हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभों ने गैसपीड़ितों के वजूद को ही नकार दिया

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— डॉ सुनीलम —

गैस त्रासदी की कल 38वीं बरसी थी। 2 दिसंबर 1984 की रात को हुए दुनिया के सबसे भयंकर औद्योगिक हादसे के परिणामस्वरूप अब तक 38 हजार निर्दोष नागरिकों की मौत हो चुकी है। भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन के साथ सर्वोच्च न्यायालय में 14-15 फरवरी 1989 में समझौता किया। समझौते के तहत 700 करोड़ रुपये 3000 गैस पीड़ित मृतकों को तथा 1 लाख 2 हजार घायलों को मुआवजा दिया था। सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन 3 अक्टूबर 1991 को सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू पिटीशन खारिज कर दी। इस बीच 1992 से 2004 के बीच वेलफेयर कमिश्नर, भोपाल ने कुल गैस पीड़ितों की संख्या 5 लाख 74 हजार पायी। इस तथ्य से यह साफ हो गया कि 1 लाख 5 हजार पीड़ितों का मुआवजा 5 लाख 74 हजार पीड़ितों को बांटा गया अर्थात् समझौते के मुताबिक पीड़ितों को मुआवजे का पांचवां हिस्सा दिया गया।

इस मुद्दे को लेकर जब भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति ने वेलफेयर कमिश्नर और हाईकोर्ट के समक्ष अपील की तब उस अपील को खारिज कर दिया गया। तब याचिकाकर्ताओं ने 2010 को सर्वोच्च न्यायालय में स्पेशल रिव्यू पिटीशन दायर की, जिस पर सुनवाई जारी है। याचिकाकर्ताओं ने 7 हजार 4 सौ करोड़ मुआवजे की मांग की है।

सर्वोच्च न्यायालय में 28 जनवरी 2020 को क्यूरेटिव पिटिशन पर संवैधानिक पीठ ने सुनवाई शुरू की है। अगली तारीख 10 जनवरी 2023 की लगी है। कल भोपाल गैस पीड़ितों के संगठनों ने दिल्ली के जंतर मंतर तथा भोपाल में राज्यपाल के राजभवन पर प्रदर्शन किया। भोपाल में राज्यपाल ने गैस पीड़ितों के प्रतिनिधियों से मिलने से इनकार कर दिया।

इसके पहले भी 26 नवंबर को संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े किसान संगठनों के नेतृत्व में पांच हजार किसानों ने राजभवन पर प्रदर्शन किया था लेकिन उन्हें भी राज्यपाल ने मिलने का समय नहीं दिया। यदि राज्यपाल के पास किसानों के प्रतिनिधियों और गैस पीड़ितों के प्रतिनिधियों से मिलने का समय नहीं है तो राज्यपाल कौन-से महत्त्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त हैं, यह जानकारी राजभवन कार्यालय को सार्वजनिक करनी चाहिए।

गैस पीड़ितों के प्रति गत 38 वर्षों में हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभों ने कैसा सलूक किया इसका हिसाब करें तो पता चलता है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में से किसी ने भी गैस पीड़ितों का साथ नहीं दिया है। सभी ने गैस पीड़ितों के अस्तित्व को ही नकार दिया। यदि साथ दिया होता तो कंपनी के मालिकों को सजा हुई होती तथा गैस पीड़ितों को उचित मुआवजा मिला होता।

गैस पीड़ितों के लिए भोपाल में सन 2000 से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भोपाल मेमोरियल अस्पताल और रिसर्च सेंटर बनाया गया था। जिसमें गैस पीड़ितों का इलाज होना था लेकिन जो गैस पीड़ित नहीं थे उनका भी इलाज होने लगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को मेमोरियल अस्पताल के संचालन का आदेश दिया लेकिन आज भी अस्पताल में डॉक्टरों, विशेषज्ञों, कंप्यूटराइज्ड मेडिकल रिकॉर्ड आदि की कमी है। आज अस्पताल में 4.5 लाख ऐसे पंजीकृत गैस पीड़ित हैं जिन्हें इलाज की जरूरत है लेकिन उन्हें इलाज नहीं मिल रहा है। एम्स अस्पताल 2012 में चालू हुआ लेकिन वहां की सुविधाओं का लाभ गैस पीड़ितों के अलावा अन्य मरीजों को मिल रहा है।

दोषियों को सजा देने के लिए कोई विशेष न्यायालय नहीं बनाया गया है।

भोपाल में 10-11 लाख टन जहरीला कचरा आज भी यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में मौजूद है। जिसके चलते भोपाल का पानी जहरीला हो रहा है। कुल मिलाकर गैस पीड़ितों के संपूर्ण पुनर्वास का इंतजाम आज तक सरकारों द्वारा नहीं किया गया है। गैस त्रासदी के 38 साल बाद हम देखते हैं कि गैस पीड़ितों के साथ चंद संगठनों एवं संस्थाओं के अलावा कोई खड़ा दिखाई नहीं दे रहा है। इससे पता चलता है कि समाज और देश के तौर पर हम कितने संवेदनहीन हो गए हैं।

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