इलेक्शन बांड के खतरे

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— जगदीप एस. छोकर —

हालांकि सरकार बार-बार कहती रही है कि इलेक्शन बांड ने राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बना दिया है पर सच्चाई इससे बिलकुल उलट है। इलेक्शन बांड ने राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया को पूरी तरह से छिपा दिया है।

कानून के मुताबिक, केवल स्टेट बैंक ही जानता है कि किसने कितने रुपए के इलेक्शन बांड खरीदे और किस राजनीतिक दल ने कितनी रकम के इलेक्शन बांड भुनाये। स्टेट बैंक यह सूचना केवल और केवल अदालत के आदेश पर बता सकता है। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि स्टेट बैंक सरकार (वित्त मंत्रालय)। से कुछ भी सूचना छिपा नहीं सकता। और एक बार जो भी सूचना वित्त मंत्रालय को मिल जाती है, वह सूचना सत्तारूढ़ दल को तो सीधे सीधे मिल जाती है। यही कारण है कि 10,000 करोड़ रुपए के भुनाये गये इलेक्शन बांड में से 70-75 फीसद भारतीय जनता पार्टी को मिले हैं, और अन्य राजनीतिक दलों को बाकी बचे 25-30 फीसद इलेक्शन बांड ही मिले हैं।

चूंकि चुनाव में पैसा खर्चने का महत्त्व बहुत ज्यादा है इसलिए इलेक्शन बांड का इस तरह का बंटवारा चुनावों को पूरी तरह एक-तरफा कर देता है जिससे सत्तापक्ष भाजपा को जबर्दस्त और अनुचित फायदा होता है।

इलेक्शन बांड से और भी बहुत-सी दिक्कतें हैं

# इन्हें संसद में केंद्रीय बजट के हिस्से के तौर पर पारित किया गया था जो कि असंवैधानिक है क्योंकि बजट एक ‘मनी बिल’ है और इलेक्शन बांड को ‘मनी बिल’ में शामिल करना संवैधानिक नहीं है।

# पहले प्रावधान था कि कोई भी कंपनी अपने पिछले तीन साल के औसतन लाभ का अधिकतम 7.5 फीसद ही राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर दे सकती थी। ये 7.5 फीसद की सीमा अब हटा दी गयी है और अगर कोई कंपनी चाहे तो अपना 100 फीसद मुनाफा राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकती है।

# एक प्रावधान यह भी था कि अगर कोई कंपनी किसी भी राजनीतिक दल को कुछ पैसा चंदे के रूप में देती थी तो उसे राजनीतिक दल का नाम और चंदे में दी गयी राशि उजागर करनी होती थी। इस प्रावधान को पूरी तरह से हटा दिया गया है और अब कंपनी को न तो चंदे की राशि न राजनीतिक दल का नाम बताने की जरूरत है।

# विदेशी चंदे के कानून (एफसीआरए) में संशोधन करके ‘विदेशी स्रोत’ की परिभाषा को पूर्व-प्रभाव से बदल दिया गया है। नयी परिभाषा के मुताबिक विदेश में स्थित कोई भी कंपनी भारत में अपनी सहायक अथवा अधीन कंपनी खोलकर, उसके द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती है। वह विदेशी कंपनी चाहे हथियार बनाने वाली हो, चाहे नशीले पदार्थ बनाने वाली हो, चाहे अवांछनीय कार्यों में लिप्त हो जैसे कि तस्करी या आतंकवादी गतिविधियों में, सभी राजनीतिक दलों को चंदा दे सकेगी।

# ऊपर लिखी हुई तीनों बातें भारतीय लोकतंत्र को पूरी तरह धन-बल के कब्जे में कर सकती हैं। बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियां मोटे-मोटे चंदे देकर राजनीतिक दलों को पूरी तरह अपने नियंत्रण में करके, इन दलों की बनाई हुई सरकारों को देश और जनता के हितों के विरुद्ध फैसले लेने के लिए मजबूर कर सकती हैं। ऐसी स्थिति देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।

# इलेक्शन बांड खरीदने वालों के बारे में जानकारी केवल स्टेट बैंक (और उसके द्वारा सत्तारूढ़ दल) तक सीमित रहना, बाकी सारे विपक्षी दलों को मिलने वाले चंदे को बिलकुल बंद कर सकता है। इससे देश में एक ही राजनीतिक दल की सरकार अनंत काल तक चल सकती है क्योंकि और कोई भी दल सत्तारूढ़ दल के धन-बल का मुकाबला नहीं कर सकेगा और चुनाव पूरी तरह एकतरफा हो जाएंगे। इन कारणों से इलेक्शन बांड स्कीम को तत्काल बंद करना अति आवश्यक है क्योंकि अगर इसे तुरंत बंद नहीं किया गया तो देश में लोकतंत्र बिलकुल खत्म हो जाएगा।


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