— आनंद कुमार —
हिमालय पर्वतमाला भारत, चीन और तिब्बत के बीच आध्यात्मिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों की आधारभूमि है। इसे भारत, तिब्बत और चीन के बीच मैत्री और सहयोग का शांतिक्षेत्र बनाना चाहिए। यह भारतीय चिंतन की ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ दृष्टि के अनुकूल होगा। तीनों की संस्कृति में बुद्ध की शिक्षा की सुगंध है। इससे एशिया की विश्व में भूमिका बढ़ेगी और दुनिया में शांति का युग शुरू होगा।
लेकिन 1949 में तिब्बत में चीनी सेना के प्रवेश, पकिस्तान के कब्जे के कश्मीरी भाग में 1963 से चीन द्वारा सामरिक महत्त्व के निर्माण और 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला करने के बाद क्रमश: चीन, भारत और पाकिस्तान ने परमाणु अस्त्रों की क्षमता विकसित कर ली और आज यह दुनिया का सबसे तनावग्रस्त क्षेत्र बन गया है। दुनिया के अन्य शक्तिशाली देश इस तनाव के बढ़ने में अपना हित मान बैठे हैं
चीन का विस्तारवाद
चीन की सैन्य शक्ति और विस्तारवाद से पैदा हिमालय की असुरक्षा के कारण तिब्बत का राष्ट्रीय अस्तित्व खत्म हो गया है। भारत की उत्तरी सरहदें बेहद असुरक्षित हैं। चीन ने हिन्द महासागर को भी भारत की घेरेबंदी के लिए इस्तेमाल कर लिया है। इसमें श्रीलंका में हम्बंतोता बंदरगाह, और पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का बनाना और म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, तंजानिया और सोमालिया में संसाधन लगाकर भारत के लिए समुद्री असुरक्षा पैदा करने में जुटा है।
भारत चीन के साथ अपनी कुल सीमा की लम्बाई 3,488 किलोमीटर से लेकर 4,057 किलोमीटर तक मानता है। भारत का आरोप है कि चीन ने कश्मीर में उसकी कुल 43,180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है। जिसमें चीन-पाकिस्तान समझौते के अंतर्गत ली गयी 5,180 वर्ग किलोमीटर जमीन भी है। जबकि चीन इसे सिर्फ 2,000 किलोमीटर लंबा मानता है क्योंकि यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से जुड़े क्षेत्र के बारे में भारतीय शिकायत को अनुचित समझता है। उलटे चीन का आरोप है कि अरुणाचल प्रदेश के रूप में भारत ने चीन की 90,000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है… उसके लिए सिर्फ अरुणाचल प्रदेश में, न कि अक्साई चीन, कश्मीर और लद्दाख में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है! लद्दाख, जम्मू और कश्मीर (पश्चिमी सेक्टर), हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (केन्द्रीय सेक्टर) तथा सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश (पूर्वी सेक्टर) में चीनी सेना और भारतीय सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं।
यह परिस्थिति पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि चीन और भारत दोनों के पास परमाणु हथियारों का संग्रह और सैनिक तैयारी पर खर्च बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार चीन और भारत द्वारा सेना और सुरक्षा पर खर्च का 2010 में 2.5 और 1 अनुपात था। यह 2019 में बढ़कर 3.7 और 1 का हो गया। 2018 में चीन ने सुरक्षा के लिए 225 अरब डालर की राशि खर्च की और भारत का यह खर्च 55 अरब डालर का था।
भारत-तिब्बत-चीन के संबंधों का इतिहास
चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के पहले मध्य एशिया में इसके तीन प्रधान मार्ग थे– बामियान और बैक्ट्रिया; कशगार के रास्ते तारिम घाटी से; और कश्मीर, गिलगित और यासीन के जरिये पामीर पठार से। बाद के दिनों में तिब्बत के जरिये भी एक मार्ग विकसित हुआ जो इस्लाम के विस्तार से मध्य एशिया के रास्तों के बाधित होने के बाद भी उपयोगी बना रहा। भारत और चीन के बीच प्रशांत महासागर के जलमार्गों से भी संपर्क रहा जिससे दक्षिण चीन और दक्षिण भारत के प्रमुख व्यापार केन्द्रों के बीच चोल साम्राज्य (कांचीपुरम) से लेकर श्रीविजय साम्राज्य के 700 बरसों तक आदान-प्रदान हुआ करता था। इस सम्बन्ध ने मलाया, सुमात्रा और जावा समेत हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर की संस्कृतियों को विकसित होने में मदद की। जापान, कोरिया और मंगोलिया भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुए।
लेकिन 1498 में पुर्तगालियों के गोवा पर कब्जे के बाद के 400 बरसों में भारत और चीन के बीच के समुद्री संपर्क सिर्फ यूरोपीय शक्तियों के माध्यम से बनाए गए।
ईसापूर्व 500 से शुरू सहअस्तित्व का सिलसिला 2,500 बरसों तक निर्बाध बना रहा। इसमें भारत से बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार की प्रमुख भूमिका थी। चौथी और पांचवीं शताब्दी में भारत से बौद्ध आचार्यों और भिक्षुओं की दूसरी लहर के चीन पहुँचने के ऐतिहासिक विवरण इसके साक्ष्य हैं। भारत से कुमारजीव और बोधिधर्म और चीन से फा ह्यान और हुयेन चुवांग इस दौर के विख्यात नाम हैं जिन्होंने इन दोनों महान संस्कृतियों के परस्पर परिचय को गहरा किया। चीन में बौद्ध धर्म की महायान परम्परा के प्रचार का 2,000 बरसों का इतिहास उपलब्ध है। इसमें भारतीय प्रभाव और बौद्ध धर्म के खिलाफ प्रतिक्रियाओं के 446, 574, 845 और 955 ईस्वी के चार दौर भी शामिल हैं। दसवीं शताब्दी के बाद भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने लगा। उसके आगे की दो शताब्दियों में दोनों देशों के बीच के व्यापारिक संबंधों में भी कमी आ गयी। भारत में इस्लाम के प्रवेश और 12वीं शताब्दी से बढ़ते राजनीतिक प्रभुत्व का भी प्रतिकूल असर रहा। लेकिन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के 150 बरस के पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप से इस क्षेत्र में विवाद और तनाव का बीजारोपण हुआ।
तिब्बत की कहानी
तिब्बत में बौद्ध धर्म का सातवीं शताब्दी में भारत से आगमन हुआ। इस धार्मिक संपर्क को सांस्कृतिक और व्यापारिक बल मिला। यही भारत-तिब्बत संबंधों की आधारशिला बना और आज भी दलाई लामा समेत तिब्बती समुदाय के स्त्री-पुरुष को अपने तिब्बती होने और बौद्ध होने पर समान गर्व है। तिब्बत की अस्मिता बौद्ध धर्म की ‘नालंदा परम्परा’ पर आधारित है। चीन-तिब्बत संबंधों में इसकी तुलना लायक कोई तथ्य नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में चीन और तिब्बत दोनों पर मंगोलों का कब्जा था। 14वीं शताब्दी में मिंग सम्राट मंगोल के उत्तराधिकारी बने और उन्होंने तिब्बत के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की और दलाई लामा को सम्मान दिया। पांचवें दलाई लामा नवांग लोबसांग ग्यात्सो (1617 – 1682) के शासनकाल से तिब्बत और चीन परस्पर सम्मान के साथ सहस्तित्व को निभाते रहे। 18वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य के दौरान चीन का तिब्बत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों और रक्षा पर नियंत्रण हो गया लेकिन आतंरिक मामलों में कोई भूमिका नहीं थी। 19वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य खुद ही बिखराव का शिकार हो गया इसलिए तिब्बत से उसका सम्बन्ध कागजों में ही सीमित रहा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी तिब्बत के विशेष दर्जे, दलाई लामा के अधिकारों और तिब्बती की राजनीतिक व्यवस्था के शुरूआती दौर में कोई छेड़छाड़ नहीं की थी। इसका प्रमाण मई 1951 का 17सूत्री समझौता था।
लेकिन 1959 के विद्रोह के बाद ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ (तिब्बत ऑटोनोमस रीजन/ टार) का गठन किया गया। भारत इस नए स्वरूप को इस आशा से मान्यता देता आया है कि इससे तिब्बत की स्वायत्तता का वैधानिक आधार बचाया जा सकेगा।
दलाई लामा ने भी ‘मध्यम मार्ग’ का सूत्र प्रतिपादित किया है जिसमें तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग नहीं है। सिर्फ ‘वास्तविक स्वायत्तता’ का आग्रह है। इस सूत्र के आधार पर 1979 और 2002 के बीच दलाई लामा के प्रतिनिधियों और चीन सरकार के बीच अनेकों मुलाकातें हुईं। क्योंकि माओ के देहांत और सांस्कृतिक क्रान्ति की विफलता के बाद सत्तासीन हुए देंग सिओपिंग और हु याओबांग चीन की तिब्बत नीति में सुधार चाहते थे। इसके फलस्वरूप दलाई लामा के एक प्रतिनिधि ने के बीच तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी शासन के बीच दस बार 2002 में तिब्बत की यात्रा भी की। इससे आगे 2003 और 2010 में संवाद हुआ। लेकिन 2008 आर 2010 के बीच तिब्बत में आत्मदाह और प्रतिरोध की घटनाओं की बारंबारता के कारण बात रुक गयी। एक स्रोत के अनुसार दलाईलामा ने 2014 में चीन के सर्वोच्च नेता शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान मुलाकात करके बात करने की कोशिश की। लेकिन भारत सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी (देखें : सोनिया सिंह (2019) डीफाईनिंग इण्डिया थ्रू देएर आईज (गुडगाँव, पेंगुइन इण्डिया)? इस प्रक्रिया को 2015 में चीन के नए नायक शी जिनपिंग के निर्देश पर एक ‘श्वेतपत्र’ प्रकाशित करके दलाई लामा पर चीन को तोड़ने की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाकर समाप्त कर दिया गया।
वैसे भारत ने 1959 से आजतक तिब्बती प्रवासियों के पुनर्वास की प्रक्रिया में प्रशंसनीय सहयोग किया है। इसीलिए आज तिब्बती साधकों ने भारत में धर्मशाला को एक वैकल्पिक प्रशासन केंद्र के रूप में बना लिया है। इसके चारों प्रमुख सम्प्रदायों–गेलुप, कर्ग्यु, निग्मा और साक्या – के प्रमुख भारत में ही हैं। दलाई लामा के प्रशासन ने 225 मठ और 30,000 तिब्बती भिक्षुओं की मदद से भारत को तिब्बती बौद्ध धारा का सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र बनाने में सफलता पायी है। फलस्वरूप आज भी सभी तिब्बती सहज ही भारत को अपना ‘गुरु’ और चीन को आततायी मानते हैं। वैसे भी चीन को लगातार दो बड़े भय सताते हैं : एक, दलाई लामा का ‘मध्यम मार्ग’ सूत्र वस्तुत: चीन से तिब्बत को अलग करने के सपने को मजबूत करेगा। दूसरे, पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश की तरह भारत रूस और अमरीका की मदद से तिब्बत को चीन के कब्जे से निकालकर एक स्वतंत्र देश बनने में सहायता कर सकता है (देखें : जॉन डब्ल्यू. गर्वर (2016) चाइना’ज क्वेस्ट : द हिस्ट्री ऑफ़ फोरें रिलेशंस ऑफ़ द पीपुल्स रिपुब्लिक ऑफ़ चाइना (न्यूयार्क, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस), पृष्ठ 313-14.
दूसरी तरफ, तिब्बत-चीन संबंधों में कुबलाई ख़ान (1271), मिंग साम्राज्य (14वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), अल्तन ख़ान (1578), क्विंग साम्राज्य (1644) और सम्राट कांग्सी (1720) के हस्तक्षेपों की भूमिका का महत्त्व है। नौवें दलाई लामा का 1720 में चीनी सम्राट की मदद से तिब्बत का राजनीतिक प्रमुख तिब्बत और चीन के संबंधों की कथा में बनना एक निर्णायक मोड़ रहा क्योंकि इसके बाद के सभी दलाई लामा के पदारोहण में चीन के शासक की सहमति की परम्परा बन गयी। तिब्बत पर चीन के स्वामित्व के दावे के समर्थक बताते हैं कि ब्रिटेन ने चीन के साथ 1890 के एक समझौते में और ब्रिटेन और रूस ने 1907 में एक दस्तावेज पर दस्तखत करके तिब्बत पर चीन की ‘संप्रभुता’ (सूज़ेरेंटी) को मान्यता दी थी। ब्रिटिश राज से मुक्ति के बावजूद भारत की तिब्बत नीति या हिमालय नीति में कोई बदलाव नहीं आया। कांग्रेस की सरकार की जगह जनता पार्टी की सरकार बनी। 1999 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में श्री अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार आयी। 2014 से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार का दूसरा दौर चल रहा है। लेकिन भारत की तिब्बत नीति 1954 से अब तक हमेशा चीन के वर्चस्व को स्वीकारती आयी है। कभी ‘पंचशील’, कभी ‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’ और कभी ‘सिक्किम का भारत में विलय’! सिर्फ 1966 में भारत ने तिब्बत के सवाल पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में चर्चा के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। अन्यथा हम तटस्थ रहते आये हैं। चीनी दावेदारों के अनुसार ‘सूज़ेरेंटी’ का अर्थ चीनी संप्रभुता के अंतर्गत तिब्बती स्वायत्तता’ है। इसलिए तिब्बत की आजादी का सवाल ही नहीं उठता है। फिर भारत की हिमालय नीति और तिब्बत नीति के बारे में इन दावेदारों की तरफ से दो प्रश्न किये जाते हैं – 1) क्या इतिहास में तिब्बत कभी स्वतंत्र देश था? और 2) क्या तिब्बत निकट भविष्य में एक टिकाऊ स्वतंत्र राष्ट्र बन सकता है? (देखें : सुब्रह्मण्यम स्वामी (2020) हिमालयन चैलेन्ज (नयी दिल्ली, रूपा) पृष्ठ 23)
पहले तिब्बत की आजादी का सवाल देखा जाए। 1911 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की थी। तब से 1949 में चीनी सेना के हस्तक्षेप तक 40 बरस तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था। तिब्बत की अपनी मुद्रा, डाक टिकट और यात्रा-प्रवेश के लिए वीजा की व्यवस्था चीन में कम्युनिस्ट क्रान्ति होने तक अस्तित्व में थे। लेकिन 1950 से तिब्बत की आजादी चीनी राष्ट्रवाद के निशाने पर आ गयी। चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद चेयरमैन माओ ने जनवरी, 1950 में तिब्बत से पत्र लिखकर धमकानेवाली भाषा में मांग की कि ‘तिब्बत को अपनी मातृभूमि से पुन: एकजुट होने’ का निर्णय करना चाहिए। इसके दस महीने बाद माओ ने अक्तूबर,1950 में चीनी सेना को तिब्बत पर चढ़ाई के लिए आदेश दिया और चीन की सेना ने ल्हासा के पूर्वी इलाके में चामदो पर कब्जा कर लिया।
इस खुले ‘चीनी विस्तारवाद’ से चिंतित होकर भारत के उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने 7 नवम्बर 1950 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक आठ-सूत्री पत्र लिखा और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के बाद भारत-तिब्बत के सीमांकन के लिए स्वीकारी गयी ‘मैकमहोन रेखा’ सम्बन्धी नीति को भी इनकारने की आशंका प्रकट की गयी। प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने उत्तर में 18 नवम्बर को पत्र लिखा। इसमें तीन बातें महत्त्वपूर्ण थीं : 1) भारत तिब्बत की कोई मदद नहीं कर सकता। 2) ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका या कोई भी अन्य देश तिब्बत की मदद की बजाय चीन को बदनाम करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। और 3) ‘चीन से भारत की सीमाओं को खतरा एक बेबुनियाद आशंका है। (देखें; गोपाल, एस. (सम्पादक) सरदार पटेल’स करेस्पोंडेंस, खंड 8 (1973)(अहमदाबाद) पृष्ठ 335-347.
इसके बाद सरदार पटेल की 15 दिसम्बर 1950 को मृत्यु हो गयी और 23 मई, 1951को चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने फौजी दबाव में एक 17सूत्री ‘समझौते’ के जरिये तिब्बत का चीन में ‘विलय’ घोषित कर दिया। इस कदम को मजबूती देने के लिए चीनी सेना ने 26 अक्तूबर 1951 को ल्हासा में प्रवेश करके तिब्बत को अपने अधीन कर लिया। तिब्बत की रक्षा के अपने प्रयासों के लिए विश्व-समर्थन जुटाने के लिए परमपावन दलाई लामा ने 1959 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में शरण लेने का साहसिक निर्णय किया। दलाई लामा और उनके अनुयायियों के 31 मार्च 1959 को भारत सीमा में प्रवेश करने पर सरकार और जनता ने उनका पूर्ण सम्मान के साथ स्वागत किया। तब से आज तक दलाई लामा और सभी तिब्बती भारत के सम्मानित अतिथि हैं और तिब्बत की मुक्ति साधना जारी है (देखें; दलाई लामा (1998) फ्रीडम इन एक्जाईल (लन्दन, अबेकस)।
(बाकी हिस्सा कल)