क्या हो व्यावसायिक और रोजगारपरक शिक्षा का माध्यम

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— सुरेश पंत —

अंग्रेजी से आई हुई एक कहावत हिंदी में लोकप्रिय है चाय की प्याली में तूफान। पिछले दिनों यह कहावत तब सार्थक लगी जब मध्यप्रदेश में एमबीबीएस पढ़ाई के माध्यम के रूप में हिंदी की कुछ पुस्तकों का विमोचन किया गया। संचार माध्यमों में इसके पक्ष-विपक्ष को लेकर अनेक जरूरी और गैरजरूरी बातों पर बहस शुरू हुई जो तुरंत ही, जैसा कि होता आया है, हिंदी बनाम अंग्रेजी में बदल गई। जबकि मुद्दा यह होना चाहिए था कि माध्यम अंग्रेजी ही रहे या भारतीय भाषाएं भी हों, जिनमें हिंदी भी एक है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 शिक्षा के अनेक क्षेत्रों में बदलाव लाने की कोशिश करती है और उनमें से एक शिक्षा का माध्यम है जिसमें विद्यालयों महाविद्यालयों में श, जहां तक संभव हो मातृभाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस नीति में कहा गया है कि सभी स्कूलों में कक्षा 5 तक की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा (घर बोली) होगी और उच्चतर संस्थानों में भी हिंदी को वरीयता दी जाएगी।

यह कोई अनोखी संस्तुति नहीं थी। शिक्षा क्षेत्र में कोठारी आयोग (1966) से लेकर आज तक जितने आयोग और समितियां बनी हैं, सब ने इस बात की संस्तुति की है, किंतु संस्तुतियां धरी रह जाती हैं। राजनीति आड़े आ जाती है और मामला जस का तस।

विश्व भर के प्रतिष्ठित भाषा विज्ञानी और मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि मातृभाषा से भिन्न माध्यम से पढ़ाई करने से रचनात्मक प्रतिभा नहीं आती है। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा न होने पर विद्यार्थी विषय को समझे बिना, उसे गहराई से परखे बिना केवल पाठ्य सामग्री को रटकर उत्तर दे देता है और डिग्री पा जाता है। परिणाम यह होता है कि ये लोग वांछित डिग्री तो प्राप्त कर लेते हैं किंतु विशेषज्ञता और कौशल नहीं प्राप्त कर पाते।

मेडिकल किताबों का अनुवाद चीनी, जापानी, रूसी में भी है और वहां स्वीकार्य है तो भारत में भारत की प्रमुख भाषा हिंदी में या अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा करने के लिए पहले एक पूरा ढांचा तैयार करना होगा जिसमें मुख्य समस्या पारिभाषिक शब्दावली की होगी। मुख्य पारिभाषिक शब्द मेडिकल साइंस के ही नहीं, अन्य तकनीकी विषयों पर भी अन्य भाषाओं में अपना लिये गए हैं क्योंकि ऐसा करने से उनकी ग्राह्यता और संप्रेषणीयता बनी रहती है। अच्छा होता भारतीय विद्यार्थियों के लिए कुछ तकनीकी शब्दों के सरल हिंदी या भारतीय भाषाओं में प्रचलित शब्द भी दिए जाते और कोष्ठक में अंग्रेजी के वैश्विक शब्द भी। ऐसा नहीं हो पाया है किंतु यह शुरुआत है इसके अनुभवों से आगे चलकर सुधार बंद नहीं हो जाएंगे, चलते रहेंगे; किंतु तर्कसंगत ढांचे के निर्माण के लिए अनंत काल तक प्रतीक्षा नहीं की जा सकती।

आलोचना का दूसरा पहलू है कि हिंदी माध्यम से पढ़े हुए छात्र का स्तर अंग्रेजी माध्यम से कम होगा। इस आशंका का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। यदि शिक्षक अच्छे हैं, अच्छे संसाधन उपलब्ध हैं (पुस्तकें भी जिनमें आती हैं), तो स्तर कम नहीं हो सकता। यह माना जा सकता है कि अंग्रेजी से भिन्न भाषा से पढ़े हुए डॉक्टर पढ़ाई के बाद विदेश में उच्च शिक्षा या रोजगार के लिए संभवतः नहीं जा सकेंगे, किंतु आज भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले सारे डॉक्टर तो विदेश नहीं चले जाते। अधिकांश को तो इसी देश में सेवा करनी होती है और यह सहज ही समझा जा सकता है कि देश के रोगियों से देश की भाषा में अच्छा संवाद हो सकता है। देश में चिकित्सा व्यवस्था की जो स्थिति है उसमें आने वाले दिनों में सुधार होने की अपेक्षा की जा सकती है और उसके लिए हमें हजारों डॉक्टरों की आवश्यकता पड़ेगी जब कि वर्तमान में भी हजारों पद रिक्त हैं।

प्रारंभिक स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाए हुए डॉक्टर संभ्रांत परिवारों से होते हैं और उनका लक्ष्य ब्रिटेन, अमेरिका में सेवा करना न भी हो तो भी महानगरों में या अच्छे शहरों में रहना पसंद करते हैं। इनमें किसी की गांव देहात के अस्पतालों में नियुक्ति हो जाए तो वे या तो वहां पहुंचते ही नहीं, या कार्यभार ग्रहण करने के बाद वापस अपनी पसंद के शहर में आने के जुगाड़ में लग जाते हैं। इसके विपरीत हिंदी माध्यम से पढ़कर डॉक्टर बने लोग खुशी-खुशी गांव देहात की नियुक्तियां स्वीकार करेंगे यह आशा की जा सकती है।

मेडिकल, प्रबंधन, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा देने वाले संस्थानों में केवल अंग्रेजी माध्यम होने से अनेक अभ्यर्थी तो अपने सपनों को कुचल कर दूसरे व्यवसायों की ओर मुड़ते हैं जिनमें उनकी रुचि नहीं है। कुछ अभ्यर्थी साहस करके एकाधिक प्रयासों में प्रवेश पा जाते हैं किंतु शिक्षा संस्थानों में केवल भाषा के अवरोध के कारण कुंठाग्रस्त होते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि अभियांत्रिकी, चिकित्सा, प्रबंधन के शिक्षा संस्थानों में हर साल कुछ प्रतिभाशाली विद्यार्थी केवल इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि उनकी अंग्रेजी कमजोर होती है और वे अपने सहपाठियों-शिक्षकों के उपहास और अकादमिक असफलता से टूट जाते हैं।

यह सच है कि रोजगार के बाजार में अंग्रेजी की मांग अधिक है, किंतु यह भी तो सत्य है कि व्यवस्था ने अन्य भाषाओं के ढांचे को ऐसा नहीं बनाया कि उन्हें भी रोजगार के बाजार में ऐसी ही पैठ प्राप्त हो जैसी अंग्रेजी के लिए है।

अंग्रेजी को ऐसा आभामंडल दे दिया गया है कि माता-पिता अपनी वित्तीय स्थिति की परवाह किए बिना अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेज रहे हैं। ये लोग अपनी कमाई और बचत का बड़ा हिस्सा पब्लिक स्कूलों से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करवाने में लगा रहे हैं ताकि उनके बच्चे रोजगार के बाजार में पहुँच बना सकें। किंतु उनका क्या जो इतनी अच्छी आर्थिक स्थिति में नहीं है। आज मेडिकल की पढ़ाई का बजट लाखों रुपए प्रति वर्ष का होता है, जो बहुत से माता-पिताओं की पहुँच के बाहर होता है।

अंग्रेजी माध्यम से मेडिकल या अन्य तकनीकी विषयों की पढ़ाई करने से उन छात्रों या अभिभावकों को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं से शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों से कोई कठिनाई कैसे हो सकती है, जो हिंदी माध्यम से पढ़कर निकलेंगे। इसके विपरीत रोजगार के बाजार में उनके सामने संभवत: अधिक अवसर होंगे और कम प्रतिस्पर्धा होगी। इसलिए कुछ पुस्तकों के हिंदी में आ जाने से तिल का ताड़ बनाना व्यर्थ लग रहा है। यह एक पहल है जो आजमाई जा रही है। यदि जनसमर्थन मिला और कसौटी में खरी उतरी तो धीरे-धीरे गति पकड़ेगी। इतना तय है कि इससे अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त नहीं होगा, ऐसा होना भी नहीं चाहिए। बच्चों को, यदि वे चाहते हैं तो, मातृभाषा में शिक्षा न देना उनके मानवाधिकारों का हनन है और एक लोकतांत्रिक देश में मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का काम है।

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