भूमंडलीकरण के विविध पहलुओं पर लेखक राजकुमार राकेश से शशांक कुमार की बातचीत
साहित्यकार राजकुमार राकेश समकालीन हिंदी कथाकारों की सूची में अपने विपुल आलोचनात्मक लेखन और अनुवादों के साथ शामिल हैं। चाहे उनका कथा साहित्य हो, या आलोचनाकर्म, उन्होंने अपने लेखन में भूमंडलीकरण के प्रभावों को प्रमुखता से दर्ज किया है। उनका उपन्यास ‘हवेली से बाहर’ (2000), ‘धर्मक्षेत्र’ (2013), और ‘कंदील’ (2015) भारत के गांवों और शहरों में भूमंडलीकरण से जो उथल-पुथल हुई, उसका प्रतिनिधि चित्रण करता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने लगभग एक दर्जन कहानियों में भी इस परिघटना की तफसीलों को अद्भुत कलात्मक कौशल से दर्ज किया है। राजकुमार राकेश की वैचारिकी भूमंडलीकरण के न सिर्फ सामाजिक पक्ष बल्कि इसके आर्थिक पक्ष और इसकी वैश्विक राजनीति पर भी पैनी नजर रखती है।
राजकुमार राकेश को इस वर्ष आधार प्रकाशन ‘प्रथम आधार सम्मान’ से सम्मानित करने जा रहा है। सम्मान समाराेह का आयोजन 20 दिसंबर, 2022 को चंडीगढ़ में होने जा रहा है।
इस अवसर पर असम विश्वविद्यालय से ‘भूमंडलीकृत ग्रामीण यथार्थ और हिंदी उपन्यास’ विषय पर शोध कर रहे शशांक कुमार ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसका अंश)
शशांक कुमार : आप भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के आरंभ को कब से देखते हैं?
राजकुमार राकेश : आपके इस प्रश्न में सुंदर दीखती एक निरीहता है, जबकि असल में इसके पार्श्व में एक उतना ही जरूरी दूसरा क्रूर सवाल झांक रहा है। भूमंडलीकरण कब शुरू हुआ से अधिक आवश्यक है कि आखिर यह शुरू क्यों हुआ। इस ‘क्यों’ में ही आपके ‘कब’ का उत्तर मौजूद है। मानवीय जीवन के ऐतिहासिक क्रम में आखिर ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी थी जिसने इस भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया। इसके जन्म की रीति-नीति क्या थी। क्या सिर्फ यह अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक अर्थशास्त्र मात्र का विषय है या पूरे विश्व की राजनीति पर किसी विशेष मुल्क या कुछ मुल्कों के एक समग्र समुच्चय द्वारा सामूहिक वर्चस्व की स्थापना का चालाक अभियान है? निश्चय ही आभासी तौर पर भूमंडलीकरण एक आर्थिक प्रक्रिया के तौर पर शुरू हुआ दीखता है, जिसका उद्देश्य पूरे भूमंडल को व्यापारिक रूप से एक छतनार साये तले स्थापित कर सिर्फ एक विश्व-बाजार बनाना रहा था, किन्तु यह सिर्फ उथला सच है, इसके भीतर के इस यथार्थ को समझ लेना अति-आवश्यक है कि यह महज एक व्यापारिक या आर्थिक प्रक्रिया मात्र नहीं है, बल्कि इसकी हर गहराई में जटिल अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक द्वंद्व व चातुर्य, कूटनीतिक रणनीतियाँ और मजलूम राष्ट्रों पर विकसित देशों के वर्चस्व की स्थापना का अश्वमेधी अभियान रहा है। सही है, समकालीन विश्व की राजनीति में से अगर अर्थशास्त्र को निकाल दिया जाए तब महज एक शून्य बचेगा। इसलिए संप्रभु राष्ट्रों का हमेशा यही प्रयास रहता है कि संसार की कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को निगलकर उनके संसाधनों पर कब्जा जमा लिया जाए। यह भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया में एक अंतर्निहित गिद्धदृष्टि है। आज के विश्व में किसी स्वयंप्रभु राष्ट्र को कब्जाने के लिए सेनाई हमले की जरूरत नहीं रही है, उसकी भौतिक और बौद्धिक संपदा को लूट लेना ही काफी है। इसलिए यह भूमंडलीकरण का वितंडा आर्थिक स्तर से शुरू होकर पहले दबे छिपे ढंग से और बाद में तमाम घूँघट उतारकर वर्चस्ववादी राष्ट्रों के खुलकर नाचने का उपक्रम है। अपने शुरुआती दौर में इस प्रक्रिया ने अपने इस अपरूप में जन्म नहीं लिया था, बल्कि यह व्यापक अंतरराष्ट्रीय पूंजीकरण, निजीकरण, तथाकथित उदारीकरण और मजलूम राष्ट्रों के आर्थिक संसाधनों पर कब्जे की जंग, जिनमें थोपे गए अनेक युद्ध शामिल हैं, के रूप में शुरू हुआ था।
1990 के आसपास जब सोवियत संघ ढह गया और समग्र सोवियत ब्लॉक खत्म होकर पूंजीवाद, जिसका नेतृत्व संयुक्त राज्य अमरीका करता था, के कुचक्र में जा फंसा, दुनिया एकध्रुवीय हो गई और तीसरी दुनिया के देशों ने अपने इस भाग्य से समझौता कर लिया कि आगे आवारा पूंजी ही शासन व्यवस्थाओं को संचालित करेगी, बाजार एक सच के रूप में मानवजीवन में स्थापित होगा, शासन सत्ताओं के माध्यम से आर्थिक नीतियों का सामाजिक संचालन व शासकीय नियंत्रण इत्यादि से मुक्त होकर एक सौ अस्सी डिग्री घूमकर निजीकरण की व्यवस्था के रूप में स्थापित होगा, जिसमें वंचित तबके उत्तरोत्तर गरीबी में जीने को मजबूर होंगे, इसे उदारीकरण का नाम दिया जाएगा। संसाधनों की लूट की इस व्यवस्था में राष्ट्र-राज्य अपने तौर पर आर्थिक व्यवस्थाओं के संचालन से खुदबखुद अपना हाथ पीछे खींच लेंगे और संसार पूरी तरह एक बाजार के रूप में स्थापित होगा। अमीर मुल्क उत्पादन के लिए वंचित देशों के संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए एफ.डी.आई. (फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) के नाम पर उनके मानवीय श्रम का सस्ता उपभोग करते हुए अपने लिए सस्ता उपभोक्ता सामान बनाकर अपने यहाँ ले जाएंगे। यह विश्वव्यापी लूट का एक साम्राज्य बनेगा।
सर्वाधिक दिलचस्प होगा भारत के संदर्भ में इसे देखना। संवैधानिक तौर पर हम ‘समाजवादी गणतन्त्र’ हैं, न केवल संविधान की प्रस्तावना में बल्कि इसके नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी। पूरी तरह तो नहीं लेकिन बड़ी हद तक हमने एक समतामूलक समाज की स्थापना में प्रयास अवश्य किए थे, जिसके नतीजे के तौर पर भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था जारी रही। देश में 1989 तक एकाध अपवाद को छोड़कर कमोबेश राजनैतिक स्थिरता का दौर रहा। लेकिन राजीव गांधी की सरकार के पतन के उपरांत भारत में राजनैतिक अस्थिरता का ऐसा दौर उत्पन्न हुआ जिसमें इस देश के संसाधनों के रखरखाव और उनके तर्कसंगत उपयोग की जिम्मेदारी जैसे किसी अदृश्य ताकत के भरोसे छोड़ दी गई थी। और तो और, महज चार महीने के लिए बनी चंद्रशेखर की सरकार ने सिर्फ एक काम अंजाम दिया, देश के कोषागार में रखा लाखों टन सोना स्विस बैंकों को बेच डाला, मुद्रा के विदेशी रिजर्व खाली कर डाले और आने वाले चुनाव में खुद तो अपना नामोनिशान मिटाने की जुगत बना ही ली बल्कि यह भी सुनिश्चित कर लिया कि आगे आने वाली सरकार के पास अर्थ का कोई विकल्प बचे ही न।
जब देश की बागडोर नरसिंह राव के हाथ में आई तब, कहा बताते हैं, भारतीय कोषागार में विदेशी मुद्रा का कुल रिजर्व अगले एक हफ्ते की उधार की किस्तें चुका सकने भर के लिए था। उसके बाद इस देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्रादाताओं के कर्ज की किस्तें चुकाने से डिफाल्टर हो जाना था। वैसे तो ये तथ्य सर्वविदित थे मगर बाद में खुद नरसिंह राव ने इनका सार्वजनिक खुलासा किया था। जब उन्होंने मंत्रिमंडल का गठन किया तब वित्त मंत्रालय अपने किसी साथी राजनेता के हवाले न करके एक ब्यूरोक्रैट के स्तर के अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को सौंपा। यह नियुक्ति इस देश के पूंजीकरण की दिशा में पहला ठोस कदम था। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले इस दिशा में कोई प्रयास हुआ ही न हो। राजीव गांधी ने इससे पांचेक बरस पहले नई औद्योगिक नीति जारी की थी, जिसमें इस प्रक्रिया के शुरुआती बीज मौजूद थे, किन्तु यह प्रक्रिया इतनी धीमी थी कि इस तरफ अधिक ध्यान गया नहीं। मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रालय में आ बैठने और अपना पहला बजट पेश करने तक शायद ही किसी को अंदाजा रहा होगा, कि आगे भारत की अर्थव्यवस्था क्या मोड़ लेने वाली है। 24 जुलाई, 1991 को जब उन्होंने लोकसभा में अपना पहला बजट पेश किया तो भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह खोल दिया, तमाम सरकारी और व्यवस्थागत अंकुश हटा दिये। उपभोक्ताकरण, बाजारी ताकतों का उदय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उदारीकरण की यही शुरुआत थी।
यही वह तारीख है, जिसने तय कर डाला था कि भविष्य का भारत पूंजीवाद, उदारवाद, निजीकरण और बाजारवाद की राह पर चलेगा और इससे किसी भी निकट भविष्य में वापसी संभव नहीं होगी। मनमोहन सिंह ने अपने उस बजट भाषण के अंत में विक्टर हयूगो की यह उक्ति उद्धृत की थी, “विश्व की कोई ताकत उस विचार को आने से नहीं रोक सकती जिसका समय आ चुका है।“ यह विचार पूंजीवाद से उत्पन्न होने वाले भूमंडलीकरण का विचार था और अपने तमाम कार्य-कारण के साथ यही समय भारत में भूमंडलीकरण के आने का समय था। भारत को विश्व-बाजार की शक्तियों के साथ जोड़ दिये जाने का समय था। अपने कार्यकाल के दौरान ही प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने वक्तव्य दिया था कि आने वाले समय में भारत संसार का सबसे बड़ा बाज़ार होगा। उस शुरुआत के बाद अब तक हमारे पास बत्तीस बरसों का इतिहास है, जिसमें डब्ल्यूटीओ की अनेकानेक शर्तें और डंकल प्रस्तावों के प्रभावों जैसे अनेक कदम चीन्हे जा सकते हैं।
शशांक कुमार : भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से हम चाहकर भी बाहर नहीं निकल सकते हैं या इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है?
राजकुमार राकेश : आज ऐसा प्रतीत होना बहुत स्वाभाविक है। भूमंडलीकरण की यह पूरी व्यवस्था पूंजी, बाजार, मुनाफे और शोषण के आधार पर टिकी है। अमीर लोग अधिकाधिक अमीर और वंचित तबके ज्यादा वंचित होते जाते हैं। पूंजी का फैलाव आमजन तक नहीं हो पाता बल्कि उलटे इसका संकुंचन होता है और इसका अधिकांश हिस्सा कुछेक हाथों में सिमटता जाता है। ऐसे में निजी पूंजी के मालिक कभी नहीं चाहेंगे कि इस व्यवस्था में तनिक सा भी हिलडुल हो। वे हर हाल में यथास्थिति बनाए रखना चाहेंगे ही। और जब सरकार का इस पूंजी से याराना हो तब तो मुश्किल अधिक व्यापक हो जाती है। वर्तमान विश्व-व्यवस्था में जब विश्व एकध्रुवीय दिखता है, तब निश्चय ही ऐसा लगना बहुत स्वाभाविक है कि इससे बाहर निकलने के विकल्प पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। किन्तु जीवन का एक यूटोपिया हमेशा जीवित रहता है, उसमें मानवजीवन को विकल्पहीन मान लेना मानवीय साम्य का विलोम रचने जैसा है। आदमी की उत्पत्ति में ही साम्य, समता और समानता के तत्त्व मौजूद हैं। एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य से असमानता अस्वाभाविक है। हर मानवीय असमानता कृत्रिम है, मनुष्य ने ही उसे पैदा किया है। खुद मनुष्य द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था का प्रतिरोध देर सवेर बनना ही है।
मानवीय इतिहास के क्रम में क्या कभी यह विकल्प दिखता रहा होगा कि रूस में एक रोज जारशाही का अंत होगा और मानवीय साम्य की स्थापना के लिए नई व्यवस्था स्थापित होगी? फिर वही व्यवस्था ढह जाएगी और वैश्विक पूंजीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा? चीन में यही क्रम दोहराया गया था। एक समय में विकल्पहीन दिखते हिटलर को आत्महत्या नहीं करनी पड़ी थी? तो निजी तौर पर मेरा तो यही मानना है कि एक सवेरा ऐसा आएगा जब पूंजी का यह वर्चस्व अपनी रंगत खो देगा। उसके बाद क्या व्यवस्था बनेगी इसपर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वर्तमान में मौजूद हर व्यवस्था के बीच ही उसके विकल्प के बीज अंतर्निहित होते हैं।
शशांक कुमार : भूमंडलीकरण के प्रभाव को दर्ज करने या प्रतिरोध करने में साहित्य और कला की क्या भूमिका हो सकती है?
राजकुमार राकेश : भूमंडलीकरण का यह विषय इतना विशद और व्यापक है जो अभिव्यक्ति की अनेक विधाओं का मसौदा बनाता है। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इंटरनेशल रिलेशन, अंतरराष्ट्रीय व्यापार जैसी विधाओं में इसकी अभिव्यक्ति हो रही है और अनंतकाल तक होती रहेगी। हर अध्ययन में इस प्रक्रिया के मानवजीवन पर पड़ने वाले बाह्य और आंतरिक, स्थूल और सूक्ष्म सभी प्रकार के प्रभावों पर यथासंभव संवाद हो रहे हैं। इनसे इतर मानवीय कलाओं में मनुष्य की संवेदना और सोच की अभिव्यक्ति मानवीयता को उत्स तक पहुँचाने का सबल और अनिवार्य माध्यम है। भूमंडलीकरण जैसी आर्थिक और राजनैतिक संरचना ने हमारे जीवन में अभूतपूर्व बदलाव उत्पन्न किए हैं। मानवीय रिश्तों की गरिमा, मनुष्य के अंतर्संबंधों की ऊष्मा और पूंजी से संचालित मानवीय व्यवहारों ने सामाजिक जीवन में अनगिनत परिवर्तन पैदा किए हैं। इन्हें साहित्य में दर्ज करने की कला अपने इस समय को दर्ज करने की अपरिहार्यता है। हर लेखक यह काम अपने उपलब्ध टूल्ज़ का उपयोग करते हुए आगे बढ़ता है। भूमंडलीकरण की यह पूरी प्रक्रिया अगर समकाल के लेखकों की कलम से छूट रही है तो कहना होगा कि हम कुछ बेहद जरूरी छोड़ते जा रहे हैं।
शशांक कुमार : भूमंडलीकरण के दौर में विविध विमर्शों (दलित, आदिवासी, स्त्री, ओबीसी आदि) का उदय हुआ है, इन विमर्शों का भूमंडलीकरण से सीधा रिश्ता बनता है, इन विमर्शों के प्रति आपकी क्या राय है?
राजकुमार राकेश : यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भूमंडलीकरण की तीन दशकों से अधिक लंबी यात्रा पर आज जब हम नए पर्सपेक्टिव में विचार करने पर बाध्य होते हैं, तो बहुत सारी निजी धारणाएँ, स्थापित विचार और अनेक निष्कर्ष कंपकंपाने और एक बड़ी हद तक डगमगाने लगते हैं। मेरा मानना तो यही रहा है कि भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने मानवीय रिश्तों में जितने नकारात्मक बदलाव लाए हैं वे बहुत हद तक अक्षम्य हैं, किन्तु इस पूरे दौर में जब दलित और औरत विमर्श के आईने में बहुत से झिलमिलाते प्रतिबिंबों पर गौर करता हूँ, तो एक अपराधबोध भी महसूस होने लगता है। इन तमाम विमर्शों की यात्रा ठीक उस वक्त शुरू हुई थी जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का आगाज था। वैसे यह जरूरी नहीं है कि इसने ही इन विमर्शों को जन्म दिया हो मगर एक समांतर यात्रा में ये इसी के बरक्स विकसित हुए हैं, इसलिए इनमें एक निश्चित अंतर्संबंध चीन्हा जा सकता है। यह हमारी अनेक पूर्वस्थापित धारणाओं पर पुनर्विचार की मांग करता प्रतीत होता है। मनुष्यजीवन की यही खासियत है कि इतिहास के अनेक बिन्दु उसे इस पुनर्विचार के लिए न केवल आमंत्रित करते हैं बल्कि मजबूर भी करते हैं।
अभी कुछ रोज पहले मेरी एक समकालीन कथाकार मित्र ने आपसी वार्तालाप में ऐसी कुछ बातें कहीं जिन्होंने मुझे अकस्मात मूक होने पर विवश कर डाला क्योंकि उनकी बातें किसी सैद्धान्तिक आधार पर न होकर प्रयोगात्मक जीवन से प्रसूत थीं। अनेक मुद्दों पर पुनर्विचार करने की मांग करती थीं। उन्होंने औरत की नई पीढ़ी के संदर्भ में पहले मुझसे पूछा कि क्या भूमंडलीकरण के इस पूरे दौर में औरत की आर्थिक स्थिति, उसकी सोच, उसके समग्र व्यवहार और समकालीन जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने की पूरी कला बदल नहीं गई है? उनका मानना है, पूंजी के जिस फैलाव का विरोध किया जाता है, उसने इस नई औरत के सामने नए और व्यापक आयाम खोले हैं। लड़कियां घर की चारदीवारी से बाहर निकली हैं, नई नौकरियों में गई हैं, एक निश्चित आय अर्जित करने का माद्दा उन्होंने अपने भीतर पैदा किया है, अब वे न तो अपने पिता या भाइयों के संसाधनों पर जीवित रहने को मजबूर हैं, न शादी के इंतजार में बेमतलब घर के भीतर बैठी हैं, वे पूरी धमक के साथ दफ्तरों, स्कूलों और बड़े से बड़े संस्थानों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही हैं, अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना रही हैं, सेक्स उनके लिए कोई टैबू नहीं है, न इसके लिए तथाकथित प्रेम, प्यार या विवाह के पर्दे की जरूरत है, वे बगैर किसी अपराधबोध के अपना मनपसंद दोस्त और सेक्स पार्टनर चुन रही हैं, और जब तक जरूरत हो निभा रही हैं, जब चाहे उससे मुक्त हो सकने की इच्छाशक्ति से लबरेज भी हैं। इस संवाद में मैं खुद को करीब करीब निरुत्तर पाने लगा था। साहित्य में जब यह तमाम स्त्री और दलित आवाज़ें एकमुश्त सामने आईं, और साहित्य का नया समाजशास्त्र स्थापित हुआ, वह समय भूमंडलीकरण की शुरुआत के आसपास का वक्त था। हमारे सामाजिक विकास के क्रम में यह बहुत महत्त्वपूर्ण बदलाव था।
शशांक कुमार : राष्ट्र सत्ता (State power) कमजोर हुई है, सब कुछ बाजार के हवाले चला गया है ऐसे में राज्य में निहित जनकल्याण की नीतियाँ कमजोर हुई हैं, इसे आप किस प्रकार से देख सकते हैं?
राजकुमार राकेश : स्टेट पावर को अगर पूंजी ही तय करती हो तो इस नए दौर में उसका कमजोर होना अपरिहार्य सच्चाई है, तब जनकल्याण की नीतियाँ सरकारों की वरीयता नहीं रह जातीं। पूंजी स्वामियों का एकमात्र मकसद अपना मुनाफा है, उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे जनता के कल्याण की भावना से परिचालित होंगे।
शशांक कुमार : “उदारतावादी लोकतंत्र ही एकमात्र शासकीय रूप है जिसके तहत सर्वव्यापी हो चुके आधुनिक राज्य का कामकाज ठीक से चलाया जा सकता है- फ्रांसिस फुकुयामा” इस पर आपके क्या विचार है?
राजकुमार राकेश : फ़्रांसिस फुकुयामा का यह कथन उसकी पुस्तक ‘एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ से उद्धृत है। मैं कहना चाहता हूँ, फुकुयामा अमरीकी साम्राज्यवाद का एक निहायत गैरजिम्मेदाराना टूल था। उसने इतिहास के विचार को नकारा, संसार से समाजवादी व्यवस्था के ढह जाने का जश्न मनाया और वैश्विक पूंजीवाद की स्थापना को इतिहास का अंत घोषित कर दिया। मुझे कभी समझ नहीं आया कि जब तक इस पृथ्वी पर मानव जीवन है तब तक इतिहास का अंत कैसे हो सकता है! इतिहास तो एक अनवरत प्रक्रिया है और उसमें ‘अंतिम आदमी’ की अवधारणा वाहियात और अतिकथन है। जिस उदारवादी लोकतन्त्र की वह बात करता है वह वास्तव में पूंजी का एकाधिकारवादी साम्राज्य है। उसमें तथाकथित चुनी हुई व्यवस्था के स्थान पर पूंजी और उसके स्वामियों का एकाधिकार होता है। वे ही इस नए लोकतन्त्र की रीति-नीति तय करते हैं। यह राज्य के इकबाल को कमजोर करता है। आपके पिछले प्रश्न में जिस स्टेट पावर के कमजोर होने का जिक्र है दरअसल वह इसी बिन्दु से प्रसूत हुआ है।
शशांक कुमार : भूमंडलीकरण का ग्रामीण विकास पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर आपके विचार जानना चाहूँगा।
राजकुमार राकेश : इस प्रश्न के उत्तर में एक आमफहम और बेहद साधारणीकृत वाक्य कहना होगा कि अधिकांश भारत गांवों का देश है, किन्तु जब यह उक्ति कथन में आई थी तब और अब के भारत में बहुत व्यापक फर्क आ चुका है। एक हद तक गाँव और शहर की मानसिकता का अंतर कम हुआ है। निश्चय ही, यह भूमंडलीकरण का प्रभाव है। गांवों से श्रम का पलायन बढ़ा है, वैसे यह एकदम नया भी नहीं है, प्रेमचंद के गोदान में भी बनारस के गांवों से लोग श्रम की टोह में लखनऊ शहर की ओर जा ही रहे थे, किन्तु भूमंडलीकरण के बाद यह उत्तरोत्तर बढ़ा है, अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, गांवों में भी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा का क्रेज पैदा हुआ है, नई ग्रामीण पीढ़ियों की कृषि क्षेत्र में रुचि खत्म हुई है, या कम से कम घटती जा रही है, गांवों के संसाधनों पर पूँजीपतियों की नजर जा जमी है, कृषियोग्य भूमि का अधिग्रहण हो रहा है, एक ओर जहां सरकारें इस भूमि पर बांध, सड़कें या हवाई अड्डे जैसी स्थापनाएँ कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर पूंजी के स्वामी किसानों को अपदस्थ करके उनकी भूमि पर उद्योग स्थापित कर रहे हैं, श्रम का अवमूल्यन हुआ है, बिल्डर माफिया इसी कृषिभूमि पर आसमान छूते अपार्टमेंट्स का निर्माण कर रहे हैं, भारत का स्थापित और नया बनता दोनों किस्म का मध्यवर्ग बैंकों के कर्जों या अन्य साधनों से उसमें बसने को आतुर है।
बेरोजगारी बढ़ने के कारण भी और दूसरे अनेक संबंधित कारणों से अपराध ने गांवों को अपनी जकड़ में किया है। किसानों की आर्थिक स्थिति ऊपर उठने की बजाय नीचे गिरती जा रही है, वे कर्जों के बोझ तले दबते जा रहे हैं। जो लोग गांवों से पलायन कर चुके, वे कर चुके, किन्तु जो वहाँ रह गए हैं वे भी पिज्जा और बर्गर के स्वाद को लालायित हैं। इस सब के बावजूद कहना होगा कि साधनों की उपलब्धता में ग्रामों में वृद्धि हुई है, आकांक्षाएँ बढ़ी हैं, सड़क, पानी, बिजली और अन्य साधनों की प्राप्ति के प्रति जागरूकता बढ़ी है, इससे चुनी जाने वाली सरकारें जन-दवाब महसूस करती हैं।