं है जो पानी में !
पर लगता है डर यह भी बहुत
बच नहीं पाएगी अब वह
बहती हुई चुपचाप इसी तरह
कर रहा है तलाश उसकी
खारे पानी का समुद्र
भांजते हुए तलवारें अपनी
निगल जाने के लिए !

बचाए रखना होगा नदी को
जन्मी हैं सभ्यताएँ सारी
झूली हैं पालना
सुरम्य घाटियों में उसकी !
समुद्र तो ले जाता है
सभ्यताओं को परदेस
करता है आमंत्रित
लुटेरों को
करने के लिए राज, व्यापार
बनाने के लिए बंदी
ज़ुबानों, आत्माओं को !

रखना होगी नजर अब रात-दिन
नहीं कर पाए उपवास
एक भी बूँद नदी की
सूख जाए नहीं चिंता में वह
निगल लिये जाने के डर से !

बोलना ही पड़ेगा कभी तो
पक्ष में उसके
बह रहा है जो नदियों की तरह
नहीं रह सकते हैं चुपचाप सभी
किनारों पर खड़े
बड़े-बड़े पहाड़ों की तरह !


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