दुनिया में अति गरीबों की तादाद बढ़ी, सबसे ज्यादा भारत में

0


— प्रसन्न मोहंती —

रीबी के बारे में विश्व बैंक का ताजा अनुमान एक बुरी खबर है : दुनिया की आबादी में 2020 में अति गरीबों की तादाद में जो इजाफा हुआ उसमें भारत का भारी योगदान है, 79 फीसद। यह अनुमान बताता है कि विश्व में अति गरीबों की संख्या में 7.1 करोड़ की वृद्धि हुई और इसमें 5.6 करोड़ की वृद्धि अकेले भारत ने की।

इस आकलन में अति गरीबी को 2017 की क्रयशक्ति समता (अंतरराष्ट्रीय विनिमय का एक सिद्धांत जिसके अनुसार एकसमान वस्तुओं की कीमतें समान रहती हैं) के आधार पर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2.15 डालर खर्च के तौर पर परिभाषित किया गया है (जो कि पहले 1.9 डालर था)। एक और दुखद बात यह है कि भारत के नए अति गरीबों का हिसाब लगाने में एक गैरसरकारी संस्थान – सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के नए पारिवारिक सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है, न कि सरकारी आंकड़ों का। यह इसलिए करना पड़ा, क्योंकि भारत के पास पारिवारिक उपभोग-व्यय (जो कि पारिवारिक आय को सूचित करता है) के बारे में 2011-12 के बाद से सरकारी आंकड़े नहीं हैं।

हालांकि सीएमआईई के आंकड़ों का इस्तेमाल राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के उपभोग-व्यय संबंधी आंकड़ों से अच्छी तरह मिलान करने के बाद ही किया गया – जो आंकड़े पिछली बार 2011-12 में इकट्ठा किए गए थे। दरअसल राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट 2017-18 की थी, लेकिन इसके आंकड़ों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया, क्योंकि इस रिपोर्ट के लीक होने के बाद यह खुलासा हुआ था कि ‘वास्तविक’ पारिवारिक व्यय में चार दशक में पहली बार गिरावट आयी है।

यह कोई हैरानी की बात नहीं है, यह देखते हुए कि नोटबंदी और जीएसटी के तौर पर दो झटकों के फौरन बाद यह गिरावट दर्ज हुई। इसके अलावा, यूपीए-2 के अंतिम वर्षों में अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ रही थी।

यह निहायत विडंबनापूर्ण है कि सबसे तेज रफ्तार वाली एक प्रमुख अर्थव्यवस्था बनने के बाद, पहले 2015 में और फिर 2021 में, और फिर 2022 में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने (वित्तवर्ष 2023 की पहली तिमाही के जीडीपी आकार के आधार पर) के बाद भी भारत सरकार पारिवारिक व्यय के आंकड़े (जो कि पारिवारिक आय को दर्शाते हैं) इकट्ठा करने से कन्नी काट रही है।

जाहिर है कि भारत सरकार को बहुत कुछ छिपाना है – जीडीपी ग्रोथ के अंतर्विरोधी स्वरूप को। यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत की जीडीपी वृद्धि का ग्राफ उससे भी ज्यादा ऊंची विषमता वृद्धि के ग्राफ से जुड़ा हुआ है। ऊंची जीडीपी वृद्धि का लाभ (आमदनी और दौलत के रूप में) ऊपरी तबके को ही मिला है – ऊपर के 1 फीसद और ऊपर के 10 फीसद लोगों को, बीच के 40 फीसद और नीचे के 50 फीसद लोगों की कीमत पर।

भारत के संदर्भ में गरीबी की बाबत विश्व बैंक का ताजा अनुमान पूर्व प्रकाशित अन्य वैश्विक अनुमानों से मेल खाता है, इसमें सबसे करीब है अमरीका के प्यू शोध संस्थान की मार्च 2021 में आयी रिपोर्ट, भारत में कोरोना की दूसरी लहर का कहर टूटने से पहले, जो कि पहली लहर से ज्यादा विनाशकारी थी।

प्यू रिपोर्ट ने बताया कि 2020 में (2011 की क्रयशक्ति समता के आधार पर, प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2 डालर या उससे कम खर्च के पैमाने पर) भारत में अति गरीबों की तादाद में 7.5 करोड़ का इजाफा हुआ। यह पूरी दुनिया में अति गरीबों की तादाद में हुई बढ़ोतरी, 13.1 करोड़, का 57 फीसद है। यह अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 2011-12 के आंकड़ों पर आधारित था।

भारत में अति गरीबों की तादाद बढ़ने का एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि महामारी (कोरोना) का असर गैरबराबरी को और बढ़ाने वाला साबित हुआ।

विश्व बैंक का डाटाबेस यह दर्शाता है कि, 2.15 डालर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खर्च के पैमाने पर, कोरोना से पहले के पांच सालों (2015 – 19) में दुनिया में अति गरीबों की तादाद में भारत का हिस्सा औसतन 26 फीसद था। लेकिन महामारी आने के बाद के दौर में यह उछलकर 79 फीसद (विश्व बैंक के 2022 के आकलन के मुताबिक) या (प्यू के 2021 के आकलन के मुताबिक) 57 फीसद पर जा पहुंचा।

लाख टके का सवाल है कि यह क्यों हुआ। भारत में कोरोना की मार गैरबराबरी को इतनी बढ़ाने वाली क्यों साबित हुई?

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि 2020 (यानी वित्तवर्ष 2021) में जब वैश्विक जीडीपी ग्रोथ में 3.1 फीसद की गिरावट आयी तब भारत में उससे बहुत ज्यादा, 6.6 फीसद की गिरावट दर्ज हुई। भारत सरकार ने इसकी तह में जाने की कोई कोशिश नहीं की। इसकी वजह यही रही होगी कि अर्थव्यवस्था की बुनियाद को एक के बाद एक लिये गए कई फैसलों ने चोट पहुंचाई – योजना आयोग के विघटन से शुरू करके नोटबंदी और जीएसटी तक, और फिर महामारी से निपटने में भयानक बदइंतजामी।

योजना आयोग के विघटन ने जहां पूरी तरह मनमाने और स्वार्थ साधने वाले नीति निर्धारण का रास्ता साफ किया – जो कि निजी उद्योगों के हितों की पैरोकारी करने वाला साबित हुआ, वहीं अन्य तीन घटनाओं ने सीधे और रातोंरात करोड़ों लोगों की जिंदगी, रोजगार और छोटे व्यापार पर बहुत बुरा असर डाला – और इससे बड़े पैमाने पर गरीबी बढ़ी।

जब आम लोगों की गरीबी बढ़ती है, तो मांग घट जाती है और वास्तविक अर्थव्यवस्था (जो कि शेयर बाजार नहीं है, मसलन) सिकुड़ती है। इसके ढेरों प्रमाण हैं।

वित्तवर्ष 2022 में जब भारत ने फिर से सबसे तेजी से उभरती एक प्रमुख अर्थव्यवस्था बनने के लिए 8.7 फीसद की वृद्धि दर्ज की, निजी उपभोग का स्तर (पीएफसीई) महामारी से पहले के वित्तवर्ष 2020 के स्तर से बमुश्किल 1.4 फीसद ही अधिक था। प्रतिव्यक्ति जीडीपी तो वास्तव में वित्तवर्ष 2020 के मुकाबले 0.5 फीसद कम थी।

अब जब वैश्विक मंदी का खतरा दिनोदिन बढ़ रहा है और वित्तवर्ष 2023 में भारत के जीडीपी ग्रोथ के अनुमान को विश्व बैंक ने 7.5 फीसद से घटाकर 6.5 फीसद कर दिया है तब भारत त्योहारी दिनों की बिक्री से ग्रोथ को गति मिलने की आस लगाए हुए है। लेकिन यहां एक अड़चन है।

यूबीएस सिक्युरिटीज इंडिया (मुंबई स्थित निवेश बैंक) के मुताबिक उपभोग की गाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में ऊपर से 20 से 59 फीसद और शहरी क्षेत्रों में ऊपर से 66 फीसद लोगों द्वारा ही संचालित होती है। महामारी से लगे झटकों से भारत के अधिकांश लोग अब भी उबर नहीं पाए हैं। यह तथ्य यूबीएस सिक्युरिटीज इंडिया के पिछले अगस्त के सर्वे पर आधारित है।

(‘सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटेबिलिटी’ से साभार)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment