— नारायण देसाई —
गांधी के आश्रमों, साबरमती और सेवाग्राम, में मैंने अपने जीवन के आरंभिक बाईस साल बिताए। अगर धार्मिक शब्द को व्यापक अर्थ में लें, तो दोनों आश्रमों का माहौल धार्मिक ही था। हमारे दिन की शुरुआत प्रार्थना से होती थी और शाम को समापन भी प्रार्थना से। हर बार भोजन से पहले छोटी-सी ईश-वंदना की जाती थी। हर सभा, आश्रम के जीवन में हर बड़े आयोजन से पहले प्रार्थना होती थी। ‘आश्रम’ शब्द स्वयं में धार्मिक व्य़ंजना लिये हुए है। अधिकतर आश्रमवासी निष्ठावान धार्मिक थे, अलबत्ता वे भिन्न-भिन्न धर्म से ताल्लुक रखते थे। ज्यादातर आश्रमवासी हिंदू धर्म, इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले थे।
गांधी की अपनी पृष्ठभूमि बहुत हद तक धार्मिक थी। वे हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा को मानने वाले परिवार में पले-बढ़े। उनकी माँ, बचपन में जिनका उन पर सबसे गहरा असर पड़ा था, बहुत धर्मपरायण थीं। उनके पिता भिन्न-भिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं को बुलाते, उनका आदर-सत्कार करते और उनसे अपने-अपने धर्म का तत्त्वज्ञान बताने का अनुरोध करते। गांधी ने इंग्लैंड में, जब वे युवा थे, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू किया था और पैगंबर मोहम्मद का जीवनचरित भी पढ़ा। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने विभिन्न धर्मों के बारे में गहराई से अध्ययन शुरू किया और फिर यह सिलसिला जीवन के अंत तक जारी रहा। इसलिए जब वे भारत लौटे, तो उनके धार्मिक विचार पहले ही परिपक्व हो चुके थे।
धर्म से गांधी का आशय नियमित रूप से मंदिर जाना नहीं था, न ही इसका अर्थ रोज प्रार्थना करना या धार्मिक पुस्तकें पढ़ना था। धर्म गांधी के लिए अपने विश्वास से ताल्लुक रखता था- ईश्वर, उसकी सृष्टि और उनके साथ मनुष्य के रिश्तों में विश्वास। यह भीतर उनके अंतरतम से संबंधित था और बाहर अन्य मनुष्यों, प्रकृति और जीव-जगत से।
‘धर्म’ शब्द का भारतीय भाषाओं में संगठित या संप्रदायगत धर्म की तुलना में बहुत गहरा अर्थ रहा है। संस्कृत में ‘धर्म’ शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है जिनमें से मुख्य अर्थ इस प्रकार हैं –
- धार्मिक आस्था जैसे हिंदू धर्म, इस्लाम या ईसाइयत
- कर्तव्य
- धारण-शक्ति
- सदाचार
- पदार्थ का गुणधर्म
गांधी कभी-कभी धर्म शब्द का इस्तेमाल उपर्युक्त में से किसी एक अर्थ में करते थे, पर वे यह भी बताते थे कि उनका अभिप्राय क्या है। अर्थ परिस्थितियों के अनुसार बदल सकता था, पर विभिन्न अर्थों के बीच हमेशा एक संगति जरूर रहती थी। इस सब की जड़ में सत्य को पाने की गांधी की गहरी अभीप्सा थी।
12 मई 1920 के ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने लिखा : ‘‘मैं समझा दूँ कि धर्म से मेरा क्या मतलब है। मेरा मतलब हिंदू धर्म से नहीं है जिसकी मैं बेशक और सब धर्मों से ज्यादा कीमत आँकता हूँ। मेरा मतलब उस मूल धर्म से है जो हिंदू धर्म से कहीं उच्चतर है, जो मनुष्य के स्वभाव तक का परिवर्तन कर देता है, जो हमें अंतर के सत्य से अटूट रूप से बाँध देता है और जो निरंतर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का ऐसा स्थायी तत्त्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहता है और उसे तब तक बिलकुल बेचैन बनाए रखता है जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता, अपने स्रष्टा का ज्ञान नहीं हो जाता तथा स्रष्टा के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं आ जाता।’’
गुजरात विद्यापीठ के एक विद्यार्थी से गांधी ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा : मेरे लिए धर्म का अर्थ है सत्य और अहिंसा, या शायद केवल सत्य, क्योंकि सत्य में अहिंसा समाहित है, उसे खोजने का आवश्यक और अपरिहार्य साधन है।
गांधी का धर्म ईश्वर में उनकी आस्था पर दृढ़ता से आधारित था। गोलमेज कॉनफरेंस के दौरान लंदन में गांधी की मेजबान रहीं म्यूरिएल लेस्टर ने इस बात का जीवंत वर्णन किया है कि कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी के द्वारा एक रिकार्डिंग के लिए कैसे तत्काल, बिना किसी तैयारी के, गांधी ईश्वर पर बोले। लेकिन जो संदेश उन्होंने दिया वह यह दर्शाता था कि वे ईश्वर की अवधारणा पर बोलने के लिए भीतर से पूरी तरह तैयार थे। यह स्पष्ट रूप से अपने ‘स्रष्टा’ के प्रति उनके खयालों को व्यक्त करता हैः
‘‘एक अपरिभाषेय रहस्यमयी शक्ति है जो हर चीज को व्याप्त किये हुए है। हालांकि यह मुझे दीखती नहीं, पर मैं इसे महसूस करता हूँ। मुझे लगता है कि सृष्टि में एक व्यवस्था है, एक अपरिवर्तनीय नियम है जो सारे जीव-जगत को संचालित कर रहा है, हर चीज को, जिसका भी अस्तित्व है या जिसमें भी जीवन है। यह अन्धा नियम नहीं है। क्योंकि कोई भी अन्धा नियम जीवित चीजों के व्यवहार को संचालित नहीं कर सकता और अब तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि पदार्थ में भी जीवन है। तो जो जीवन समस्त जीवन को संचालित करता है वही ईश्वर है। नियम और नियम बनाने वाला, दोनों एक हैं।’’
‘‘मुझे हल्का-हल्का आभास होता है कि हालांकि मेरे चारों तरफ चीजें हमेशा बदल रही हैं, हमेशा नष्ट हो रही हैं, पर सारे सतत परिवर्तन का आधार एक प्राण-शक्ति है जो परिवर्तन से परे है, जो सब कुछ धारण किये हुए है, जो सिरजती है, नष्ट करती है, पुनः सिरजती है…’’
‘‘और यह शक्ति कृपालु है या निर्दय़ी? मैं देखता हूँ कि यह परम कृपालु है। क्योंकि मैं देखता हूँ कि चारों तरफ मृत्यु के बीच जीवन बचा रहता है, चारों तरफ असत्य के बीच सत्य कायम रहता है, चारों तरफ अंधकार के बीच प्रकाश विद्यमान रहता है। इसलिए मेरा निष्कर्ष है कि जीवन, सत्य और प्रकाश है ईश्वर। वह परमेश्वर है।’’
(जारी)
अनुवाद – राजेन्द्र राजन