आज मधु जी होते तो क्या कर रहे होते?

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— अनिरुद्ध लिमये —

दि मधु जी (मधु लिमये) आज जीवित होते तो वह सौ साल के होते। सोच रहा था कि यदि मधु जी जीवित होते तो आज के इन हालात में वे क्या सोचते, कहते, लिखते, करते?

मेरा यह प्रकट चिंतन तीन मान्यताओं या धारणाओं पर आधारित है। पहली धारणा, इस उम्र में भी मधु जी की बुद्धि और स्मरण-शक्ति उतनी ही पैनी रहती, जैसे कि वो उनके अंतिम दिन तक थी। दूसरी धारणा (चाहे कहिए स्वप्न रंजन)? हालांकि उनके अंतिम दिनों में उनकी सेहत ठीक नहीं थी और शक्ति भी बहुत सीमित हो गयी थी, लेकिन उसकी अपेक्षा आज वो काफी बेहतर होती और वे संगठन का, देशभर दौरा करके लोगों से मिलने का और चर्चा करने का, उनको समझाने का, जुटाने का काम सशक्त रूप से कर पाते। तीसरी धारणा ये कि मैं उनके, यानी अपने पिता के, सोच-विचार को काफी हद तक समझ पाया हूं और वे आज क्या सोचते और करते इसके बारे में काफी सटीक चिंतन करने की क्षमता, काबिलियत रखता हूं।

मैं यह दावा नहीं कर कि जो मैंने लिखा है वो सही है या मधु जी यही सब सोचते और करते, लेकिन मैंने उन्हें करीब से जाना है, उनसे अनेक विषयों पर चर्चा और बहस की है। अतः मेरे इस लेख का उद्देश्य है कि मधु जी की सोच के विषय में जो विचार मैंने पेश किये हैं, वे सबको गहराई से और खुले मन से सोचने के लिए, चर्चा करने के लिए, और मिल-जुलकर आज की समस्याओं का कोई नया कारगर उपाय ढूंढ़ने के लिए प्रेरित करें।

मधु जी देश की अखंडता और और अक्षुण्णता के लिए तथा देश के सभी नागरिकों के हितों में एक सुव्यवस्थित, सुशासित, गणतांत्रिक राज्य संस्था और शासन व्यवस्था बरकरार रहे इसके लिए सदैव लालायित थे। उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता हासिल करने के बाद जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर आदि वरिष्ठ नेताओं का ऐसे संविधान का तथा राज्य संस्था का निर्माण करना, यह उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

यह राज्य संस्था दमनकारी राज्य संस्था नहीं किंतु जनहितकारी राज्य संस्था रहे, जो देश के सभी नागरिकों की (खासकर दुर्बल घटकों की) नागरिक और अन्य स्वतंत्रताओं की, जान-माल की, हितों की रक्षा करे, और सभी को विकास की ओर ले चले, चाहे उन नागरिकों का वंश, धर्म-संप्रदाय, जाति, भाषा इत्यादि कुछ भी हो। और आज संघ परिवार की संघटनाएं और भाजपा की केंद्रीय और राज्य सरकारें, अपनी चुनावी जीत के बलबूते पर, इस संविधान और राज्य संस्था के आवश्यक पहलुओं को कमजोर करने और अंततः नष्ट करने में जुटी हैं।

उपनिषदों से लेकर कबीर और नानक जैसे संतों तक, बादशाह अकबर, दारा शिकोह और छत्रपति शिवाजी महाराज से होकर स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी तक, इस देश की, विशेष तौर पर, भारतीय संस्कृति की परंपरा, अनेक विचारों के और धर्म-संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता और स्वीकार की रही है। इस सहिष्णुता और स्वीकार में ही देश की भलाई है। मधु जी इस सहिष्णुता को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते, न कि अवसरवादिता से भरी अल्पसंख्य या बहुसंख्य समुदायों के तुष्टीकरण की राजनीति।

मधु जी किसी भी विषय या समस्या पर बिना व्यापक अभ्यास किये, बिना लोगों से विचार-विमर्श किये, बिना गहरी सोच के, कुछ नहीं कहते या कुछ नहीं करते। वे लोगों की भावनाओं को ललकारने के बजाय तर्क और तथ्यों के जरिए लोगों को मनवाने की कोशिश करते। हालांकि वे खुद निरीश्वरवादी थे और पूजा-पाठ और धार्मिक विधियों से परे थे, वे आम आदमी के जीवन में धर्म का स्थान खूब समझते थे और धार्मिक और आध्यात्मिक प्रेरणाओं के अच्छे योगदान से बखूबी परिचित थे। इसलिए वे धर्म पर आघात न करते बल्कि तर्क और तथ्यों तथा भारत की सहिष्णु विरासत की मदद से, सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ते।

उनके देहांत के दूसरे दिन अखबार में उनका जो लेख छपा था, उसमें इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि कांग्रेस पार्टी ही राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक तत्त्वों से प्रभावशाली रूप से लड़ सकती है, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के नेताओं और सदस्यों से अपील की थी कि वे अपनी पार्टी को पुनरुज्जीवित करें और स्वतंत्रता-पूर्व के अपने आदर्शवादी रवैए को अपनाएं।

आज मधु जी जीवित होते तो कांग्रेस के पुनरुज्जीवन के लिए भरसक कोशिश तो करते ही, साथ-साथ कांग्रेस के संग मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर अन्य सभी गैर-सांप्रदायिक दलों का गठबंधन बनाने में अगुवाई करते। वे ऐसे गठबंधन को कारगर सामाजिक और आर्थिक न्याय की ओर ले जाने वाली नीतियां अपनाने में मार्गदर्शन करते। खासकर वे आर्थिक और सामाजिक नीतियों का सही मूल्यांकन करके उनमें क्या बदलाव करना जरूरी है, इसकी सही सलाह देते।

वे सिर्फ शिखर और चुनाव की राजनीति छोड़कर सभी विपक्षी दलों को रचनात्मक कार्य तथा सामाजिक और आर्थिक न्याय की खातिर आंदोलन करने के लिए प्रोत्साहित करते, क्योंकि वे भलीभांति जानते थे कि इन दो समस्याओं का हल निकालने की प्रक्रिया में और आंदोलनों में अगर समाज, जनता आकर्षित हो तो सांप्रदायिकता के खिलाफ बड़ा कारगर मोर्चा बन जाएगा। मधु जी कार्यकर्ताओं का और युवाओं का ध्यान अभ्यास, त्याग और चरित्र वर्धन की ओर खींचते ताकि विपक्ष को लंबी लड़ाई के लिए पर्याप्त शक्ति प्राप्त हो।

अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और निरंतर अभ्यास के साथ मधु जी का निष्कलंक चरित्र, उनकी निडरता और दृढ़ निश्चय इन गुणों के चलते वे भाजपा की सरकार पर, उसकी नीतियों पर, उसके षड्यंत्रों पर, तथ्यों के साथ प्रतिदिन हमला बोलते और नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों की भ्रष्टाचार से मुक्त, कार्यक्षम और देशभक्त होने की बनावटी प्रतिमा और जो मनगढ़ंत दावा है उसे ध्वस्त करते, जिसके चलते संघ परिवार को अपनी आक्रामकता भूलकर अपना संरक्षण करने में जुट जाना पड़ता और चुनाव जीतना उनके लिए मुश्किल हो जाता।

मधु जी इस तरह की और कई बातें सोचते, कहते, लिखते, करते, जिनको व्यक्त करने कई पन्ने लिखने पड़ें। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे अन्याय के सामने कभी भी न डरते। न झुकते।

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