लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के अथक योद्धा दादा देवीदत्त अग्निहोत्री

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श्रद्धेय दादा देवी दत्त अग्निहोत्री जी (1911 - 1993)


— कमल सिंह —

दादा देवीदत्त अग्निहोत्री ऐसी अजीम शख्सियत थे जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, मजदूर आंदोलन, देश के समाजवादी आंदोलन, लोकतंत्र और नागरिक आजादी के संघर्ष तथा क्रांतिकारी आंदोलन में जमीनी स्तर पर उनका योगदान रहा है। आंदोलनों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। उनकी गति ही कुछ इसी तरह होती है। एक समय अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाने वाले कुछ समय बाद शिथिल, अन्यमनस्क, उदासीन, निष्क्रिय होने लगते हैं, किनारा कर लेते हैं। ऐसे भी होते हैं जो प्रतिगामी कतारों में सम्मिलित होकर निजी स्वार्थ में उन लक्ष्यों से गद्दारी करने लगते हैं, जिनके लिए वे कभी संघर्षरत थे। अपने त्याग और कुरबानियों को भुनाकर निजी स्वार्थ में लिप्त होने वालों के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। दादा देवीदत्त अग्निहोत्री इनसे अलग थे।

जटिलताओं व अबूझ परिस्थतियों में भटकते, राह तलाशते जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे थके नहीं, हार नहीं मानी, निराशा का दामन नहीं थामा। उन सभी को सहारा देते व प्रेरित करते रहे जो शोषण और अन्याय पर आधारित समाज को बदलने और लोकतंत्र व समता आधारित समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत रहे। राजनीति में उनकी शुरुआत 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन से हुई थी। उनका जीवन कानपुर की गंगा-जमुनी संस्कृति, मजदूर आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है। 11 दिसम्बर 1993 को 84 बरस की आयु तक वे अपने विश्वास व आस्थाओं पर अडिग रहे। कैंसर की पीड़ाओं को झेलते हुए अंतिम सांस ली। सामाजिक परिवर्तन के आकांक्षियों को उनकी कमी सदा खलती रहेगी।

जंगल सत्याग्रह

बरतानिया साम्राज्यवाद के खिलाफ जंगल सत्याग्रह (1930) में भागीदारी, पुलिस की लाठियों से लहूलुहान एक माह की जेल के सथ जंग-ए-आजादी में शिरकत से उन्होंने शुरुआत की थी। उस समय उनकी आयु 18-19 बरस के आसपास रही होगी। जंगल सत्याग्रह मध्यभारत (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) व महाराष्ट्र के आदिवासियों द्वारा बरतानिया शासन के वन अधिनियम के विरोध में 1922 से शुरू हुआ था। यह आदिवासी जनजातियों को साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की कतार में सम्मिलित करने की नई शुरुआत थी। वन अधिनियम के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने वन उपज पर सरकारी स्वामित्व घोषित किया था। आदिवासियों के परंपरागत अधिकार समाप्त कर दिए गए। अब वे जलावन के लिए भी लकड़ी लेने जाते थे, तो उन्हें जुर्माना देना पड़ता था। मवेशियों के जंगल में घुसने की स्थिति में सरकारी अधिकारी उन्हें बंधक बना लेते थे। आदिवासी समुदाय अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए विवश हो गया।

यह पहले विश्वयुद्ध के बाद महंगाई, बेरोजगारी के साथ देश में जबरदस्त जन आंदोलनों का दौर था। कानपुर का मजदूर आंदोलन, अवध के किसानों का आंदोलन, दमनकरी रोलेट एक्ट और जलियांवाला जनसंहार का राष्ठ्रव्यापी विरोध, देश का हर वर्ग व समुदाय विक्षोभ में उठ खड़ा हुआ था। क्रांतिकारियों ने यु्द्ध के दौरान बरतानियाशाही के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के महत्त्वपूर्ण प्रयास किए परंतु सत्ता में भागीदारी के दिलासे से प्रलोभित होकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने पहले विश्वयुद्ध में बरतानिया का साथ दिया। युद्ध समाप्त होने के बाद स्वराज या औपनिवेशिक राज की जगह मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के नाम पर गवर्नर जनरल की अकूत ताकत के साथ धारा सभा (कौंसिल) के रूप में निराशा ही मिली। इसी तरह अंग्रजों ने तुर्की के खलीफा की मान्यता का जो आश्वासन दिया था उसे पूरा नहीं किया गया था। तुर्क साम्राज्य के विभाजन व मध्य एशिया के औपनिवेशीकरण की नीतियों के प्रतिरोध में देश में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। इन परिस्थितियों में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग और खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन (1920-22) की शुरुआत की गई थी।

मध्य भारत के बैतूल जिले से जनवरी सन् 1922 के प्रथम सप्ताह में ‘वन अधिनियम’ को तोड़ने हेतु जंगल सत्याग्रह प्रांरभ हुआ था। तीन सप्ताह में 33 सत्याग्रहियों को हथकड़ी लगाकर 70 किलोमीटर, पैदल चलाकर धमतरी लाया गया था। सत्याग्रहियों को 3 से 6 माह के कारावास एवं जुर्माना से दंडित किया गया। असहयोग आंदोलन का विस्तार पहाड़-जंगलों में रहने वाले आदिवासियों में होना बरतानिया साम्राज्य के साथ उनके सहयोगी भारत के पूंजीपति और सामंतीवर्ग के लिए भी बड़ा खतरा था। गोरखपुर के चौरी चौरा में बरतानियाशाही के जुल्म से विक्षुब्ध किसानों के उग्र विरोध को बहाना बनाकर 1922 में कांग्रेस नेतृत्व ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस तरह आंदोलित जनता के सथ जंगल सत्याग्रह आंदोलन भी कुंठित हो गया।

बहरहाल, वन अधिनियम की ज्यादतियों के खिलाफ विरोध जारी रहा। संवैधानिक सुधार के रास्ते पर नेहरू कमेटी की रिपोर्ट की नाकामयाबी, साइमन कमीशन का बहिष्कार और उसके बाद 1930 में कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के साथ “सविनय अवज्ञा आंदोलन” की शुरुआत की। क्रांतिकारी नेता सरदार गंजन सिंह कोरकू की अगुआई में जंगल सत्याग्रह नए वेग से उठ खड़ा हुआ। जंगल से आदिवासी कंधे पर कंबल और हाथ में लाठी लेकर विरोध प्रदर्शन के लिए उमड़ने लगे। मध्यभारत की कांग्रेस कमेटी ने भी आंदोलन को अपना लिया। ‘कानपुर मजदूर आंदोलन का इतिहास’ के लेखक कामरेड सुदर्शन चक्र के अनुसार दादा देवीदत्त अग्निहोत्री “16-17 साल की किशोर आयु में नौकरी के लिए नागपुर अपने बहनोई मथुरा प्रसाद अवस्थी के पास गए… वे वहां स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। 1930 में तले गांव जिला वर्धा आरबी तहसील के जंगल सत्याग्रह में उन्होंने प्रथम बार जेल यात्रा की।… नागपुर में जुलुस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। देवीदत्त उस लाठीचार्ज में घायल हुए। उन्हें गिरफ्तार करके एक माह की कैद भी दे दी गई।”(साप्ताहिक जय प्रजा, सितम्बर 1977 से उद्धृत)

फतेहपुर : जंग-ए-आजादी की विरासत

देवीदत अग्निहोत्री का जन्म 1911 में जिला फतेहपुर के गांव रेवाड़ी (बुजुर्ग) में एक किसान परिवार में हुआ था। वे अपने पिता बैजनाथ और माता रामप्यारी के दूसरे पुत्र थे। ये तीन भाई थे और तीनों स्वतंत्रता सेनानी थे। बड़े भाई देवीदयाल अग्निहोत्री को 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के लिए भारत रक्षा कानून के आंतर्गत एक वर्ष का सश्रम कारावास हुआ, 1942 में “अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान भी वे नजरबंद रहे। छोटे भाई शम्भूदयाल क्रांतिकारी विचार के थे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पुलिस ने जहां गिरफ्तारियों, लाठी-गोली व क्रूर दमन का सहरा लिया वहीं नौजवानों के जिस दल ने उग्र प्रतिरोध किया उसमें शम्भूदयाल अग्निहोत्री भी थे। उन्हें अपने अन्य साथियों के साथ कानपुर सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन बम कांड और निशात टाकीज बम विस्फोट के प्रयास के लिए राजद्रोह व अन्य संगीन आरोपों में गिरफ्तार किया गया (संदर्भ : दैनिक प्रताप 18 फरवरी, 1945)। सत्र न्यायालय ने इन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी जिसके खिलाफ अपील उच्च न्यायालय में 1945 में की गई थी। आजादी के बाद ये सभी मुक्त हो गए।

1942 : अगस्त क्रांति में कानपुर

कांग्रेस ने 9 अगस्त 1942 से ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए प्रस्ताव पारित करते हुए आम जनता का जबरदस्त आह्वान किया था ‘करो या मरो’। देश भर में प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। कानपुर में भी 9 अगस्त को सवेरा होने से पहले ही गिरफ्तारियां शुरू हो गई थीं। नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण टंडन, डॉ. जवाहरलाल रोहतगी, सूर्य प्रसाद अवस्थी, जी.जी. जोग, के.ची. बेरी, रेवाशंकर त्रिवेदी व जिले के अन्य प्रमुख नेतओं को गिफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया था। कांग्रेस पार्टी के जो नेता फरार हो गए थे उनमें बृजबिहारी मेहरोत्रा, दादा देवीदत्त अग्निहोत्री भी थे। वे अंडरग्राउंड होकर क्रांति की अलख जगा रहे थे। कानपुर में कांग्रेस मुख्यालय ‘तिलक हाल’ सील पर पुलिस ने कब्जा कर वहां पुलिस की बंदूकों व अन्य हथियारों का गोदाम बना दिया गया था।

सत्ता के दमन ने जनप्रतिरोध तीव्र कर दिया। जेल में जगह नहीं बची। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 1942 के आंदोलन में हरावल भूमिका अदा कर रही थी। जुझारू नौजवानों ने सरकारी भवनों को निशाना बनाया। सेन्ट्रल स्टेशन पर बम विस्फोट, माधना रेलवे स्टेशन, नरोना एक्सचेंज पोस्ट आफिस आदि सरकारी इमारतों में आगजनी, पुलिस थानों पर हमले हो रहे थे।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी कानपुर से ‘आजाद हिंद’ नामक भूमिगत अखबार निकालती थी। भूमिगत रहकर आजादी की जंग चला रहे दादा देवीदत्त अग्निहोत्री के बारे में उसके 8 नवम्बर के अंक में उनकी 2 नवम्बर की शाम को गिरफ्तारी की खबर के साथ छपा था, “गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने उनको बहुत पीटा और यातनाएं देकर गोपनीय जानकारियां उगलवाने की कोशिश की परंतु वे उनसे कुछ भी हासिल नहीं कर सके”। दादा देवीदत्त अग्निहोत्री 1936 में आचार्य नरेन्द्रदेव के नेतृत्व में बनी “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी” में सम्मिलित हो गए थे। जयप्रकाश नारायण इसके राष्ट्रीय सचिव थे।

दरअसल, 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने युद्ध की मुखालिफत और आजादी की जंग की तैयारियां प्रारंभ कर दी थीं। दादा देवीदत्त अग्निहोत्री ने 1940 में फतेहपुर में छह जनसभाएं करके युद्ध के साम्राजयवादी चरित्र को स्पष्ट करते हुए जिस प्रकार के भाषण दिए उन्हें राजद्रोह करार देकर बरतानिया साम्राज्य ने डेढ़ वर्ष का कठोर कारावास का दंड दिया। 1942 में “कांग्रेस ने अंग्रेजो भारत छोड़ो” का प्रस्ताव पारित कर जनता का आह्वान किया “करो या मरो”। देवीदत्त अग्निहोत्री भूमिगत हो गए और सरकार की नजरों से बचे रहकर विभिन्न स्थानों से विद्रोह संचालित करते रहे। इसी दौरान 2 नवम्बर, 1942 को गिरफ्तार हुए थे। जेल से 1945 में ही वे रिहा हुए। (संदर्भ : महान स्वतंत्रता सेनानी दादा देवीदत्त अग्निहोत्री – लेखक सुदर्शन चक्र; साप्ताहिक जय प्रदा 5 सितम्बर, 1977)।

(जारी)

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