— श्रीनिवास —
कभी इंदिरा गांधी ने ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की बात की थी। वही बात यह सरकार अधिक बुलंदी से और खुलकर कह रही है। सरकार खुलेआम सुप्रीम कोर्ट को अपनी हद में रहने को कह रही है। यह बात सीधे प्रधानमंत्री नहीं कह रहे, इसके लिए कानून मंत्री रिजीजू को आगे किया गया है, जो लगतार सुप्रीम कोर्ट को बता रहे हैं कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
गत 15 दिसंबर को राज्यसभा में कानून मंत्री श्री रिजीजू ने सुप्रीम कोर्ट को ‘हिदायत’ दी कि उसे (सुप्रीम कोर्ट को) किसी अभियुक्त की जमानत याचिका या छोटे-मोटे मामलों को सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं करना चाहिए! यह भी कि अगर किसी फोरम में किसी केस का फैसला आ जाता है, तो उसे अदालत में ट्रायल करना गलत है।
कानून मंत्री की उस अनावश्यक टिप्पणी के दो दिन बाद शुक्रवार 16 दिसंबर को मुख्य न्यायाधीश ने इशारों में जवाब भी दिया कि हमारे लिए कोई मामला छोटा नहीं होता। बिजली के उपकरण की चोरी के एक मामले में फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिंहा की बेंच ने कहा कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट के आम नागरिक के अधिकारों की रक्षा और उसे न्याय दिलाने के औचित्य का ज्वलंत उदाहरण है। उस मामले में आरोपी को कुल 18 वर्ष कैद की सजा सुना दी गयी थी।
सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम द्वारा नए जजों के नामों की सूची पर फैसला लेने में हो रहे विलम्ब पर चिंता या अप्रसन्नता जाहिर करने पर कानून मंत्री ने सीधे कह दिया कि हम(सरकार) इस सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं कर सकते। क्या अदा है!
संवैधानिक रूप से यह सही है कि इस तरह के फैसले राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही मान्य होते हैं। पर कौन नहीं जानता कि व्यवहार में फैसला सरकार ही करती है। कानून मंत्री में यह कहने का साहस होना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट के कहने से या उसकी सहूलियत के लिए सरकार जल्दी फैसला लेने के लिए बाध्य नहीं है। राष्ट्रपति का बहाना क्यों?
न्यायपालिका के प्रति सत्तारूढ़ जमात में हिकारत और अवमानना का कैसा भाव है, यह इससे भी पता चलता है कि उत्तर प्रदेश, दिल्ली और असम आदि आदि में अभियुक्त के घर पर बुलडोजर चलाने के लिए अदालतों की फटकार के बावजूद योगी आदित्यनाथ गुजरात में चुनाव प्रचार करने गये तो शान से बुलडोजर का प्रदर्शन किया गया। मानो कोर्ट को कह रहे हों कि क्या बिगाड़ लीजिएगा! असल में इंदिरा गांधी की आलोचना करने वाले अनेक मामलों में उनको ही आदर्श मानते हैं!
बहरहाल, कानून में मंत्री द्वारा उच्चारित ‘किसी फोरम’ से क्या अर्थ निकला जाए? यानी कोई संस्थान, कोई सरकारी विभाग अपने किसी कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई करे, तो उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जानी चाहिए? निचली अदालतों के फैसले को हाईकोर्ट में और हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं देनी चाहिए? और कोई चुनौती दे तो ऊपर की अदालत उस पर विचार ही नहीं करे?
बेशक कुछ अभियुक्त सजा और फैसले को टालने के लिए इस तरह की याचिका दायर करते हैं। मगर इस आधार पर निचली अदालत या हाईकोर्ट के फैसले को अंतिम मान लिया जाए, तो बहुतेरे मामलों में न्याय अधूरा रह जाएगा। अनेक अपराधी बरी हो जाएंगे और अनेक निरपराध को सजा हो जाएगी।
फिलहाल इस संबंध में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, पर एक अनुमान (बकौल एक युवा अधिवक्ता) के अनुसार जिला स्तरीय अदालतों के करीब दस प्रतिशत फैसले हाईकोर्ट द्वारा बदल या पलट दिये जाते हैं। इसी तरह हाईकोर्ट के लगभग पांच फीसदी फैसले सुप्रीम कोर्ट में रद्द हो जाते हैं। (इन पंक्तियों का लेखक इन आंकड़ों की पुष्टि नहीं करता, मगर ऐसे उदहारण तो हैं ही कि निचली अदालत से जिसे आजीवन कारावास की सजा मिल चुकी होती है और जिसे हाईकोर्ट भी सही ठहरा चुका होता है, सुप्रीम ने उसे बेगुनाह मान लिया; या मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।) वैसे मेरी समझ से तीन स्तरों की अदालतों के गठन का मकसद ही यही है कि अभियुक्त को निचली अदालत का फैसला दोषपूर्ण लगे तो वह ऊपर की अदालत में न्याय की गुहार लगा सके।
प्रसंगवश 16 दिसंबर को छपी खबर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड (2002) के एक मामले में 2004 से अब तक 18 साल की सजा काट चुके फारूक नाम के एक दोषी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया। उस पर पत्थरबाजी का आरोप था। हालांकि उस पर हत्या का भी आरोप था, जिसे अदालत में सही माना गया। कानून मंत्री या सरकार के अनुसार तो सुप्रीम कोर्ट को इस मामले पर सुनवाई ही नहीं करनी चाहिए थी।
उल्लेखनीय है कि 27 फरवरी, 2002 के दिन गोधरा स्टेशन के पास ट्रेन की दो बोगियों में 59 यात्री जिंदा जल गए थे। इस आधार पर उस मामले में गिरफ्तार सभी लोगों पर हत्या का आरोप लगा, जिनमें फारूक भी था। गुजरात सरकार ने ‘स्वाभाविक’ ही सुप्रीम कोर्ट में उक्त फैसले का पुरजोर विरोध किया। राज्य सरकार की ओर से पेश सोलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि वह सामान्य पत्थरबाजी नहीं थी। उसका मकसद था कि जलती ट्रेन से कोई यात्री बाहर न निकल सके; और बाहर से कोई उनकी मदद भी नहीं कर सके। बेशक इस दलील में दम है, लेकिन उत्तेजना और उन्माद के उस माहौल में हर किसी को हत्यारा मान लेना भी सही नहीं लगता।
पत्थरबाजी में शामिल सबों का एक ही मकसद हो, जरूरी नहीं है। और जब भीड़ हिंसा पर उतारू हो, तब उस भीड़ में शामिल हर किसी पर सामान्यतया हत्या का आरोप भी नहीं लगता। इसी सरकार ने भीड़-हत्या के लिए अलग से कानून बनाने की, ऐसी हत्याओं की अलग सूची बनाने की मांग भी खारिज कर दी है। शायद इसलिए कि बीते वर्षों में ऐसी भीड़-हत्या के शिकार एक समुदाय विशेष के लोग होते रहे हैं; और हत्यारी भीड़ अमूमन एक खास समुदाय की। ऐसी हत्याओं को अब ‘सामान्य हत्या’ के रूप में दर्ज किया जाने लगा है। ऐसे में गोधरा के उस लोमहर्षक हिंसक कृत्य के बाद जितने लोगों को गिरफ्तार किया गया, पुलिस ने सबों पर हत्या का आरोप लगा दिया।
मगर फारूक को जमानत दिए जाने का विरोध करते हुए सरकार को यह बात याद रखनी चाहिए थी कि अभी कुछ माह पहले हत्या और सामूहिक बलात्कार के दोषसिद्ध और उम्रकैद काट रहे 11 दरिंदों को राज्य सरकार ने, जिस फैसले को केंद्र की सहमति प्राप्त थी, उनके ‘अच्छे आचरण’ के तर्क से उनकी शेष सजा माफ कर जेल से रिहा कर दिया था। वैसे सुप्रीम कोर्ट उसी मामले के 17 अन्य दोषियों के मामलों की सुनवाई आगे करेगा। यानी कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव का एक और मुद्दा!
वैसे भी जजों की बहाली के मुद्दे पर केंद्र का दृढ़ और आक्रामक रुख बरकरार है। केंद्र सरकार का रुख बता रहा है कि ऐसे मामलों के कारण भी सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच टकराव होता रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता बचाये रखने की कठिन चुनौती है। वह बची रहे, यह लोकतंत्र की एक बुनियादी शर्त है। ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की चाह और कुछ नहीं, न्यायपालिका को सर्वशक्तिमान कार्यपालिका यानी सरकार की चेरी बनाने की मंशा है, जो देश के तानाशाही की ओर बढ़ने का एक और कदम साबित होगा।