चौधरी चरण सिंह – जैसा मैंने देखा और समझा। -पहली किस्त

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चौधरी चरण सिंह (23 दिसंबर 1902 - 29 मई 1987)


— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

चौधरी चरण सिंह का शुरू में, मैं निंदक था। 1970 में चौधरी साहब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने एक आदेश जारी कर प्रदेश के विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में अनिवार्य छात्र संघ परिपाटी को समाप्त कर दिया था, इसके विरोध में समाजवादी युवजन सभा ने लखनऊ में प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। चौधरी साहब ने इसके साथ एक हिदायत भी जेल अधीक्षकों को भेज दी कि इनके साथ जेल नियमानुसार व्यवहार किया जाए, किसी तरह की विशेष छूट नहीं होनी चाहिए क्योंकि जेल कोई पिकनिक स्पॉट नहीं है। इस हिदायत से जेल अधिकारियों का व्यवहार बंदियों के लिए कटु हो गया।

इस घटना से मेरे मन में उनके लिए अधिक कड़वाहट उत्पन्न हो गई। 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद मुझे गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल ले जाया गया तथा वार्ड नंबर 14 में रखा गया, 14 नंबर वार्ड में आपराधिक कैदियों को रखा जाता था। मीसा बंदियों के लिए वार्ड नंबर 2 तथा 17 नंबर वार्ड था। जेल में आने पर मुझे पता लगा कि चौधरी चरण सिंह भी वही बंदी हैं, मेरे मन में चौधरी साहब का विरोध तो था ही मैंने उन्हें उनके सैल के बाहर से देखा। खादी का बनियान धोती पहने, चश्मा लगाये कुछ लिख रहे थे। मैंने सेल के बाहर से ही आवाज लगाते हुए कहा कि चौधरी साहब नमस्कार, उन्होंने मेरी और देखे बिना ही जवाब में हल्का सा हाथ उठा दिया, मैंने पलट के फिर कहा चौधरी साहब आपको यहां देखकर बड़ी खुशी हुई, अब आपको पता चलेगा यह जेल है या पिकनिक स्पॉट। चौधरी साहब ने कहा तुम कौन हो? मैंने कहा कि मैं समाजवादी पार्टी का कार्यकर्ता हूं, तथा मीसाबंदी हूं, इतना सुनकर उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और पूछा तुम ऐसी बात क्यों कर रहे हो?

मैंने लखनऊ वाली घटना उनको सुना दी, उन्होंने कहा वह आदेश तो मैंने गुंडों के लिए दिया था, शरीफों के लिए नहीं। मैंने फिर कहा चौधरी साहब माफ करें इंदिरा गांधी की नजर में आप और मैं दोनों ही गुंडे हैं। मेरी बात को सुनकर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा तुम बहुत बोलते हो, तुम्हारी शिकायत मैं तुम्हारे नेता राजनारायण जी से करूंगा। वार्ड में चौधरी साहब, मैं तथा मेरे साथी रविंद्र मनचंदा हम तीन लोग ही राजनीतिक बंदी थे। इसलिए पहले दिन से ही मेरा चौधरी साहब से सीधा संपर्क स्थापित हो गया।

जेल जीवन में 24 घंटे साथ रहने पर किसी भी व्यक्ति की असलियत का पता चल जाता है, चौधरी साहब के प्रति मेरे मन के पूर्वाग्रह पहले दिन से ही खत्म होते चले गए। 1937 की प्रांतीय असेंबली की सदस्यता से लेकर निरंतर मंत्री पद पर बने रहने, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद सादगी से भरे उनके जीवन को देखकर अनायास ही मेरे मन में उनके लिए आदर उत्पन्न हो गया। जेल में उनका अधिकतर समय लिखने-पढ़ने में बीतता था, उस समय वे अपनी पुस्तक “इंडियन इकोनोमिक पालिसी; द गांधियन ब्लू प्रिंट” की संरचना में लगे रहते थे। सायंकाल एक छोटा लोटा चाय, उसके साथ भुने हुए चने और गुड़ को खाते देखकर मुझे लगता था यह सचमुच के गांव वाले किसान हैं। जेल में उनका एकमात्र मनोरंजन शाम के वक्त ताश खेलना था। वे गांधीजी के अंधभक्त थे, जेल में राजनीतिक चर्चा में वे सदैव गांधी का संदर्भ दिया करते थे।

जेल से छूटने के बाद भी मेरा संबंध उनसे बना रहा। समाजवादी नेता मधु लिमये के निकट संपर्क में रहने के कारण मैं उनके राजनीतिक पत्र व्यवहार एवं सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए चौधरी साहब से मिलता रहता था। मैंने बहुत से राष्ट्रीय नेताओं को निकट से देखा है, कथनी और करनी का भारी अंतर उनमें दिखाई पड़ता है। विपक्ष का क्रांतिकारी सत्ता के गलियारे में प्रवेश करते ही भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, ईमानदारी सब कुछ बदल देता है। भाषण में पूंजीपतियों को गाली परंतु व्यवहार में जी हजूरी करना उनकी आदत बन जाती है। परंतु चौधरी साहब उनसे अलग थे। भारत का गृह मंत्री बनने के बाद उन्होंने देश के बड़े पूंजीपति बिड़ला की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए थे। मैं मधु जी के साथ उनके निवास स्थान पर गया हुआ था। मेरी ओर हंसते उन्होंने कहा, तुम तो समाजवादी हो मैंने बिड़ला को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया है अब देखना है कि तुम्हारे समाजवादी क्या करते हैं? यह कोई साधारण घटना नहीं थी, इस देश में कोई बिड़ला को गिरफ्तार करने की हिम्मत करे सिवाय एक मधु लिमये को छोड़कर अन्य किसी नेता ने चौधरी साहब के इस कार्य का सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तो गिरफ्तारी के विरोधी ही थे।

इसी संदर्भ में मुझे एक अन्य घटना याद आती है, मधुजी का एक संदेश लेकर मैं चौधरी साहब के यहां गया। चौधरी साहब उस समय प्रधानमंत्री थे। मैं उनकी बैठक में बैठा हुआ था इसी बीच उनके सहायक ने सूचना दी कि बिड़ला जी दर्शन करना चाहते हैं। चौधरी साहब ने तत्काल कहा कि मैं उनसे क्यों मिलूं, उन्होंने उनसे मिलने के लिए मना कर दिया। कुछ ही क्षणों में राजनारायण जी वहां पर दिखाई दिए, मैंने यह सोचकर कि शायद राजनारायण जी को भी कोई आवश्यक बात करनी होगी, इसलिए चौधरी साहब से जाने की इजाजत मांगी, उन्होंने बैठने का इशारा किया। कुछ मिनटों के बाद माताजी (चौधरी साहब की धर्मपत्नी) बैठक के अंदर आईं और उन्होंने कहा कि एक आदमी आपका कुशलक्षेम पूछने आया है, सैकड़ों लोगों से आप मिलते हैं इनसे भी मिल लो, मैं किसी काम के लिए तो सिफारिश नहीं कर रही। माताजी के बाहर जाने के बाद बिड़ला जी हाथ में बड़ा फूलों का बुके लेकर चौधरी साहब के कमरे में आए तथा कहा कि चौधरी साहब, मैं आपके दर्शन करने आया हूं। चौधरी साहब ने तत्काल कहा देखो भाई, मैं तुम्हारे खिलाफ हूं, तुम लोग गरीबों को नुकसान पहुंचाते हो, हां यह बात जरूर है कि तुम्हारे पिताजी भले आदमी थे, देशभक्त थे, महात्मा जी के साथ थे इसलिए मैं उनकी तो इज्जत करता हूं। बिड़ला जी ने बाद में अपनी किताब में लिखा “धन के मामले में, चौधरी साहब पूर्ण रूप से बेदाग हैं।”

आज की राजनीति की विडंबना देखिए कि ज्यादातर विधायक, संसद-सदस्य किसी एक चुनाव क्षेत्र से जीतने के बाद दोबारा वहां से लड़ना नहीं चाहते, नया चुनाव क्षेत्र पसंद करते हैं। परंतु एक बार के अपवाद को छोड़कर 1937 से लेकर मृत्युपर्यंत तक वे एक ही चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़कर, हर बार रिकॉर्ड तोड़ते रहे। उनके चुनाव क्षेत्र के संबंध में एक और रोचक तथ्य यह भी है कि क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए वे सूबे के मंत्री, केंद्र के गृहमंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुए अंत में प्रधानमंत्री भी बने। विकास की दृष्टि से अगर देखें तो उनका चुनाव क्षेत्र बागपत पिछड़ा ही रहा। एमएलए तथा संसद सदस्य के अधिकार क्षेत्र तक सीमित विकास ही वहां पर हो पाया। उन्होंने अपने मंत्री पद का अतिरिक्त लाभ उठाते हुए कोई विकास का कार्य वहां नहीं कराया।

मैं चौधरी साहब के विधानसभा क्षेत्र छपरोली के गांव शबगा का रहने वाला हूं। मेरा पुश्तैनी मकान आज भी गांव में है। मेरा गांव जाट बाहुल्य है, चौधरी साहब की बेइंतहा इज्जत करने के बावजूद आज के वहां के नौजवान इस बात से जरूर खफा नजर आते हैं कि चौधरी साहब ने इलाके के लिए कुछ नहीं किया। और यह बात सही भी है, चौधरी साहब के रहते हुए दिल्ली शाहदरा से सहारनपुर चलने वाली रेल लाइन सिंगल पटरी वाली बनी रही। मेरा गांव दिल्ली से केवल 62 किलोमीटर दूर है, परंतु आज भी वहां जाने में दो-तीन घंटे का समय लग जाता है। दिल्ली से गांव तक दोनों और हरे-भरे खेती से लहराते हुए खेत देखने को मिलेंगे परंतु कोई बड़ी इंडस्ट्री, अस्पताल,शिक्षा संस्थान, शिक्षा के क्षेत्र में केवलमात्र जो पहले समाज ने बड़ौत में जाट कॉलेज और जैन कॉलेज बनवाए थे आज तक अन्य कोई शैक्षणिक संस्था मेरी नजर में अभी तक नहीं आई है।

चौधरी साहब की मान्यता थी कि मैं पूरे राज्य अथवा राष्ट्र का प्रतिनिधि हूं। समग्रता में ही राज्य तथा राष्ट्र के साथ-साथ मेरे क्षेत्र का विकास होना चाहिए, मैं अपने पद का अनुचित लाभ उठाते हुए अपने क्षेत्र का विकास करवाऊं, यह बेईमानी है। किस्सा तो यहां तक कहा जाता है कि एक बार इलाके के किसान चौधरी साहब के यहां गन्ने की खेती की शिकायत लेकर गए तो चौधरी साहब ने कहा कि मेरे सिर पर उगा दो। यह भी सर्वविदित है कि चौधरी साहब व्यक्तिगत कार्यों से परहेज बरतते थे।

अब प्रश्न उठता कि इसके बावजूद वे हर बार चुनाव क्यों जीत जाते थे? इसका सीधा सा उत्तर है उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी की धाक। एक गरीब किसान के छप्पर के घर में पैदा होने वाले, चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री जैसे पद पर रहने के बावजूद निजी जीवन में वही गरीब किसान बने रहे। किसी तरह की धन-दौलत संपत्ति, बैंक बैलेंस उनके पास नहीं रहा। खादी का कुर्ता और धोती पहनने वाला किसान का बेटा प्रधानमंत्री बनने पर भी देश का राज फर्श पर दरी बिछाए पुराने मुनीम वाले डेस्क को सामने रखकर चलाता था। और दूसरी बात यह है उनकी हर बात घूम -फिर कर गरीब किसान के इर्द-गिर्द सिमट जाती थी। यही मूल मंत्र था उनकी निरंतर जीत का, उनका मतदाता देसी भाषा में कहता था। हमारा चौधरी ईमानदारी में सूरज की तरह चमकता है, अगर चाहता तो अपने लिए क्या नहीं कर सकता था, इसलिए वोट तो हम उसे ही देंगे। हिंदुस्तान की राजनीति में वे एक अन्य बात के लिए भी हमेशा जाने जाएंगे।

(जारी है)

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