— अरमान —
जनसंख्या को लेकर एक खास विचारधारा के लोगों के द्वारा कई तरह की भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं। जनसंख्या के आंकड़ों को तोड़-मड़ोकर पेश करने की कोशिश जी जा रही। बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के मन-मस्तिष्क में, मुसलमानों की बढ़ती आबादी का झूठा, अतार्किक और निराधार डर बैठाया जा रहा है। इसके पीछे की राजनीतिक मंशा को सहज ही समझा जा सकता है। हाल में आयी, एस.वाई. कुरैशी की पुस्तक जनसंख्या का मिथक इस झूठ का पर्दाफाश करती है। पुस्तक मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई है। इस विषय के सामयिक और दीर्घकालीन महत्त्व को देखते हुए इसका अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार हरिमोहन मिश्र ने किया है। पुस्तक में श्री कुरैशी ठोस तथ्यों और आंकड़ों के जरिये यह बताने की कोशिश करते हैं कि मुस्लिम जनसंख्या का हौवा बेबुनियाद है। प्रायः भारत के सभी समुदायों ने जनसंख्या नियंत्रण की सोच को अपनाया है।मुस्लिम समुदाय इससे अलग नहीं है। इस समुदाय विशेष की जनसंख्या की वृद्धि दर में भी कमी आई है।
यह किताब पवित्र कुरान और हदीस के हवाले से बताती है कि इस्लाम छोटे परिवार का विरोधी नहीं है। बल्कि वह छोटे परिवार की हिमायत भी करता है। यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक कुल नौ अध्याय और तीन परिशिष्टों में बंटी हुई है। पहले अध्याय का शीर्षक है ‘भारत में परिवार नियोजन की दास्तान’। कुल 28 पृष्ठों का यह अध्याय, भारत में परिवार नियोजन के इतिहास को गहरे देखने-समझने का प्रयास करता है। भारत की आबादी 1951 में 36.11 करोड़ थी, जो 2011 में 121.02 करोड़ हो गई, ऐसा अनुमान है कि 2020 में यह आबादी 1.38 अरब हो गई है। कुरैशी साहब का मानना है कि भारत अपने जनसंख्या परिवर्तन के तीसरे दौर से गुजर रहा है, जहाँ जन्मदर तो गिर रही है लेकिन आबादी बढ़ती जा रही है। वे इसके ठोस कारणों की पड़ताल करते हैं, आंकड़ों के हिसाब से भारत की 53 फीसदी आबादी 15-49 आयु वर्ग की है जो प्रजनन क्षमता वाले वर्ग की है। वर्ष 2001-2011 के दशक में वृद्धि दर 17.7 फीसदी दर्ज की गई जबकि 1991-2001 के दशक में वृद्वि दर 21.5 प्रतिशत थी। वृद्धि दर में गिरावट सभी धार्मिक समूहों की है, इसका दूसरा पहलू राज्यवार भी है। राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पौष्टिक आहार, रोजगार, स्त्री-सशक्तीकरण के स्तर आदि के हिसाब से क्षेत्रीय फर्क भी दिखाई पड़ता है। 1951 में जहाँ महिला की बच्चा जनने की औसत दर 6 थी वहीं 2015-16 में 2.2 हो गयी। आंकड़े बताते हैं कि दम्पति न सिर्फ कम बच्चे की तमन्ना रखते हैं बल्कि कम बच्चा पैदा करते भी हैं। बावजूद इसके जनसंख्या में वृद्धि तेज दिखाई पड़ती है तो इसकी वजह जनसंख्या संक्रमण है।
भारत 1952 में राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू करने वाला देश बना। इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य अर्थव्यवस्था के अनुरूप जनसंख्या को स्थिर करने की ठोस रणनीति थी। विभिन्न कारणों से ठोस सफलता नहीं मिल सकी, गरीबी और स्वास्थ्य सुविधाओं का सुदूर गांवों में पहुँच का अभाव, रोग लगने से ऊंची मृत्यु दर, कम उम्र में शादी, परम्परा और सांस्कृतिक वजहों से जनसंख्या में वृद्धि होती गई। मुसलमानों के भी यही सारे कारण थे जो दूसरे समुदाय के पास में थे। इस अध्याय में अब तक की सभी पंचवर्षीय योजनाओं में परिवार नियोजन हेतु किये गए ठोस कार्यक्रमों की पड़ताल की गयी है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘जनसंख्या वृद्धि और परिवार नियोजन’ है। इस अध्याय में लेखक जनसंख्या के आंकड़े में हो रहे बदलाव को ईमानदारी से दर्शाने की कोशिश करते हैं। उन्होंने दिखाया है कि 1951 में मुसलमानों की जनसख्या 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 14.2 प्रतिशत हो गयी है। इसी दरम्यान हिंदुओं का अनुपात 84 प्रतिशत से गिरकर 79.8 प्रतिशत हो गया। यह भी सच है कि मुसलमान परिवार नियोजन के उपायों के इस्तेमाल में नीचे से निचले स्तर (45.3) पर हैं, वहीं हिन्दू भी सभी धार्मिक समुदायों में नीचे दूसरे स्तर पर हैं। आंकड़े बताते हैं कि मुसलमान परिवार नियोजन को तेजी से अपना रहे हैं हिंदुओं के मुकाबले और तेजी से। इन तमाम कारणों से दोनों समुदायों के बीच परिवार नियोजन के इस्तेमाल का अन्तर तेजी से घटता जा रहा है। यह बात भी ठीक है कि अभी भी कुछ मुसलमान परिवार नियोजन को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं। यह भी सच है कि मुसलमानों के द्वारा परिवार नियोजन का कोई ठोस संगठित विरोध दिखाई नहीं पड़ता है। लेखक हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर की तुलना जनगणना के आंकड़ों से करते हैं, 1991-2001 में हिंदुओं की जनसंख्या की वृद्धि दर 19 प्रतिशत थी जो घटकर 2011 में 16.6 प्रतिशत हो गई। ठीक इसी अवधि में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर 29.62 से प्रतिशत से घटकर 24.6 प्रतिशत दर्ज दर्ज की गई। इस अध्याय में लेखक बहुत सारे सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण कर ठोस तथ्यों के आधार पर अपनी बात को पुष्ट करते हैं।
तीसरे अध्याय का शीर्षक है ‘परिवार नियोजन कौन और क्यों अपनाता है’। इस अध्याय में लेखक विस्तार से ठोस आंकड़ों के आधार पर पड़ताल करने की कोशिश करते हैं, जिससे कोई व्यक्ति परिवार नियोजन को अपनाता है। लेखक कहते हैं :”जिन समुदायों के बारे में हम बात करना चाहते हैं उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझे बगैर परिवार नियोजन की स्वीकार्यता के मुद्दे की विवेचना करना अनुपयुक्त होगा। इस बात के साक्ष्य बार-बार मिलते रहे हैं कि परिवार नियोजन अपनाने के मामले में सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक कारण सबसे अधिक प्रभाव डालते हैं।” शिक्षा, आमदनी, महिलाओं का सशक्तीकरण जैसे ठोस मुद्दों के बगैर खालिस ढंग से परिवार नियोजन की बात करना बेईमानी होगी। इस बाबत लेखक संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन और केरल तथा उतर प्रदेश की महिलाओं के ठोस आंकड़ों के आधार पर अपने तर्क की पुष्टि करते हैं।
इसी प्रकार चौथा अध्याय है : ‘भारतीय मुसलमानों में परिवार नियोजन’। इस अध्याय में लेखक उन तमाम कारणों का आकलन करते हैं जिनके चलते कोई व्यक्ति या समुदाय परिवार नियोजन को अपनाता है। वे सामाजिक-आर्थिक कारणों को सबसे महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं। इनमें गरीबी, रोजगार, शिक्षा का स्तर, शादी की उम्र, स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता, सेवा प्रतिपादन में भागीदारी, परिवार नियोजन की जरूरतें पूरी न होना जैसे ठोस कारण हैं। इनमें धार्मिक कारण न्यूनतम भूमिका अदा करते हैं। इस अध्याय में मुस्लिम समुदाय की शिक्षा, स्त्री-पुरुष, स्कूल छोड़ने वालों का प्रतिशत सभी धार्मिक समुदायों में सबसे ज्यादा है। स्कूल में दाखिला, गरीबी, बैंकों से मिलने वाला कर्ज, कामगार आबादी का अनुपात, कामकाजी महिलाओं की रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी जैसे अहम सवालों का ठोस सरकारी आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया गया है। इन तमाम विश्लेषण में मुस्लिम समुदाय को फिसड्डी पाया गया है। इसके लिए लेखक ने सच्चर कमिटी की रपट और उसके के ठोस आंकड़ों और उनके माध्यम से उठाए गए सवालों को भी दुहराते हैं।
पांचवां अध्याय ‘इस्लाम के धर्म सिद्धान्त और परिवार नियोजन’ है। प्रायः मुसलमानों और उनके धर्म ‘इस्लाम’ को लेकर कई आरोप लगाए जाते हैं, इनमें इस्लाम को परिवार नियोजन का विरोधी बताया जाता है, वहीं इस्लाम को बहु विवाह का समर्थक भी सिध्द करने की कोशिश होती है। इन्हीं गलत धारणाओं की वजह से समान नागरिक संहिता की मांग उठाई जाती है। शीर्षक से ठोस इस्लामिक धारणाओं, सिद्धान्तों के आधार आकलन किया गया है। इनमें प्रमुख हैं कुरान, हदीस और सुनन्त। इस अध्याय में पवित्र कुरान की आयतों और हदीस की रोशनी में इन तमाम सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की गई है।
छठा अध्याय ‘मुस्लिम देशों में जनसंख्या नीति’ शीर्षक से है। इसमें इस्लामिक देशों, जहां आधिकरिक रूप से इस्लाम धर्म के सिद्धांतों के अनुसार शासन व्यवस्था है उनकी जनसंख्या नीतियों का आकलन किया गया है। ये प्रमुख देश हैं नाइजीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मिस्र, सऊदी अरब, बांग्लादेश, तुर्की, मलेशिया और ईरान। इसी प्रकार सातवां अध्याय परिवार नियोजन के प्रति सभी धर्मों के नजरियों का आकलन करता है ताकि दकियानूसी प्रोपगेंडा का पर्दाफाश किया जा सके। प्रायः परिवार नियोजन को लेकर जो बहस है उसका फोकस मुसलमानों पर ही है, परिवार नियोजन को मंजूर न करने वाले धर्मों पर चर्चा नहीं होती। इस अध्याय में इन्हीं बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है।
आठवां अध्याय ‘जनसंख्या की राजनीति’ है। इसमें लेखक यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि दक्षिणपंथ द्वारा मुस्लिम जनसंख्या को लेकर मिथकीय और गलत धारणाओं को बढ़ावा दिया गया। उनके द्वारा किये जाने वाले इस कार्य में उनका छिपा हुआ एजेंडा है, यह ध्रुवीकरण की राजनीति के तहत किया जाने वाला दुष्यप्रचार है। लेखक कहते हैं कि इस दक्षिणपंथी प्रचार को दशकों तक चुनौती नहीं दी गई, जिसके कारण प्रायः हिन्दू मानस में मुस्लिम समुदाय के प्रति गलत धारणा बैठा दी गई है। इस गलत धारणा के प्रति बहुसंख्यक हिंदुओं के विचार को साफ करने की जरूरत है ताकि दोनों समुदायों के बीच बेहतर समझ और सद्भावना विकसित हो सके।
पुस्तक का आठवां और अंतिम अध्याय ‘आगे की राह है’। इस अध्याय में लेखक द्वारा विश्लेषण के पश्चात जो तथ्य उभरते हैं, उनसे सीख लेते हुए यह जरूरी है कि दोनों समुदायों के बीच जनसंख्या के मिथ्य और दुष्प्रचार को रोका जाय। बहुसंख्यक समुदाय के मन में मुस्लिम समुदाय के प्रति बन रही गलतफहमियों को विराम दिया जाय।पुस्तक लिखने के पीछे लेखक की मंशा दोनों समुदायों में गलत धारणाओं को ठोस तथ्यों के आधार पर खारिज करना है तथा आपसी प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देना है। किताब में दो-दो भूमिका देखने को मिलती है, अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक की भूमिका स्वयं एस.वाई. कुरैशी की है तथा हिंदी संस्करण की भूमिका पुष्पेश पंत ने लिखी है। हरिमोहन मिश्र के अनुवाद में प्रवाह है, ऐसा लगता है मानो यह किताब मूलतः हिंदी में ही लिखी गई हो।
किताब – जनसंख्या का मिथक
लेखक – एस. वाई. कुरैशी
अनुवादक – हरिमोहन मिश्र
प्रकाशन – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65
नोएडा – 201301
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