— मिथिलेश श्रीवास्तव —
राजधानी दिल्ली में 35 फिरोजशाह रोड केंद्रीय ललित कला अकादमी का पता है। रवीन्द्र भवन तीन मंजिला इमारत है जहां कई कलदीर्घाएं हैं और इन दीर्घाओं में साल भर कोई न कोई कला प्रदर्शनी लगी ही रहती है। रवींद्र भवन के बाहर अकादमी का एक मूर्तिशिल्प गार्डन है जहां ललित कला अकादमी के निजी कला-भंडार से कुछ चुनी हुई कलाकृतियां इस खुली कलादीर्घा में स्थायी तौर पर या कुछ समय के लिए प्रदर्शित की जाती हैं। घूमते-फिरते मूर्तिशिल्प गार्डन की ओर चले जाना एक स्वाभाविक सी बात है। गए तो एक मूर्तिशिल्पीय संस्थापन दिख गया। संस्थापन या इंस्टालेशन जिसमें कई तरह की कलाओं का कोलाज या संयोजन एकसाथ होता है जिसके मार्फत कलाकार एक स्टेटमेंट दुनिया के सामने रखता है। यह स्टेटमेंट सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, मानवीय पहलुओं पर या किसी भी विषय या अनुभव या स्थिति या भविष्य या बीते हुए समय पर हो सकता है। किसी कला को देख शकर हम अपनी राय तो बना सकते हैं लेकिन हमें यह भी याद रहना चाहिए कि हर दर्शक किसी कलाकृति को देखकर अपनी स्वतंत्र राय बना सकता है। कलाकार की अपनी अलग राय हो सकती है। कला की यही सार्थकता है कि मनुष्य में विचार की चिनगारी पैदा करे, प्रश्नाकुलता जाग्रत करे। संस्थापन कला में माध्यम, कला-सामग्री और स्पेस का चुनाव कलाकार ही करता है और यह सब महत्त्वपूर्ण है।
ललित कला अकादमी के ओपन गार्डन कलादीर्घा में इस संस्थापन कला पर मेरी नजर पड़ी तो कई कोणों से उसकी तस्वीर मैंने ले ली लेकिन उसका शीर्षक और कलाकार का नाम देखना भूल गया। तो यहां मैंने कलाकार की बात जानने-समझने का अवसर खो दिया। उस तरफ जब अगली बार जाऊंगा तो इस संस्थापन का शीर्षक पता करूंगा। फिलहाल तो वही बात होगी जो स्वतःस्फूर्त विचार इसे देखकर आ रहा है। तो जो बात होगी वह अपनी समझ की बात होगी। लौहधातु के मध्यम आकर के बीस समरूप सिलिंडरों का उपयोग इस संस्थापन कला के सृजन में किया गया है। उनके रंग चमकीले नहीं हैं; बल्कि जो भी रंग है छीज रहा है, धूमिल पड़ रहा है जैसे कि उड़े हुए आभा वाले चहरे होते हैं जिन पर झुर्रियां अभी नहीं आयी हैं। चेहरे के रंग उड़े नहीं हैं और गालों पर झुर्रियां नहीं हैं तो आकृतियां एक ऐसे समय से गुजर रही हैं जहां संघर्ष ही संघर्ष है। अपने वजूद की लड़ाई सामूहिक तरीके से लड़ते हुए।
इस संस्थापन कला के प्रत्येक मूर्तिशिल्प का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। संस्थापन कला में शामिल किये जाने के पहले वे एक स्वतंत्र मूर्तिशिल्पीय सत्ता थीं। बीस स्वतंत्र मूर्तिशिल्प। एक सिलिंडर को एक व्यक्ति मान लें तो मानना पड़ेगा कि सिलिंड्रीकल हिस्सा पेट है और सिलिंडर से जुड़ा हुआ रॉड उसकी गर्दन है और उसके ऊपर उसका सिर जो खाली है। कपाल या खोपड़ी तो है लेकिन कपाल के भीतर का मस्तिष्क निकाल लिया गया है। गौर से देखें तो सभी मूर्तिशिल्पों की जीभें बाहर को निकली हुई हैं। बीस सिलिंडरों को चार कतारों और पांच कॉलमों में सटा-सटा कर रखा गया है। उनके आगे लौह धातु से निर्मित एक अलग रूपाकार है। उसकी भी जीभ निकली हुई है।
इन सिलिंडर आकृतियों में जीभ और सिर विशिष्ट जगह बनाते हैं। मनुष्य के मुंह में स्वाद की इंद्री जीभ इन सिलिंडरों और सबसे अलग अग्रणी रूपाकार में बाहर की ओर निकली हुई है जिसे स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। गुस्से में या गाली देते समय जीभ बाहर की ओर नहीं आती है। चाटने की गरज़ से मुंह से बाहर निकल गयी जीभ दोनों होठों के बीच में रहती है। चिढ़ाने के लिए मुंह से निकली हुई जीभ होंठों के बीच होती है। किन हालात में जीभ नीचे के होंठ से सटी रहती है। शायद गला दबाये जाने के समय सारा दबाव जीभ पर आ जाता है और जीभ बाहर की ओर निचले होंठ से सटते हुए बाहर निकल आती है। आकृति जो इन सिलिंड्रिकल आकृतियों के आगे दीख रही है उसकी भी जीभ निकली हुई है। जीभ किसी मानव त्रासदी का बिंब है जो इन रूपाकारों में अभिव्यक्त हो रहा है और मूर्तिशिल्पी की चाहत है कि दर्शक उसे समझें। ‘गला घोंटा जा रहा है’ यह एक मानवीय त्रासदी है।
जीभ के बाद सर की संरचना हमारा ध्यान आकर्षित करती है। हर आकृति की खोपड़ी खोखली है। मस्तिष्क गायब है। पैर नहीं हैं। जो दीख रहा है और जो नहीं दीख रहा है के बीच इस कला का वक्तव्य छिपा है। हम कितने गलत होते हैं जब जो दीख रहा होता है उसी के आधार पर अपना मंतव्य बना लेते हैं, एक अर्थ निकाल लेते हैं और कलाकृति की संभावनाओं को सीमित कर देते हैं। निसंदेह यह संस्थापन कलाकृति अलोकतांत्रिक अर्द्ध-मानवीय जीवन स्थितियों और मनुष्यता पर बढ़ रहे संकटों को चित्रित करती है और प्रतिरोध की नई अवधारणा रचती है ।यह नई अवधारणा यही है कि मनुष्य किसी भी स्थिति में रहते हुए प्रतिरोध कर सकता है।
गौर से देखने पर यह दिखायी दे रहा है कि सबकी जीभ निकली हुई है। शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि गैस का इतना दबाव है कि शारीरिक और मानसिक अवस्था बिगड़ गयी है। मनुष्य और इंसानियत पर कोई आसन्न खतरा मंडरा रहा है। सिर की बनावट भी देखिए ऐसी लग रही है जैसे कोई सॉफ्टवेयर उन्हें हैक कर चुका है। अगर ऐसा है तो समकालीन राजनीति पर एक क्रिटिकल टिप्पणी है। एक भयानक स्थिति का रूपक है। गैस सिलेंडर गैस चैम्बर का रूपक हो सकता है और प्रतिबिम्ब रूपाकार इंसान के लोकतांत्रिक अस्तित्व पर संकट।
जीभ दिखाना माने चिढ़ाना भी हो सकता है। समूह में एकसाथ आकर लोग जीभ दिखाकर अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं। प्रतिरोध की आवाज जिसे हमें सुनना चाहिए।संस्थापन कला है और सार्वजनिक रूप से उद्यान में प्रदर्शित है।
मूर्तिशिल्प और संस्थापन कलाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन भी कलात्मकता का हिस्सा है। अच्छी कला का डिस्प्ले कल्पनाशील न हो तो उसका प्रभाव बाधित हो जाता है। इस मूर्तिशिल्प के साथ भी यही हुआ है। प्रदर्शन पर गौर किया जा सकता है। पत्थर की एक संकरी पगडंडी पर इस संस्थापन को रख दिया गया है। इस तरह के प्रदर्शन से इसके भीतर का आवेग मर-सा गया है। लोग जो इसमें शामिल हैं जिनकी गर्दनें घोंटी जा रही हैं मरे नहीं हैं यातनाएं बर्दाश्त कर रहे हैं और प्रतिरोध कर रहे हैं। आवेग बनाए रखने के लिए इसे एक ऊँचे लंबे प्लेटफार्म पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
संस्थापन कला के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणी। आपने बिल्कुल सही लिखा है कि अच्छी कला का डिस्प्ले कल्पनाशील न हो तो उसका प्रभाव बाधित हो जाता है…
कला ख़ासकर संस्थापन की मूर्तिकला पर यह विशिष्ट लेख है जो हमें आधुनिक कला की समझ और दृष्टि देता है।