— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक और स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आज 14 नवंबर को 134वीं जयंती है। 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिलने के बाद वे प्रधानमंत्री बने और 1952, 1957 तथा 1962 के लोकसभा चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भारी जीत के बाद भारत के लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बने और 27 मई 1964 को निधन होने तक देश के प्रधानमंत्री रहे। प्रधानमंत्री के रूप में किए गए उनके कार्यों में भारत को एक लोकतांत्रिक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष देश बनाने की उनकी कोशिश सर्वोपरि है। आजादी के साथ विभाजन की त्रासदी और उसके बाद भारत के नवनिर्माण की चुनौतियों के बीच आधुनिक भारत की आधारशिला रखने में नेहरू के नेतृत्व को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के तीन तत्त्वों को अपनी पूरी ताकत के साथ स्थापित करने की कोशिश की। पहला, आधुनिक भारत में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और ना ही धर्म के आधार पर किसी को कोई विशेषाधिकार प्राप्त होगा । दूसरा, आधुनिक भारत में वर्ण-जाति एवं लिंग के आधार पर भेदभाव करने के लिए कोई स्थान नहीं होगा। तीसरा, भारत दुनिया की किसी महाशक्ति की कठपुतली नहीं बनेगा यानी अपनी स्वतंत्रता एवं संप्रभुता से कभी कोई समझौता नही करेगा।
देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लोकतांत्रिक संवाद करने की परंपरा की शुरुआत की और उसके लिए नियमित रूप से पत्र के माध्यम का सहारा लिया। उन्हें लगता था कि संवाद के द्वारा केंद्र और प्रांतों की सरकारों में आपसी विश्वास बढ़ेगा। यही कारण था कि स्वतंत्रता के बाद से ही नेहरू प्रधानमंत्री के रूप में मुख्यमंत्रियों को विभिन्न समस्याओं के संबंध में पाक्षिक चिट्ठियां लिखा करते थे और यह सिलसिला अक्तूबर 1947 से प्रारंभ होकर दिसंबर 1963 तक अर्थात् उनकी मृत्यु के कुछ महीने पहले तक चलता रहा। वे इन चिट्ठियों में देश के सामने मौजूद विभिन्न चुनौतियों के विषय में मुख्यमंत्रियों से संवाद किया करते थे। एक बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक तथा बहुभाषाई, काफी विविधतापूर्ण समाज को नेहरू एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में दुनिया के मानचित्र पर देखना चाहते थे। वे मुस्लिम लीग के द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को सैद्धांतिक रूप से गलत मानते थे किंतु भारी हिंसा और सांप्रदायिक रक्तपात के कारण, स्वतंत्र भारत के विभाजन के धार्मिक आधार को नेहरू और कांग्रेस कार्यसमिति की, विवशता में सहमति मिल गई। लेकिन नेहरू कभी भी धर्म के आधार पर राष्ट्र के निर्माण के हिमायती नहीं थे बल्कि घोर विरोधी थे। यही कारण है कि जब देश का विभाजन हो गया और धर्म के नाम पर पाकिस्तान बन गया तो भारत में रह गए मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की चिंता उन्हें सबसे ज्यादा सताती रहती थी। परिणामतः मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर नेहरू ने आजादी के बाद राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर अल्पसंख्यकों की रक्षा सुनिश्चित करने के विषय में आग्रह भी किया और उन्हें राज्य-कर्तव्यबोध भी कराया।
नागरिकों के जीवन की रक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है और जब एक देश धर्मनिरपेक्ष राज्य होता है तो धार्मिक या भाषाई आधार पर अल्पसंख्यकों के जीवन की रक्षा राज्य की गुरुतर जिम्मेदारी हो जाती है।
इसलिए नेहरू निरंतर अपने पत्रों में मुख्यमंत्रियों को अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की प्रशासनिक जिम्मेदारी का एहसास कराते रहते थे और उन्हें अन्य नागरिकों की तरह समान अधिकार का बोध कराने के लिए आग्रह किया करते थे। वह मानते थे कि दुनिया में भारत को अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए तथा उन्हें विकास के समान अवसर देने की भारतीय राज्य की जिम्मेदारी को विश्व में उजागर करना है ताकि विश्व समाज में, विभाजन के बाद की स्थितियों को लेकर, भारत के प्रति जो आशंकाएं पैदा हुई हैं उन्हें दूर किया जा सके और भारत के नवनिर्माण में दुनिया के देशों से विभिन्न प्रकार की सहायता लेने की कोशिश की जा सके।
आजादी के लगभग 2 महीने बाद 15 अक्टूबर 1947 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में प्रधानमंत्री नेहरू ने लिखा कि हमें अल्पसंख्यकों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए, उन्हें सुरक्षा देनी चाहिए और एक लोकतांत्रिक राज्य में उनके नागरिक अधिकार को सुनिश्चित करना चाहिए। यदि हम ऐसा करने में विफल रहते हैं तो ऐसा जख्म बनेगा जो पूरी राजनीति को जहरीला बना देगा ,और संभव है विनाश कर देगा। इतना ही नहीं नेहरू ने अपने इसी पत्र में इस बात का भी ध्यान भी दिलाया है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमें अविश्वास से देखा जा रहा है और हमें अंतरराष्ट्रीय जगत की इस भावना को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। हमारा देश अपनी बहुत सारी जरूरतों के लिए अंतरराष्ट्रीय सद्भाव पर निर्भर है। इतना ही नहीं, उनकी मान्यता थी कि नैतिक सवालों के अतिरिक्त आत्महित में भी,अल्पसंख्यकों के प्रति समान व्यवहार करके विश्व जनमत को जीतना चाहिए। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को बताया कि किस प्रकार हमें जनता में अपनी नीतियों को रखना चाहिए। मुख्यमंत्रियों से उन्होंने यह भी कहा कि यह निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूं कि आप किस प्रकार से ऐसा करेंगे क्योंकि यह स्थानीय कारकों पर निर्भर करता है। उन्होंने अपने पत्र में आगे कहा कि लोक सेवाओं को कैसे सांप्रदायिक राजनीति से अलग रखना है। लोक नीतियों को लागू करने में सरकारी अधिकारियों को किसी प्रकार की ढील नहीं देनी चाहिए खासकर अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार के मामले में एक उचित और सही आचरण की बहुत आवश्यकता है।
7 दिसंबर, 1947 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में नेहरू ने विशेष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के विषय में प्राप्त रिपोर्ट का उल्लेख किया और बताया कि उन्हें ऐसी सूचना मिली है कि कुछ प्रांतों में निवारक आदेश के बावजूद आरएसएस के द्वारा प्रदर्शन किया गया और अधिकारियों ने कोई कार्रवाई नहीं की। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को चेताया कि ऐसी अवहेलना के भयानक परिणाम हो सकते हैं।
नेहरू ने आरएसएस के विषय में बताया कि यह ऐसा संगठन है जिसकी प्रकृति निजी सेना जैसी है। उन्होंने आरएसएस को नाजियों की तरह कार्य करने वाला संगठन कहा। उन्होंने प्रांतीय सरकारों से सावधान रहने को कहा और जरूरी होने पर आवश्यक कदम उठाने को कहा।
प्रधानमंत्री नेहरू ने 30सितंबर 1953 को लिखे एक और पत्र में मुख्यमंत्रियों को यह भी समझाया कि बहुमत समूह के द्वारा दूसरे समूह पर थोपने से आंतरिक कलह हो सकता है जो बाह्य संघर्ष जितना ही बुरा है। मूलतः प्रधानमंत्री के इन पत्रों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की चिंता के साथ-साथ उनकी प्रशासनिक दूरदर्शिता दिखाई देती है और लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत की चुनौतियों की ओर ठोस इशारा भी।
प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के सामने जब आधुनिक लोकतांत्रिक भारतीय राष्ट्र की नींव डालने और उसे पल्लवित पुष्पित करने का कार्यभार उपस्थित हुआ तो उनके सामने चुनौतियों के कई पहाड़ थे। इनमें सबसे बड़ी चुनौती जाति विभाजित भारत को एक धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोकतंत्र के रूप में स्थापित करना था। भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के आधार पर भारत-पाकिस्तान के रूप में बंटवारे और इस दौरान हुए सांप्रदायिक दंगों के चलते पैदा हुई धार्मिक नफरत ने इस कार्य को बहुत ही मुश्किल बना दिया था।
कांग्रेस के भीतर और कांग्रेस के बाहर ऐसे ताकतवर व्यक्तित्व एवं संगठन मौजूद थे जो पाकिस्तान के मुस्लिम राष्ट्र बनने की तर्ज पर, भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे।
भारत के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद का हिंदुत्व प्रेम और हिंदू धर्म के प्रति खुला सार्वजनिक झुकाव जगजाहिर तथ्य रहा है। उनकी विचारधारा अनुदारवादी हिंदू विचारधारा थी। नेहरू, राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में नहीं थे। दूसरी बार जब वह राष्ट्रपति बने तो नेहरू ने उनका विरोध किया था। राष्ट्रपति के रूप में काशी में ब्राह्मणों के पाँव धोने पर नेहरू ने कड़ी आपत्ति जताई थी। राजेंद्र प्रसाद, हिंदू महिलाओं को समता का अधिकार दिलाने वाले हिंदू कोड बिल के विरोध में खड़े थे जबकि नेहरू और आंबेडकर इस बिल को पास कराने के मामले में एकसाथ थे। वे सारे तथ्य अब जगजाहिर हैं।
सरदार वल्लभभाई पटेल का हिंदूवादी दक्षिणपंथी झुकाव भी बार-बार सामने आता रहता था जिसकी खुली अभिव्यक्ति सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में उनकी भूमिका के रूप में सामने आई और जिसका 1951 में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने उदघाटन किया। उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और बाद में देश के गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत दक्षिणपंथी विचारधारा खुलेआम प्रकट करते थे। अब यह सत्य है कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी सहमति और अनौपचारिक अनुमति के बाद ही बाबरी मस्जिद में 23 दिसंबर 1949 को राम की मूर्ति रातो-रात रखी गई जो आज सबके सामने भाजपा के लिए भारत की सत्ता पर कब्जा करने का आधार बनी।
संविधान सभा के सदस्यों में कांग्रेस पार्टी के ताकतवर नेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी खुले तौर पर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा के प्रवर्तक थे। आधुनिक भारत में हिंदुत्व के पुनरुत्थान के पहले प्रतीक सोमनाथ मंदिर के तथाकथित कार्यक्रम के सबसे बड़े कर्तव्य में सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद का खुला समर्थन प्राप्त था। इन तीनों ने मिलकर सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार नेहरू के धर्मनिरपेक्ष आधुनिक भारत की अवधारणा को चुनौती देते हुए किया था। इन तीनों की कांग्रेस पर मजबूत पकड़ थी और कांग्रेस में इनके बहुत सारे समर्थक थे।कांग्रेस के संगठन पर तो सरदार पटेल का करीब-करीब पूर्ण नियंत्रण था।
कांग्रेस के बाहर हिंदू महासभा और आरएसएस भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए पूरा जोर लगाए हुए थे। पाकिस्तान के बंटवारे, सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर शरणार्थियों के आगमन ने धार्मिक घृणा एवं वैमनस्य को और बढ़ा दिया था। इसे कांग्रेस के अंदर और बाहर से हवा भी दी जा रही थी यानी कांग्रेस के भीतर और बाहर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी ताकतवर रुझान दिख रहा था।
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के सबसे ताकतवर लोगों में एकमात्र नेहरू थे जो आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में पूर्ण विश्वास करते थे। हां उनके मंत्रिमंडल एवं संविधान सभा में आंबेडकर और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कुछ अन्य लोग भी थे और इनका उन्हें समर्थन प्राप्त था लेकिन अधिकांश निर्णय पहले कांग्रेस के केंद्रीय निकाय में होते थे जहां अक्सर नेहरू अकेले पड़ जाते थे या अल्पमत में होते थे। कांग्रेस के शीर्ष केंद्रीय निकाय में निर्णय हो जाने के बाद उसे कैबिनेट एवं संविधान सभा में रखा जाता था।
धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोकतांत्रिक भारतीय राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता का एक बड़ा कारण नेहरू की वैज्ञानिक सोच में था जिसमें धर्म और ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। समाजवादी नेहरू लोकतंत्र के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के संचालन में धर्म एवं ईश्वर को कोई स्थान देने के पक्ष में नहीं थे। वह आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों की तरह धर्म को व्यक्तिगत आस्था तक सीमित करने के पक्ष में थे। उन्हें कांग्रेस के भीतर सिर्फ हिंदू-मुसलमान एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के मामले में ही नहीं जूझना था। कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथी धड़ा वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता में भी विश्वास रखता था जिसकी भारतीय समाज में गहरी जड़ें थी। नेहरू जाति एवं पितृसत्ता से नफरत करते थे, भले ही उन्हें इसका गहरा अहसास ना रहा हो। वर्ण-जाति व्यवस्था भारतीय समाज की नाभि है और उसकी जड़ें भीतरी तहों तक धंसी हुई है। इस तथ्य को उन्होंने अपने एक अंतिम साक्षात्कार में स्वीकार भी किया कि वे भारतीय समाज में जाति के कारक का ठीक से एहसास नहीं कर पाए, बावजूद इसके, आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति होने के चलते वे वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे और आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में उसे किसी रूप में स्वीकृति देने को तैयार नहीं थे। जबकि कांग्रेस के भीतर ही मजबूत दक्षिणपंथी धड़ा वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसता को समर्थन देने वाले हिंदू धर्मग्रंथ को समर्पित था।
देश के दूसरे राष्ट्रपति राधाकृष्णन भी इसमें शामिल थे। इस मामले में नेहरू, आंबेडकर के साथ खड़े थे। भले ही उन्हें कांग्रेस के दक्षिणपंथी धड़ों के दबाव में कई बार पीछे हटना पड़ा। हिंदू कोड बिल भी इसका एक उदाहरण है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में धर्म के साथ वर्ण-जाति एवं पितृसत्ता निरपेक्षता भी शामिल थी। इसका सबूत उनके नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा प्रस्तुत भारत के संविधान की प्रस्तावना है।
जवाहरलाल नेहरू के सामने चुनौती कांग्रेस के भीतर और बाहर के विगत हालात तथा विपरीत परिस्थितियों में एक आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की नींव रखने की थी और वह इसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसा संविधान तैयार करवाने की थी जो हर तरह की उन आस्थाओं और विचारों से मुक्त हो जो किसी भी व्यक्ति की मानवीय गरिमा को चोट पहुंचाता हो भले ही वह विचार एवं आस्था चाहे किसी धर्म, समुदाय एवं जाति विशेष को कितना ही प्रिय क्यों न हो।
नेहरू द्वारा प्रस्तुत संविधान की प्रस्तावना को देखें तो उसमें मानवीय गरिमा पर बहुत जोर है। नेहरू को यह अच्छी तरह एहसास था कि मानवीय गरिमा की स्थापना न्याय और समता पर आधारित समाज के निर्माण की अनिवार्य शर्त है। इसमें धर्म, जाति, लिंग, भाषा एवं क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव न हो। आंबेडकर की तरह नेहरू भी राजनीतिक और सामाजिक समता के साथ आर्थिक समानता भी चाहते थे।
नेहरू, आंबेडकर से निरंतर संवाद और तालमेल करते हुए भारत को एक ऐसा आधुनिक संविधान देने में सफल रहे जिसमें मध्यकालीन आस्थाओं के लिए कोई जगह ना हो। संविधान बन जाने के बाद उनके सामने सबसे बड़ा कार्यभार था उसे हकीकत में बदलना। नेहरू प्रधानमंत्री रहते हुए आजीवन एक आधुनिक भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध बने रहे, उन्होंने अनेक आधुनिक तथा वैज्ञानिक संस्थाओं के लिए आवश्यक औद्योगीकरण की शुरुआत की और भारत को मजबूत आर्थिक आधार देने की कोशिश की।
जिस कश्मीर के लिए संघ-भाजपा नेहरू को कोसते रहते हैं, भारत के साथ उस कश्मीर को बनाए रखने का सर्वाधिक श्रेय भी नेहरू को जाता है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और उनके लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर उन्मुख व्यक्तित्व ने ही शेख अब्दुल्ला को नेहरू की ओर खींचा और अब्दुल्ला ने भारत के साथ रहने का निर्णय लिया। शेख अब्दुल्ला ने धर्म आधारित पाकिस्तान की तुलना में नेहरू के धर्मनिरपेक्ष भारत में रहना पसंद किया। शेख अब्दुल्ला सोशलिस्ट भी थे और उनके व्यक्तित्व के इस पहलू ने उन्हें नेहरू के समाजवादी भारत के स्वप्न के करीब ला खड़ा किया।
देश की स्वतंत्रता एवं संप्रभुता के बनाए रखने की चुनौती को भी नेहरू ने स्वीकार किया। हम सभी जानते हैं कि ब्रिटिश सत्ता ने भारत को भले ही राजनीतिक सत्ता का स्थानांतरण 1947 में कर दिया था लेकिन नेहरू को यह अच्छी तरह साफ था कि भारत को राजनीतिक, आर्थिक तौर पर उपनिवेशवाद की विरासत से पूरी तरह से मुक्त करने का कार्यभार अभी बाकी है। उनके सामने विश्व समुदाय के उदाहरण मौजूद थे जिसमें सद्य आजादी पाने वाले देशों ने आंतरिक एवं बाह्य कारणों से अपनी आजादी खोकर किसी न किसी साम्राज्यवादी देश के नवउपनिवेश बनना स्वीकार कर लिया था।
नेहरू के सामने एक तात्कालिक कार्यभार था कि भारत को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में कायम रखना और उसे सशक्त बनाते जाना। इसके लिए उन्होंने न केवल गुटनिरपेक्षता का रास्ता चुना बल्कि वैश्विक स्तर पर गुटनिरपेक्ष देशों का एक समूह बनाने के प्रयासों की अगुवाई भी की जिसमें उनको पूरी तरह सफलता मिली और भारत इस महाशक्ति या उस महाशक्ति की कठपुतली बनने की जगह संप्रभु देश के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रख सका। आज भी भारत की संप्रभुता दुनिया में कायम है तो इसका सर्वाधिक श्रेय नेहरू को जाता है। आज भले ही यह संप्रभुता खतरे में दिखाई दे रही है और हमारी राष्ट्रवादी मोदी सरकार चीन को चुनौती देने में सफल नहीं हो रही है।
नेहरू ने विकट और विपरीत परिस्थितियों में आधुनिक भारत की नींव डाली। उन्हें गैरों की तुलना में कांग्रेस के भीतर की दक्षिणपंथी ताकतों से अधिक जूझना पड़ा। आधुनिक नेहरू ने जिन विचारों और मूल्यों के आधार पर आधुनिक भारत की नींव रखी, संघ-भाजपा को उन विचारों और मूल्यों से बिल्कुल उलट भारत का निर्माण करना है। इसमें नेहरू की विरासत उन्हें बाधा की तरह लगती है।
नेहरू के आधुनिक मूल्यों पर आधारित भारत की जगह भाजपा और संघ मध्यकालीन मूल्यों पर आधारित भारत बनाना चाहते हैं और यही कारण है कि नेहरू के योगदान को वे लगातार नकारने की कोशिश करते हैं।
आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की स्थापना में नेहरू की अहम भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता और ना ही इस बात से इनकार कर सकता है कि आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों-मूल्यों के बिना भारत क्या दुनिया का कोई भी देश स्वतंत्र और समृद्ध नहीं हो सकता।