भ्रष्टाचार से किसे परहेज है?

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— श्रीनिवास —

बेशक भ्रष्टाचार एक महारोग है। देश की एक गंभीर समस्या है, जो कैंसर का रूप लेती जा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन भी होते रहे हैं। एक में तो मैं और मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग भी शामिल थे। फिर भी भ्रष्टाचार का जितना शोर सुनायी देता है, मुझे नहीं लगता कि उस अनुपात में समाज को इससे एलर्जी है।

कानून के अनुसार तो भ्रष्टाचार का आरोप सिर्फ लोकसेवक, यानी व्यवस्था के तीनों अंगों के वेतनभोगियों और लाभार्थियों पर ही लग सकता है। मगर ‘भ्रष्ट आचरण’ के दायरे में तो हम सभी आ जाते हैं। इस दृष्टि से खुद के और आसपास के लोगों के आचरण पर गौर करने के बाद नतीजा निकालें कि सचमुच कितनों को इससे परहेज है!

कानूनी भ्रष्टाचार से ही कितने लोग मुक्त हैं और कितनों को सचमुच इससे एलर्जी है? चपरासी हो, किरानी हो या सिपाही, बीडीओ हो या दारोगा या उससे ऊपर का कोई अधिकारी, यदि वह भ्रष्टाचार करता है (ध्यान रहे कि अधिकतर का यह अपराध उजागर भी नहीं होता और होता भी है तो बहुत कम को सजा हो पाती है), तो क्या उसकी नाजायज अवैध कमाई का पूरा मजा उसका परिवार नहीं लेता? किसे नहीं पता होता है कि उसका पति, उसका भाई, चाचा, बेटा, साला, दामाद आदि घूस लेता है! मगर उनमें से कितने अपने भ्रष्ट रिश्तेदार से संबंध तोड़ लेते हैं? पुलिस में शिकायत करने की बात तो छोड़ ही दें। “हमारे बेटे या दामाद का वेतन तो कम ही है, पर ‘ऊपरी’ कमाई ठीक-ठाक है”- गर्व से ऐसा कहने वाले के लिए भ्रष्टाचार कोई अपराध या पाप हो सकता है? मगर कमाल कि पैरवी और घूस देकर नौकरी हासिल करने, अच्छे शिक्षण संस्थानों में एडमिशन करा लेने वाले भी भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने में कोई कोताही नहीं करते!

विरल अपवादों को छोड़कर हमारे सभी जन प्रतिनिधि, यानी विधायक और सांसद (मुखिया-सरपंच की बात फिलहाल छोड़ दें) चुनाव में तय सीमा से अधिक खर्च करने के बाद खर्च का गलत और झूठा प्रमाणपत्र देकर संसदीय जीवन की शुरुआत करते हैं। फिर वे मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनते हैं। और वही समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगते हैं!

अपवादों को छोड़कर सभी विधायक और सांसद क्रमशः विधानसभा और संसद की कमेटियों के सदस्य रहते हुए गलत प्रपत्र भर कर यात्रा आदि के नाम पर नाजायज पैसा ले लेते हैं।

अपवादों को छोड़ कर सभी सरकारी कर्मचारी, खासकर अधिकारी, सरकारी वाहनों का इस्तेमाल निजी जरूरतों के लिए करते हैं। सरकारी दौरे पर, सरकारी खर्च पर सपरिवार तीर्थाटन और पर्यटन करते हैं।

जिनसे समाज के नैतिक पहरेदार होने और भ्रष्टाचार को उजागर करने की उम्मीद की जाती है, उस पत्रकार बिरादरी का हाल हम देख ही रहे हैं। गिने-चुने अपवादों और मुफस्सिल पत्रकारों को छोड़ दें, तो पत्रकारिता भी लगभग दुकानदारी में तब्दील हो चुकी है। झूठी और प्लांटेड खबरें परोसी जा रही ही हैं। बिकने के अलावा सत्ता की चाटुकारिता चरम पर है. इसे क्या अनैतिक और भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में नहीं गिना जाएगा?

दिवंगत कमाल ख़ान जैसे कितने पत्रकार होंगे, जो अपने चैनल के खर्च पर हज यात्रा कवर करने गए थे, लेकिन हज के लिए निजी धार्मिक क्रियाकलाप करने का लोभ नहीं किया?

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि जब किसी बादशाह ने एक आदतन भ्रष्ट कर्मचारी को सजा न देकर नदी किनारे लहर गिनने के काम पर लगा दिया (यह सोचकर कि इस काम में घपला कैसे करेगा), तो वह कर्मचारी लहर गिनने में बाधा पड़ने के बहाने व्यापारी नावों से पैसा वसूलने लगा था। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’ भी इसी समाज की कहानी है।

और सुनने-पढ़ने में जितना बुरा लगे, विचित्र किंतु सत्य यह भी है कि हम अपने देवी देवताओं को भी घूसखोर, खुशामदपसंद मानते हैं। तभी तो मंदिरों-दरगाहों पर इतना चढ़ावा चढ़ाता है। मन्नत मानी जाती है। परीक्षा पास करने से लेकर नौकरी पाने, संतान प्राप्ति से लेकर अच्छा जीवनसाथी पाने के लिए भी देवताओं की चिरौरी की जाती है। इसलिए कि श्रद्धालु मानते हैं कि देवता इससे प्रसन्न होकर उनकी कामना पूरी कर देंगे।

कामना पूरी होती है या नहीं, इस बात को छोड़ दें। लेकिन जो समाज मानता है कि इन शार्टकट तरीकों से सफलता हासिल करना नाजायज कमाई करना गलत नहीं है, कि ‘भगवान’ भी इन तरीकों से खुश होता है, उस समाज का भ्रष्टाचार के प्रति प्रकट रोष कितना असली होगा?

वैसे यह मानसिकता विश्वव्यापी है कि हम जैसे भी हैं, देश के उच्च पदों पर आसीन लोग ईमानदार हों। इस लिहाज से अपने आचरण में पूरी तरह ईमानदार नहीं रहने वाले आम आदमी की सत्ता पर काबिज भ्रष्ट लोगों से नाराजगी में बहुत विरोधाभास नहीं है। इसी कारण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में आम आदमी, खासकर मध्यम वर्ग का आक्रोश समय समय पर दीखता भी है। मगर विडंबना यह कि ऐसे आंदोलनों के बाद सत्ता तो बदल जाती है, पर तंत्र के अंदाज में बहुत अंतर नहीं आता।

फिर भी इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि भ्रष्ट आचरण की जड़ में झूठ और स्वार्थ होता है। अनैतिकता होती है। और अपवादों को छोड़कर हमें बचपन से ही झूठ बोलना सिखाया जाता है। अंधविश्वास को सच मानना सिखाया जाता है। बच्चों का होमवर्क गार्जियन कर देते हैं और बच्चा उसे दिखाकर अच्छे नंबर पा लेता है।

हमारे जमाने में ‘गृह कार्य’ के लिए भी नंबर मिलता था। बच्चे घर के किसी बड़े से बनवाकर या बाजार से खरीद कर झाडू, पंखा आदि ले जाते थे। शिक्षक भी खूब समझते थे, लेकिन इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता था। इसी बहाने सबों को कुछ उपयोगी सामान मिल जाता था। न भी मिलता हो, लेकिन ‘परीक्षा’ का कोटा पूरा हो जाता था। भले बच्चा कुछ नहीं सीख सका। बिहार में मैट्रिक की परीक्षा के दिन तो अद्भुत नजारा होता था। अमूमन हर विद्यार्थी को चोरी कराने के लिए दो-तीन लोग सेंटर के बाहर तैनात होते थे। ऐसे बच्चों से हम बड़े होकर कैसी नैतिकता की उम्मीद कर सकते हैं। बेशक जरूरी नहीं कि ऐसे सभी बच्चे बेईमान ही बनते हैं। लेकिन वे ईमानदार भी बनते हैं तो स्वतः प्रेरणा से। समाज में उसकी ईमानदारी का भी खास सम्मान नहीं होता।

जरा याद करें कि हमारे गांव, शहर और मुहल्ले में जो आलीशान मकान होता है, यह जानते हुए कि वह किसी भ्रष्ट अफसर या बेईमान ठेकेदार, दलाल या टैक्सचोर व्यापारी का है, हम उनसे नफरत करते हैं या ईर्ष्या? किसी सामाजिक या धार्मिक आयोजन में उनसे चंदा ही नहीं लिया जाता, बहुधा उनको मंच पर जगह भी मिलती है, मुख्य अतिथि भी बनाया जाता है! यह भ्रष्ट आचरण को हासिल सामाजिक स्वीकृति का द्योतक नहीं है?

इसका मतलब यह नहीं कि मैं भ्रष्टाचार को कोई समस्या नहीं मानता या इसके खिलाफ आंदोलन को गैरजरूरी मानता हूँ। या यह कि भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। मगर समाज भ्रष्टाचार मुक्त तभी होगा, जब वह नैतिक होगा। जब व्यक्ति निजी स्वार्थ से ऊपर उठेगा। ईमानदारी कोई बड़ा गुण नहीं होगा, वह हमारा सहज संस्कार होगा। तब भ्रष्टाचार भी अपवाद होगा।

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