स्त्री-विमर्श के खांचे से बाहर मुक्ति की पुकार

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मृदुला गर्ग


— विमल कुमार —

हिंदी साहित्य में बहुतेरे लेखकों की चर्चा तो होती रहती है पर उनका समग्र मूल्यांकन कम ही होता है, जीते जी तो बिल्कुल नहीं। वैसे भी हिंदी साहित्य में लेखक के नहीं रहने पर ही उसके मूल्यांकन का प्रयास किया जाता है, जीते जी तो कई लेखकों का आजतक मूल्यांकन भी नहीं हुआ। पुरुष लेखकों का थोड़ा बहुत मूल्यांकन तो हो जाता है पर लेखिकाओं का तो वह भी नहीं। महादेवी के निधन के बाद उन्हें एक स्त्री विमर्शकार के रूप में जाना गया। सुभद्रा जी के निधन के वर्षों बाद उनके समग्र अवदान की तरफ ध्यान गया। कृष्णा जी की चर्चा तो बहुत हुई पर अब जाकर उनपर शोधपरक पुस्तकें आयीं। मन्नू भंडारी का भी सम्यक मूल्यांकन नहीं हुआ।

ऐसे में अगर लेखकों के जीवन काल में उनका मूल्यांकन हो तो बेहतर होगा। देखा यह जाता है कि लेखक के लिखते हुए 50 साल हो जाते हैं पर हिंदी साहित्य में उसका मूल्यांकन नहीं होता। स्त्री दर्पण का प्रयास है कि जिन लेखिकाओं के लेखन के 50 वर्ष हो गए उनके मूल्यांकन का प्रयास हो। इस कड़ी में पहला प्रयास 7 दिसम्बर को किया जा रहा है लेकिन इस मूल्यांकन की कई चुनौतियां हैं। पहली तो यह कि उस लेखक की छवि उसकी किसी खास कृति में कैद हो जाती है। कभी कभी किसी लेखक की कोई कृति इतनी महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय हो जाती है कि वह लेखक की पहचान ही नहीं बन जाती बल्कि उसका पर्याय भी बन जाती है जैसे प्रेमचन्द का नाम लेते ही ‘गोदान’ की याद आती है रेणु का नाम लेते ही ‘मैला आँचल’ की, कृष्णा सोबती का नाम लेते ही ‘मित्रो मरजानी’, मंन्नू भंडारी का नाम लेते ही ‘महाभोज’, कुछ वैसे ही मृदुला गर्ग का नाम लेते ही ‘चितकोबरा’ का स्मरण आना स्वाभाविक है पर कई बार इस पहचान से लेखक अपनी एक कृति विशेष की छवि में कैद हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि हम उस लेखक का सम्यक मूल्यांकन नहीं कर पाते और उस लेखक की अन्य रचनाओं पर हम बहुधा उतना ध्यान नहीं देते या उसकी उतनी चर्चा नहीं करते जितनी अपेक्षित है।

हिंदी की मूर्धन्य लेखिका मृदुला गर्ग के साथ भी कुछ ऐसा ही हादसा हुआ कि उन्हें हिंदी पट्टी में आम लोगों के बीच ‘चितकोबरा’ की लेखिका के रूप में अधिक जाना गया जबकि वह ‘अनित्य’, ‘उसके हिस्से की धूप’ और ‘कठगुलाब’ की भी लेखिका हैं पर ‘चितकोबरा’ शब्द मानो लेखिका से चस्पां हो गया। उनके कथा साहित्य की ओर सबका ध्यान जरूर गया पर हमलोग यह भूल ही गए कि उन्होंने साहित्य की हर विधा में लिखा लेकिन उनकी अन्य रचनाओं का उतना मूल्यांकन नहीं हुआ जितना एक कथाकार और एक उपन्यासकार के रूप में मुख्यतः उनकी पहचान बनी।

उनके नाटककार, व्यंग्यकार और कवि रूप पर लोगों का ध्यान नहीं गया जबकि मृदुला गर्ग एक मुकम्मल लेखिका हैं। वह स्त्रीविमर्श को ही नहीं बल्कि साहित्य को भी मुकम्मल ढंग से देखती हैं और लेखकीय स्वाधीनता पर अधिक जोर देती हैं।

25 अक्टूबर 1938 कोलकत्ता में को जनमीं मृदुला जी उषा प्रियवंदा, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी की त्रयी के बाद ममता कालिया, सुधा अरोड़ा के साथ मिलकर एक त्रयी बनाती हैं। इस त्रयी में एक अन्य लेखिका शामिल हो सकती थीं पर अपने राजनीतिक विचारों और स्टैंड के कारण उनकी पक्षधरता अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है लेकिन मृदुला जी राजनीतिक रूप से भी सजग सचेत लेखिका हैं। पिछले दिनों हंस महोत्सव के उदघाटन समारोह में दिया उनका वक्तव्य इस बात का प्रमाण है कि वह फासीवादी ताकतों के खतरे, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण मानवीय संवेदना के सामने उत्पन्न संकट को बखूबी समझती हैं और न्याय के पक्ष में खड़े होना पसंद करती हैं।

1972 में सारिका में प्रकाशित उनकी कहानी ‘रुकावट’ को छपे 50 साल हो गए। 85 वर्ष की उम्र में भी वह सक्रिय हैं और अपनी गरिमामयी उपस्थिति से नई पीढ़ी के लिए रोल मॉडल बनी हुई हैं। वह एक बेबाक निर्भीक लेखिका हैं और बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहती हैं।

उनकी कहानियों को आप पढ़ें तो वह भाषा और शिल्प के चमत्कार के बिना अपनी बात कहती हैं। उनकी कहानियों में पात्रों के बीच संवाद अधिक है। उनकी कई कहानियां संवाद शैली में ही लिखी गयी हैं। कुछ कहानियां इतनी छोटी हैं कि आश्चर्य भी होता है। हिन्दी साहित्य में इतनी छोटी कहानियां शायद ही किसी ने लिखी हों। दो-ढाई पेज में भी उनकी कहानियां पूरी हो जाती हैं। वैसे उन्होंने कुछ बड़ी कहानियां भी लिखी हैं लेकिन वह मूलतः आत्मस्वीरकर की भी लेखिका हैं चाहे वह विवाहेतर प्रेम क्यों न हों। एक टीवी चैनल के फेस्टिवल में उन्होंने स्वीकार किया कि स्त्री को भी पति के अलावा प्रेमी चाहिए। जैनेंद्र कुमार ने 50 साल जो बहस चलाई थी कि पत्नी के अलावा प्रेयसी चाहिए उसका माकूल जवाब मृदुला जी ने दिया।

सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने स्त्री के साथ साथ पुरुषों की आजादी और मुक्ति की भी बात उठायी है। उनका कहना है कि एक गुलाम पुरुष से प्रेम की अपेक्षा करना वाजिब नहीं है। जो खुद गुलाम है वह एक स्त्री से कैसे प्रेम करेगा। इस दृष्टि से देखा जाए तो मृदुला जी ने स्त्रीविमर्श के दायरे को बढ़ाया है और उसके अर्थ का विस्तार भी किया है। मृदुला जी अभी भी मानती हैं कि हमारे समाज में यौनिकता पर बात करना दकियानूसी माना जाता है। ‘चितकोबरा’ के प्रकाशन के समय उन्हें गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा।आज स्थिति में कमोबेश कोई फर्क नहीं पड़ा है। जब गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ में यौनिकता का मामला उठाकर आगरा में कार्यक्रम नहीं होने दिया गया तो मृदुला जी ने उस घटना का तीखा प्रतिवाद किया और एक चैनल को कहा कि ‘चितकोबरा’ की घटना के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।

मृदुला जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा।वह एक गम्भीर बौद्धिक और उदार स्त्री विमर्श की पैरोकार हैं पर साहित्य में स्त्री पुरुष लेखक के विभेद की समर्थक नहीं हैं और दोनों की एकसाथ मुक्ति की कामना करती हैं।

वह स्त्री अस्मिता की भरोसेमंद आवाज होने के साथ-साथ व्यापक सामाजिक बदलाव की आकांक्षी और स्वप्नदर्शी रचनाकार हैं। उनके लेखन में स्वतंत्रता, न्याय, बराबरी , धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और मानवीय संवेदना की पुकार सुनी जा सकती है। वह बेबाक और पारदर्शी लेखन में यकीन करती हैं और समाज के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखती हैं पर वह अपने लेखन में इसका प्रदर्शन जरूरी नहीं समझती हैं। वह अपने समाज की हलचलों से बाख़बर भी रहती हैं तथा भूमंडलीकरण एवं बाजार तथा राजनीतिक मूल्यों के पतन से चिंतित भी रहती हैं।

मृदुला जी के लेखन की अर्धशती पर उनका अभिनंदन और हिंदी समाज की ओर से उन्हें शुभकामनाएं।

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