— गोपाल राठी —
बात 1994 में हुए पिपरिया विधानसभा चुनाव की है। इस चुनाव में कांग्रेस की ओर से श्री सुरेश राय भाजपा से श्री हरिशंकर जायसवाल तथा समता संगठन की ओर से हमारे युवा साथी श्रीगोपाल गांगुड़ा चुनाव में प्रत्याशी थे।
समता संगठन की स्थापना 1980 में बंगलोर में हुई थी। उस समय से ही समता संगठन की युवा शाखा समता युवजन सभा की पिपरिया में शुरुआत हो गई थी। जनता पार्टी की विफलता से निराश समाजवादियों के इस समूह का मानना था कि बुनियादी परिवर्तन की दृष्टि से मौजूदा राजनैतिक दल अप्रासंगिक हो गए हैं इसलिए देश को इनके विकल्प की जरूरत है। विकल्प के लिए जनता के पास जाना ही एकमात्र कारगर तरीका माना गया। इसलिए समता संगठन ने आगामी दस वर्ष चुनावी राजनीति से दूर रहकर समाज के सबसे वंचित तबके के पास जाने का मार्ग अपनाया। दलित आदिवासी छात्र युवा किसान मजदूर को संगठित कर उनके अधिकार के लिए होशंगाबाद जिले में अनेको आंदोलन हुए। सभी आंदोलनों का स्वरूप शांतिपूर्ण और अहिंसक रहा।
1994 में विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेते समय हम लोगों की आयु 33 – 34 वर्ष थी। समता संगठन प्रत्याशी श्री गोपाल के चुनाव प्रचार के लिए हमारे दिवंगत साथी सुनील ने पिपरिया में आकर मोर्चा सम्हाल लिया था। चुनाव प्रचार का जो तरीका हम देखते आ रहे थे उसके अनुरूप ही हम लोग प्रचार कर रहे थे। मार्ग में आने वाले हर मन्दिर मढिया में प्रत्याशी का भीड़ के साथ जाकर मत्था टेकना और नारियल भेंट करना हमे सामान्य क्रियाकलाप लगता था। इसी तरह जनसम्पर्क के दौरान प्रत्याशी द्वारा मतदाताओं के पांव पड़ना हमें सामान्य शिष्टाचार लगता था।
चुनाव के दौरान ही एक दिन अचानक सुनील भाई ने घोषणा कर दी कि वे अब पिपरिया से जा रहे हैं l सुनील भाई हमारे प्रचार के प्रमुख सूत्रधार थे। उनकी इस घोषणा से प्रत्याशी सहित हम सभी साथी भौचक रह गए। हमने जानने की कोशिश की आखिर अचानक हुआ क्या? चुनाव कार्यालय में ताबड़तोड़ सभी साथियों की मीटिंग बुलाई गई और उसमें सुनील भाई द्वारा की चुनाव छोड़कर जाने की स्थिति पर विचार किया गया। मीटिंग में सुनील भाई को भी बुलाया और उनसे पूछा गया कि चुनाव लड़ने का निर्णय श्री गोपाल का व्यक्तिगत निर्णय नहीं है संगठन चुनाव लड़ रहा है व्यक्ति नहीं। इस पूरी निर्णय प्रक्रिया में आप भी भागीदार रहे हैं। अब बीच चुनाव में आपकी यह घोषणा क्या संगठन के साथ धोखा नहीं है?
सुनील भाई ने बहुत व्यथित होते हुए कहा कि जनता को मूर्ख बनाने के जो हथकंडे दूसरे राजनैतिक दल अपनाते हैं अगर वह हम भी अपनाते हैं तो हम में और उनमें अंतर क्या रह जाएगा? हमें अपना प्रचार कार्य अपने मुद्दों और नीतियों पर केंद्रित करना चाहिए। उससे जितने वोट मिले वही हमारी पूंजी मानी जाएगी।
उन्होंने कहा, धर्म हर व्यक्ति की निजी आस्था का प्रश्न है। इसलिए जनसंपर्क के दौरान मार्ग में आनेवाले हर मन्दिर में मत्था टेक कर घंटी बजाकर आस्था का प्रदर्शन मुझे उचित नहीं लगता। मेरी असहमति के बाद भी यह जारी है। आपको जो पूजा अर्चना करनी हो वो घर से करके निकलें। इस तरह लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आस्था का प्रदर्शन पाखंड है। उनकी दूसरी आपत्ति जनसंपर्क के दौरान मतदाताओं के पांव पढ़ने को लेकर थी। उनका कहना था कि किसी का सम्मान करना और पांव पड़ना दोनों अलग अलग बातें है। उनका कहना था कि चुनाव के दौरान पांव पड़ने की परंपरा स्वार्थ पर आधारित है। इसलिए गधे को बाप बनाने जैसी कहावतें चलीं। चुनाव हम किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र में सार्थक हस्तक्षेप के लिए लड़ रहे हैं इसलिए हमारे आचरण में यह झलकना भी चाहिए।
हम सब लोगों ने सुनील भाई को विश्वास दिलाया कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। हमारे प्रत्याशी श्रीगोपाल रास्ते मे आनेवाले मन्दिर मढिया के सामने रुक कर हाथ जोड़ते और आगे बढ़ जाते थे। मतदाताओं के पांव पड़ने के बजाय विनम्र होकर हाथ जोड़ना, हाथ मिलाना जैसे तरीके हमने अपनाए।
सुनील भाई आज भले ही हमारे बीच न हों लेकिन उनकी इस सीख ने हमें नया नजरिया दिया l हमें गर्व है कि वैकल्पिक राजनीति के इन सूत्रों से हमने अपनी राजनीति शुरू की थी। आज जब कोई प्रत्याशी घर-घर जाकर मतदाताओं के पांव पड़ता है तो हम पहली ही नजर में समझ जाते हैं कि यह जनता को धोखा दे रहा है। कोई प्रत्याशी भीड़ के साथ जाकर हर मन्दिर में घण्टी बजाए तो हम समझ जाते हैं कि यह जनता ही नहीं भगवान को भी धोखा दे रहा है।
गांव समाज में सयानों के होली दिवाली तीज त्यौहार पर पांव पड़ना हमारी संस्कृति है लेकिन चुनावों में मतदाताओं के पांव पड़ना न हमारी संस्कृति है और न शिष्टाचार। यह धोखा है इस बात को हर मतदाता को समझ लेना चाहिए।
प्रखर समाजवादी विचारक अर्थशास्री साथी सुनील समाजवादी जनपरिषद के संस्थापक और नेता थे। हमारे समकालीन हमउम्र सुनील का 2014 में असमय निधन हो गया। एक मित्र और एक नेता के रूप में उन्हें हम समय समय पर स्मरण करते रहते हैं।