— प्रो अरुण —
अभी हाल में ही (31 अक्टूबर – 01नवंबर) भारत-तिब्बत मैत्री संघ का नौवां राष्ट्रीय सम्मेलन नालंदा जिला स्थित प्रसिद्ध बौद्ध स्थल राजगीर में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन में देश भर के 230 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन को मुख्य रूप से तिब्बती निर्वासित सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री प्रो एस रिनपोछे एवं वर्तमान प्रधानमंत्री श्री पेनपा त्सेरिंग ने संबोधित किया।
यह सवाल बार बार पूछा जाता है कि खुद भारत के सामने अनेक चुनौतियां हैं फिर तिब्बत जो चीन का भूभाग है, उसकी चिंता हमें क्यों है? दरअसल तिब्बत की आजादी हमारी सुरक्षा से जुड़ी है।
चीन में कम्युनिस्ट शासन (1949) आने के पूर्व तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य था, लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक की लगभग चार हजार किलोमीटर तक की हमारी सीमा तिब्बत के साथ लगी थी, हमारा पड़ोसी तिब्बत था न कि चीन। तिब्बत के साथ हमारे राजनयिक रिश्ते थे, बड़े पैमाने पर हमारे व्यापारिक संबंध थे। बुद्ध की जन्मभूमि होने के कारण तिब्बती भारत को गुरु का देश मानते थे। सदियों से हमारे सांस्कृतिक संबंध रहे।
वर्ष 1914 का “शिमला समझौता” त्रिपक्षीय था जिसमें ब्रिटिश इंडिया, चीन एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उसी समझौते के द्वारा पूर्वी सेक्टर में “मैकमोहन लाइन”को मान्यता मिली थी। चीन को तब तिब्बत से लगी हुई हमारी सीमाओं पर कोई आपत्ति नहीं थी। हां, तिब्बत और चीन की सीमाओं पर मतभेद होने के कारण उन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था।
वर्ष 1911-12 में वहां की राष्ट्रवादी पार्टियों ने राजशाही खत्म कर रिपब्लिक ऑफ चीन का निर्माण किया, उस समय भी तिब्बत स्वतंत्र था। राष्ट्रवादियों की सरकार के पतन के बाद माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन आने के बाद तिब्बतियों पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। ‘दुनिया की छत’ कहा जाने वाला देश गुलाम हो गया। जबर्दस्ती चीनियों ने 17 सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर करा लिये।तिब्बत के धर्मगुरु एवं शासक 14वें दलाई लामा जी को जान से मारने की योजना बनाई गई, लाचार दलाई लामा जी को अपने हजारों समर्थकों के साथ वर्ष 1959 में हमारे देश में शरण लेनी पड़ी। तब से लेकर लगातार दलाई लामा जी हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निर्वासित सरकार का गठन कर अपने देश लौटने का इंतजार कर रहे हैं।
हमारे तत्कालीन राजनेताओं की अदूरदर्शिता के कारण ब्रिटिश सरकार से मिले तिब्बत संबंधित सभी अधिकारों को “पंचशील समझौते”के तहत चीन को सौंप दिए गए। “हिंदी-चीनी भाई भाई” का नारा खूब चला। नेहरूजी खुश थे कि एशिया की दो भावी महाशक्तियां साथ आ रही हैं, वे चीन की विस्तारवादी नीति को समझ नहीं पाए, तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार कर ली। उस समय का चीन आज की तरह का शक्तिशाली देश नहीं था, अगर हम चाहते तो उसी समय हमारी सीमाओं का स्थायी समाधान हो गया होता।
अगर तिब्बत एक मध्यस्थित देश के रूप में हमारे और चीन के बीच में होता तो भारत की सीमाएं सुरक्षित रहतीं। सैन्य गतिविधियों पर होने वाले खर्च को कम कर हम अपने विकास कार्य पर खर्च कर सकते थे।
वर्ष 1962 के आक्रमण के दौरान हमने “अक्साई चिन” को पूरी तरह गंवा दिया है। अब चीन गलवान घाटी, पेंगोंग झील इत्यादि कई स्थानों पर जानबूझकर कर हमारे सैनिकों के साथ मुठभेड़ की स्थिति में है, पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जता रहा है।
वर्ष 2016 में मैं अपने सहयोगी मित्र प्रो विकास नारायण उपाध्याय जी के साथ चीन की यात्रा पर गया था। चीन के लोगों के बीच कम्युनिस्ट शासन ने दलाई लामा जी को देशद्रोही के रूप में प्रस्तुत कर उनकी छवि खराब करने की पुरजोर कोशिश की है। दलाई लामा जी गांधी को अपना आदर्श मानते हैं, वे सत्य एवं अहिंसा के मार्ग पर चलकर तिब्बती समस्या का समाधान चाहते हैं। भारत की सरकारें प्रारंभ से ही चीन के तुष्टिकरण में लगी रही हैं। चीन के सामने तिब्बत के सवाल को मजबूती से उठाने में घबराती है।
भारत की जनता को तिब्बत की आजादी के सवाल को अपने हाथों में लेना होगा। पुराने तिब्बत मित्र एवं जेएनयू के पूर्व शिक्षक प्रो आनंद कुमार को भारत-तिब्बत मैत्री संघ का प्रधान बनाया गया है, डॉ हरेंद्र कुमार बिहार चैप्टर के अध्यक्ष बनाये गए हैं। उम्मीद है कि इन लोगों के नेतृत्व में तिब्बत का सवाल भारतीय जनमानस का सवाल बनेगा।तिब्बत मुक्ति साधना सफल होगी।