— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
आज भारत एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था है, इसमें बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का अभूतपूर्व योगदान है। स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक संविधान के निर्माण में संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका स्वतंत्र भारत के इतिहास में सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित है। एक दलित परिवार में जन्म लेकर तमाम विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का मुकाबला कर भारत के संविधान निर्माता से लेकर पहले कानून मंत्री पद तक पहुंचना घोर जातिगत तथा आर्थिक विषमता वाले देश में किसी चमत्कार से कम नहीं लगता। किन्तु यह कोई दैवीय चमत्कार नहीं, डॉ भीमराव आम्बेडकर की कड़ी मेहनत, सतत लगन और अद्भुत मेधा का परिणाम था।
देश-विदेश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और कानून में उच्च डिग्री प्राप्त करना बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण बुद्धि का ही प्रतिफल था।
आज भारत संसार का विशालतम क्रियाशील लोकतंत्र है और उत्तर-औपनिवेशिक जगत में इने-गिने देशों में है जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था, 1975-77 के 19 महीनों के आंतरिक आपातकाल को छोड़कर, निरंतर क्रियाशील है। नागरिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, कानून का शासन, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार, नियमित निर्वाचन, उत्तरदायी सरकार, स्वतंत्र न्यायपालिका आदि उदारवादी प्रक्रियात्मक लोकतंत्र की मूल विशेषता होती है। इन वैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था एक राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना करती है किन्तु बिना सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के यह राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा है। यही कारण है कि बाबासाहेब लोकतंत्र को सरकारों का एक प्रकार नहीं बल्कि सामाजिक जीवन के संगठन के रूप में देखते थे। यह लोकतंत्र की एक अधिक उदात्त और व्यापक परिभाषा है। फ्रांसीसी क्रांति के प्रतीक ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ इसके मूल में हैं। अतः डॉ आम्बेडकर के चिंतन में स्पष्ट था कि बिना सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के राजनीतिक लोकतंत्र अर्थहीन है।
महार परिवार में जन्म लेकर आखिर एक साधारण मानव कैसे एक विचार और संस्था बन जाता है और संसार के समक्ष दलित, वंचित और शोषित समुदाय के लिए अनंत प्रेरणा का स्रोत बन जाता है- बाबासाहेब इसके एक ज्वलंत उदाहरण हैं। कहते हैं मनुष्य का विचार और चिंतन उसकी सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम होता है जिसमें वह जन्म लेकर बढ़ता और पलता है। यह बात बाबासाहेब पर अक्षरशः साबित होती है। यदि अस्पृश्यता और सामाजिक असमानता का अनुभव आंबेडकर को नहीं होता तो जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक विषमता और शोषण पर आधारित सामाजिक संरचना के प्रति विद्रोह का बिगुल वो नहीं बजाते। यदि दासता पर आधारित व्यक्ति का जीवन उनके वैयक्तिक जीवन में भोगा हुआ सत्य नहीं होता तो व्यक्ति की मुक्ति का उदघोष वो नहीं करते। यदि जाति पर आधारित मनुष्य के असमान संबंधों को नहीं देखते तो बंधुता की बात उनके जीवन, कर्म और चिंतन का अटूट हिस्सा नहीं बनती। यही कारण है कि बाबासाहेब के जीवन और चिंतन में मनुष्यता की मुक्ति के तीन शब्द- ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ एक दूसरे से गुंथ गए हैं।
भारतीय समाज में सदियों से मनुष्य के जन्म पर आधारित असमानता और मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के मूल कारण को उन्होंने समाज की जड़ता के रूप में पहचाना, और यहीं से जाति उन्मूलन का सवाल उनके सामाजिक तथा राजनीतिक चिंतन और दर्शन का अभिन्न अंग बन गया। समता के दर्शन की यही अभिव्यक्ति हुई है 1936 में लिखे गए उनके ऐतिहासिक लेख ‘जाति का उन्मूलन’ में।
डॉ भीमराव आंबेडकर भारतीय समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक अंतर्विरोधों को समझते थे और यही कारण है कि उन्हें लगता था भारत में संसदीय लोकतंत्र तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं होती।
गांधी और आंबेडकर के विचारों में यह टकराव यानी राष्ट्रीय स्वतंत्रता पहले या सामाजिक समानता पहले या राजनीतिक क्रांति पहले या सामाजिक क्रांति पहले को परस्पर विरोध के रूप में देखा जा सकता है। आंबेडकर अपने इस विचार में मजबूती के साथ खड़े थे कि देश की स्वतंत्रता यदि बिना सामाजिक विषमता को दूर किए प्राप्त की जाती है तो वह भारतीय समाज की शोषण और उत्पीड़न पर आधारित जातिगत सामाजिक संरचना को नहीं बदल पाएगी और मनुष्य के लिए समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाएगी।
लोकतंत्र का विचार और आंबेडकर
संयुक्त राज्य अमरीका में अश्वेत को दासता से मुक्ति दिलाने वाले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार लोकतंत्र के विषय में यह प्रसिद्ध वाक्य कहा था- अगर मैं दास नहीं होना चाहता तो मैं मालिक भी नहीं होना चाहूंगा। यही लोकतंत्र के संबंध में मेरे विचार हैं। ऐसे विचारों से प्रेरणा लेकर ही आंबेडकर ने मानव अधिकारों में अटूट विश्वास रखते हुए लोकतंत्र को एक समावेशी स्वरूप देने का प्रयास करते हुए कहा कि लोकतंत्र को महज एक शासन के प्रकार के रूप में समझना गलती होगी, बल्कि यह ऐसे सामाजिक संगठन का स्वरूप निर्धारित करने वाला रूप हो जो मनुष्य और मनुष्य के सम्मान के सामाजिक संबंध का निर्धारण करे।
आंबेडकर की दृष्टि में लोकतंत्र एक अच्छे समाज के निर्माण से संबंधित विचार है। अपने इस आदर्श के विषय में उनके चिंतन में पूरी स्पष्टता थी और वे मानते थे कि एक आदर्श लोकतंत्र ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ के बिना संभव नहीं। वे मानते थे कि इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए लोकतंत्र साधन और साध्य दोनों है।
यदि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व लोकतंत्र का साध्य है तो इस लक्ष्य की प्राप्ति भी लोकतंत्र के साधन के द्वारा ही संभव है। आंबेडकर का यह विचार कि अच्छा लोकतांत्रिक शासन वस्तुतः ‘जनता का, जनता के लिए तथा जनता के द्वारा शासन है’ की मौलिक संकल्पना पर आधारित था किन्तु वे मानते थे कि लोकतंत्र महज एक शासन पद्धति नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है। उनका विचार था कि लोकतंत्र शासन पद्धति से अधिक एक सहयोगी सामाजिक जीवन है, एक साझा अभिव्यक्त अनुभव है। यह मूलतः अपने सामाजिक जीवन में अपने जैसों के प्रति सम्मान का भाव है।
लोकतंत्र की आंबेडकर की संकल्पना में यह स्पष्ट था कि लोकतंत्र ने सामाजिक रूपांतरण और मानवीय प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है किन्तु इसके लिए मात्र गलत लोगों को सत्ता में आने से रोकने से उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी बल्कि इस सम्बन्ध में एक प्रेरणादायी परिभाषा में उन्होंने लिखा कि लोकतंत्र के माध्यम से बिना रक्तपात के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन लाया जा सकता है। यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से हिंसा के द्वारा किसी क्रांति के समर्थक न होकर अहिंसक और संवैधानिक तरीके से समाज में परिवर्तन की वकालत करते हैं और लोकतंत्र को इस दिशा में मानव समाज के लिए एक उपयुक्त व्यवस्था मानते हैं। संगठित हिंसा के द्वारा समाज में व्यवस्था परिवर्तन के वो विरोधी थे और यदि जीवित होते तो नक्सलवादी परिवर्तनकामी हिंसा का वो घोर विरोध करते।
आंबेडकर राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र से जोड़कर देखते थे और मानते थे कि लोकतंत्र को समाजवाद से अलग कर नहीं देखा जा सकता। यहां वे लोकतांत्रिक समाजवादी के करीब दिखाई देते हैं और सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र के संयुक्त आदर्श को वो सामाजिक लोकतंत्र (सोशल डेमोक्रेसी) मानते थे। समता और सामाजिक न्याय का सम्मिलित रूप उनके सामाजिक लोकतंत्र का मूल था।
उनका विचार था कि पश्चिमी यूरोप के राजनीतिक लोकतंत्र में आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा को नजरअंदाज करना उसकी विफलता का एक मुख्य कारण रहा है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक लोकतंत्र के सफल न होने के पीछे यह एक आवश्यक कारण रहा कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को नहीं स्वीकारा गया। एक उदाहरण के साथ अपनी बात समझाते हुए वे कहते हैं कि जैसे मजबूत शरीर के लिए मजबूत टिश्यू बहुत जरूरी है, ऐसे ही सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र, राजनीतिक लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्य है। सच तो यह है कि आंबेडकर के लोकतंत्र संबंधी चिंतन के मूल में समता की अवधारणा है और वो मानते थे कि लोकतंत्र का दूसरा नाम समानता है। वो मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्रता के प्रति तो गहरा लगाव रहा है किन्तु समानता के प्रति वैचारिक उपेक्षा के कारण यह स्वतंत्रता और समानता में आवश्यक संतुलन स्थापित करने में विफल रहा और अंततः स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया जिसका परिणाम यह हुआ कि लोकतंत्र एक नाम मात्र रह गया।
लोकतंत्र के प्रति अपना गहरा विश्वास व्यक्त करते हुए वे बार बार दोहराते रहे कि लोकतंत्र महज एक शासन पद्धति नहीं, समाज का एक स्वरूप है। समाज की संरचना और कार्यप्रणाली लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए। भारतीय समाज में जहां सामाजिक संरचना पदक्रम पर आधारित विषमता का निर्माण करती है, वहां वे यह भी समझते थे कि यहां लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। वे मानते थे कि यह जाति व्यवस्था पर आक्रमण करके समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने में सहायक होगा। सामंती समाज की जातिगत संरचना को नष्ट करने के एक राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने लोकतंत्र को देखा। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र दलित की राजनीतिक शक्ति को दर्शाने वाला कदम प्रमाणित होगा। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के इसलिए वे जबरदस्त समर्थक थे और भारत के संविधान में वयस्क मताधिकार का प्रावधान अपने आप एक राजनीतिक क्रान्ति से कुछ कम नहीं था। दुनिया के आधुनिक लोकतांत्रिक इतिहास में यूरोप तथा अमेरिका भी अपने सभी नागरिकों को एक बार में मताधिकार नहीं दे पाये। आंबेडकर की स्पष्ट समझ थी कि मात्र कुशल सरकार नहीं, एक अच्छी सरकार हो। इसके लिए वो लोकतंत्र की कुछ आवश्यक पूर्व शर्तों को निर्धारित करते हैं।
लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें
आंबेडकर ने अपने एक संबोधन में लोकतंत्र के लिए सात आवश्यक परिस्थितियों का उल्लेख किया है :
1. समाज में अत्यधिक असमानता का न होना
2. विपक्ष की उपस्थिति
3.कानून और प्रशासन में समानता
4.संवैधानिक नैतिकता
5. बहुमत की निरंकुशता नहीं
6. समाज में नैतिक व्यवस्था
7. लोक चेतना
समाज में अत्यधिक असमानता का ना होना
आंबेडकर की स्पष्ट मान्यता थी कि कुछ शर्तें पूरी होने पर ही लोकतंत्र सफलतापूर्वक कार्य कर सकता है। अपने उदबोधन में उन्होंने कहा था कि अगर समाज में अत्यधिक असमानता होती है और कोई विशेषाधिकार वर्ग या समूह होता है तो यह लोकतंत्र के लिए अनुकूल सामाजिक वातावरण नहीं होगा और लोकतंत्र अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं होगा। भारतीय समाज में चली आ रही जाति व्यवस्था को वो ना सिर्फ सामाजिक असमानता के लिए जिम्मेदार मानते थे बल्कि आर्थिक विषमता के मूल में पाते थे। यह राजनीतिक लोकतंत्र के लिए अंतर्विरोध पैदा करता है। अपनी इसी आशंका के संबंध में प्रश्न पूछे जाने पर बीबीसी के साथ 1953 में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि भारतीय समाज की सामाजिक संरचना संसदीय लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। ऐसी चेतावनी वो कई बार संविधान सभा में दे चुके थे। यद्यपि वो आशा के साथ यह भी कहते थे कि संवैधानिक लोकतंत्र कार्य कर सकता है। यही कारण है कि वो भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को समूल खत्म करना जरूरी मानते थे।
विपक्ष की उपस्थिति
लोकतंत्र में नियमित निर्वाचन में सरकार चुनी जाती है और वो अपने निर्धारित कार्यकाल में शासन करती है किन्तु इन पांच वर्षों में संसद में मजबूत विपक्ष ना होने से एक अधिनायकवादी व्यवस्था लोकतंत्र में विकसित होने का खतरा बना रहता ह। विपक्ष के नेता को संसदीय मान्यता और आवश्यक अधिकार जरूरी है ताकि सत्तारूढ़ पार्टी के ऊपर अंकुश रहे। इस संदर्भ में ब्रिटेन के हाउस आफ कॉमन्स में विपक्ष के नेता को मंत्री स्तर की सुविधा और राजनीतिक सम्मान दिया जाता है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था के कारण संसद में कई बार आवश्यक संख्या का समर्थन ना होने से विपक्ष का मान्यता प्राप्त नेता नहीं होता है जो संसदीय लोकतंत्र में सत्तारुढ़ पार्टी के वर्चस्व को अधिनायकवादी चरित्र प्रदान कर देता है। विपक्ष न सिर्फ सरकार के ऊपर अंकुश रखकर लोकतंत्र में अधिनायकवाद के उदय को रोकता है बल्कि जनता के समक्ष एक राजनीतिक विकल्प भी प्रस्तुत करता है और निर्वाचन के द्वारा सत्ता में परिवर्तन से लोकतंत्र में पार्टी या व्यक्ति के वर्चस्व को रोका जा सकता है।
कानून और प्रशासन में समानता
कानून के समक्ष समानता और कानून के द्वारा समान संरक्षण तो कानून के शासन की विशेषता है किन्तु यदि कानून और प्रशासन में इस समानता की कहीं भी कमी हो तो लोकतंत्र के प्रति जनविश्वास में कमी आती है जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं।
संवैधानिक नैतिकता और लोकतंत्र
आंबेडकर के राजनीतिक दर्शन में लोकतंत्र के नैतिक आयाम का उल्लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है। संविधान में कानूनी प्रावधान शासन के संचालन के लिए होता है किन्तु यह बिना संवैधानिक नैतिकता के ढांचा मात्र है। संविधान के प्रावधानों में छिपे निहितार्थ को समझना जरूरी है क्योंकि समानता और स्वतंत्रता को सच्चा अर्थ देने के लिए संवैधानिक नैतिकता सहायक है। उनके विचार में संवैधानिक नैतिकता के द्वारा ही संविधान जीवंत बनता है।
आंबेडकर को यह लगता था कि यदि लोकतंत्र में संवैधानिक नैतिकता की कमी रही तो यह संविधान और लोकतंत्र दोनों के लिए नुकसानदेह हो सकता है क्योंकि इसके अभाव में राज्य या तो अराजकता का शिकार हो जाएगा या पुलिस राज्य हो जाएगा। संवैधानिक नैतिकता के प्रति आंबेडकर की प्रतिबद्धता का कारण उनका विवेक और वैज्ञानिक दृष्टि में विश्वास था।
बहुमत की निरंकुशता अर्थात बहुमतवाद
आंबेडकर की एक स्वाभाविक चिंता थी कि लोकतंत्र बहुमत की निरंकुशता और अल्पसंख्यक के उत्पीड़न का शासन न बने। बहुमत सरकार के गठन के लिए जरूरी है लेकिन बहुमत के आधार पर गठित सरकार बहुमत के हितों की चिंता करते हुए यदि अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय या उनके अधिकारों का हनन करने लगे तो बहुमतवाद स्थापित हो जाएगा जो लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है।
समाज में नैतिक व्यवस्था
समाज में नैतिक व्यवस्था को आंबेडकर जरूरी मानते थे। राजनीति शास्त्रियों में ब्रिटेन के हेराल्ड लास्की इस सामाजिक नैतिक व्यवस्था के समर्थक थे ।
समाज में चेतना
समाज में चेतना को लोकतंत्र के लिए आंबेडकर अनिवार्य मानते थे। लोकतंत्र जनता का शासन है और जनता की चुनी हुई सरकार होती है तो लोक चेतना जरूरी है। जनता की चेतना के लिए खासकर समाज के वंचितों और सामाजिक पिछड़ों को शिक्षित होने, संगठित होने और आंदोलित होने का उनका आह्वान उसी लोक चेतना को विकसित करना है।
लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए आंबेडकर ने तीन महत्त्वपूर्ण चेतावनी दी है।
संवैधानिक रास्ता
संविधान सभा को संबोधित करते हुए आंबेडकर ने लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए कुछ आवश्यक चेतावनी दी थी। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि समाज परिवर्तन संवैधानिक तरीके से हो अर्थात हिंसा या असंवैधानिक तरीके से बचने की चेतावनी।
नेताओं के प्रति अंधभक्ति का विरोध
किसी भी स्थिति में जनता कभी भी नेताओं के प्रति भक्ति ना करे और उसके प्रति अंध आस्था के कारण उसके चरणों में अपनी स्वतंत्रता का त्याग ना करे भले ही वो कितना महान क्यों न हो। राजनीति में भक्ति अधिनायकवाद को बल प्रदान करती है। 1975 के आपातकाल में आंबेडकर की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई थी। आज फिर देश में विगत कुछ वर्षों से नेता के प्रति अंधभक्ति को सत्तारूढ़ दल और गोदी मीडिया फैलाने में लगे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक लोकतंत्र में परिवर्तन
आंबेडकर अंत में यह मानते थे कि राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र बनाना जरूरी है। सच तो यह है कि आंबेडकर के चिंतन के मूल में सामाजिक लोकतंत्र है और इसी को आकार लेते वो देखना चाहते थे।
भारत के संविधान में मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्त्व
भारतीय संदर्भ में लोकतंत्र के संबंध में आंबेडकर के विचारों को समझने में भारत के संविधान के ताने-बाने को समझने की आवश्यकता है। प्रस्तावना से लेकर संविधान में वर्णित व्यक्ति और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रावधान तथा राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को उसके संयुक्त रूप में समझने की आवश्यकता है क्योंकि यदि आंबेडकर मौलिक अधिकारों को राजनीतिक लोकतंत्र का स्वरूप मानते थे तो राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अभिव्यक्ति मानते थे और उन्हें ऐसा लगता था कि समय के साथ भारतीय राज्य राजनीतिक लोकतंत्र और सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र के अंतर्विरोधों को दूर करने में सफल होगा और यदि समाज में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों का राजनीतिक सशक्तीकरण होगा तो सत्ता तथा नीति निर्माण में उनकी निरंतर भागीदारी बढ़ेगी जो सामाजिक लोकतंत्र का निर्माण करेगा।