— आनंद कुमार —
सोमवार को अपने आदेश में सर्वोच्च अदालत ने गरीब सवर्णों को आरक्षण देने संबंधी कार्यपालिका के आदेश की वैधानिकता तय कर दी। मगर इस फैसले के कई पहलू ऐसे हैं, जिन पर स्थिति अब भी स्पष्ट नहीं है। चिंता की बात यह भी है कि आरक्षण को लेकर समाज का दृष्टिकोण तेजी से बदल रहा है और समाज विज्ञानियों के अलावा शायद ही कोई आरक्षण व्यवस्था का तार्किक, दार्शनिक और नैतिक आधार जानता है।
हमारे मुल्क में जो सामाजिक व्यवस्था है, उसमें किसी भी अन्य देश की तरह कुछ ताकत के कारक हैं, तो कुछ दोष के। इन गड़बड़ियों को दूर करने की जिम्मेदारी आजादी के बाद की पीढ़ी की थी और इसके लिए संविधान नामक मार्गदर्शक दस्तावेज भी बनाया गया। इसमें उन वर्गों और समुदायों के लिए विशेष अवसर के प्रावधान किए गए, जिनको हम वंचित कहते हैं।
अपने देश में भेदभाव के चार आधार रहे हैं- लिंग भेद, जाति भेद, अमीरी गरीबी और धर्म या धार्मिक बहुसंख्यक। आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई कि जो लोग पीछे हैं या जिन लोगों के पांव में हमने परंपराओं की जंजीर बांध रखी थी, वह जंजीर राजनीतिक समानता पैदा करने से तो टूट गई, लेकिन आर्थिक व सामाजिक समानता पैदा करने के लिए उनमें नेतृत्व निर्माण और क्षमता विस्तार की भी आवश्यकता थी। क्षमता विस्तार के लिए शिक्षा के अधिकार की जरूरत थी तो नेतृत्व निर्माण के लिए आरक्षण की। आज यदि गरीबी का समाधान भी आरक्षण में खोजा जा रहा है, तो वह संविधान की प्रतिकूल व्याख्या ही कही जाएगी।
गरीबी दूर करने के लिए रोजगार के अधिकार की आवश्यकता है, आरक्षण की नहीं। फिर आरक्षण की विडंबना यह है कि यह सिर्फ सरकारी क्षेत्र में लागू है और पिछले तीन दशकों से यह क्षेत्र सिमट रहा है एवं निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। यही कारण है कि आज आरक्षण के कारण हम नई पीढ़ी को ऐसा कागजी फूल दे रहे हैं जो न रखने के लायक है न फेंकने के लायक।
जिनको आरक्षण मिला है, उन्हें भी बेरोजगारी कमोबेश उतनी ही है, जितनी आरक्षण से वंचित तबके के बच्चों में। फिर भी, सवर्णों में आरक्षण को लेकर एक तनाव है, जबकि सच यह है कि देश में रोजगारहीन विकास का मॉडल खड़ा किया गया है, जिससे पार पाने का तरीका यही है कि हम आजीविका को बुनियादी अधिकार बनाएं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पिछली केंद्र सरकार ने ग्रामीण भारत के लिए रोजगार की व्यवस्था करके इसका इसका उपाय निकालने का प्रयास किया था, जिसके बाद भारत की राजसत्ता कम से कम गांवों में बेरोजगारों के साथ खड़ी दिखती है। पिछले दिनों नगरों में भी रोजगार की गारंटी देने वाली योजना की शुरुआत राजस्थान की सरकार ने की है, जिसका असर देर-सबेर अन्य प्रदेशों पर भी पड़ेगा, क्योंकि रोजगारहीन नागरिकता निरर्थक होती है।
यही वजह है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सर्वोच्च अदालत का ताजा फैसला विडंबनापूर्ण है। वैसे भी, आरक्षण की जो मर्यादा कुछ साल पहले नौ जजों की बेच ने तय की थी, एक तरह से उस पर भी पांच जजों की पीठ ने निर्णय दिया है। यह समझना होगा कि 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था इसलिए नहीं की गई थी कि इसकी एक सीमा होनी चाहिए। ऐसा दरअसल इसलिए किया गया था कि यदि कुछ सक्षम लोग अपनी ज्ञान-शक्ति के आधार पर देश चलाएंगे, तो कुछ लोगों को विशेष अवसर देकर क्षमता निर्माण का अवसर दिया जाना चाहिए। इस मर्यादा से मंडल आयोग के समर्थक अबतक नाराज हैं।
तमिलनाडु ने यहां जो व्यवस्था दी है, उसे अदालत को काफी पहले सुलझा लेना चाहिए था। ऐसा न करने के कारण और तय सीमा से अधिक आरक्षण की व्यवस्था तमिलनाडु की प्रतिभाओं को सिलिकॉन वैली पहुंचा चुकी है। जाहिर है, आरक्षण एक समाज वैज्ञानिक उपकरण है, जिसका इस्तेमाल अब राजनीति के माहिर खिलाड़ी करने लगे हैं।
यहां मेरी मंशा न्यायमूर्तियों के विवेक पर सवाल उठाने की कतई नहीं है। वे सब गुणी हैं, पर यह सवाल भी गलत नहीं कि जिस मुद्दे पर नौ जजों की बेंच ने एक निर्देश जारी किया था, क्या उसे पांच जजों की पीठ ने महत्त्वहीन बना दिया? संविधान की आत्मा तो यही कहती है कि जो सामाजिक व शैक्षणिक रूप से कमजोर हैं, उन्हीं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए, और जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, उनके लिए नियोजन की। जब देश के करीब 80 करोड़ लोग इतने सक्षम नहीं कि वे अपने लिए दो वक्त का अनाज जुटा सकें और सरकार से खाद्यान्न मिलने की उम्मीद लगाए हुए हों, तब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के इस आरक्षण का भला क्या मतलब है?
अपने देश में हर साल 1.5 करोड़ नौजवान श्रम बाजार में उतरते हैं, जबकि हमारी क्षमता लगभग 25-35 लाख रोजगार सालाना पैदा करने की है। स्पष्ट है, करीब सवा करोड़ के इस अंतर की भरपाई आरक्षण से नहीं हो सकती। इसके लिए हमें रोजगार आधारित नियोजन की जरूरत है। मगर वोट बैंक के लिए जिस दलदल में देश को धंसाया जा चुका है, उससे पार पाने में शीर्ष अदालत का फैसला सक्षम नहीं है।
देश की प्रगति की प्रक्रिया में जो लोग पीछे छूट गए हैं, उनको साथ लेकर चलना राजसत्ता का हमेशा लक्ष्य होना चाहिए, तभी समावेशी विकास होगा। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास नरेंद्र मोदी का कथन है, जबकि प्रधान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनेकता में एकता की बात कही थी। यानी इस मामले में नेहरू और मोदी समान धरातल पर हैं। इसीलिए सबसे पहले आरक्षण उसे मिलना चाहिए, जो दिव्यांग हैं, फिर जिस घर में कमाने वाले पुरुष का देहांत हो चुका हो, इसके बाद भौगोलिक रूप से मुश्किलों से जूझने वाले लोगों को, और अंत में जाति या संख्या बल से पीड़ित जरूरतमंदों को।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण की व्यवस्था संविधान के तहत नहीं, वोट-बैंक के लिए की गई और अदालत ने इसे जारी रखकर एक तरह से निराश ही किया है।
हम आशा करते हैं कि प्रधान न्यायाधीश पूर्ण संवैधानिक पीठ का गठन करके तमाम उलझनों को दूर करेंगे, जबकि शासन देश के जाने-माने समाज विज्ञानियों का आयोग बनाकर आरक्षण व्यवस्था की मर्यादा बचाने का उपाय तलाशेगा। आरक्षण नीति की समीक्षा मौजूदा वक्त की जरूरत है। टुकड़े-टुकड़े में इसके बारे में फैसला कतई देशहित में नहीं है।