लोहिया का अपना समाजवाद

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी दृष्टि के विकास में निश्चय ही मार्क्सवाद तथा समाजवाद की अन्य धाराओं की भूमिका होगी। लेकिन समाजवाद को उन्होंने जिस तरह देखा और अपनाया, वह उनका अपना सृजन है। यह न तो चूं-चूं का मुरब्बा है, न ही भानुमति का पिटारा। यह असाधारण रूप से एकान्वित है। लेकिन सिर्फ एकान्विति से कोई दर्शन महान नहीं हो जाता। लोहिया के समाजवादी दर्शन में अपने समय की वास्तविक चुनौतियों को समझने और देश तथा दुनिया की विविध समस्याओं का समाधान खोजने की बेचैनी और सामर्थ्य, दोनों दिखाई पड़ते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि लोहिया के समाजवाद में समग्रता का जज्बा है। इसलिए उसमें एक पूर्ण जीवन-दर्शन बनने की संभावना वास करती है। यह एक बड़ा कारण है कि परिवर्तन के आकांक्षी हजारों नौजवान तथा अन्य लोग लोहिया की ओर इस तरह खिंचे जैसे प्यासा नदी की ओर भागता है। ये वे लोग थे जो उस समय के सबसे शक्तिशाली नेता जवाहरलाल नेहरू की नीतियों और आचरण से छले गए महसूस करते थे और जिन्हें गांधी से पूरी तसल्ली नहीं होती थी।

लोहिया के समाजवाद की विशेषताएं क्या थीं?

1. यह पूरी तरह से भारतीय मन की उपज थी। इसकी अपनी शब्दावली थी। इसका अपना वितान था। उदाहरण के लिए, लोहिया जब समता के मूल्य की चर्चा करते हैं, तो उन्हें उपनिषदों के ऋषि भी याद आते हैं जो हर स्थिति में समभाव रखने के आग्रही थे। वस्तुतः इस प्रकार की मानसिक ट्रेनिंग के बिना जीवन में कोई ठोस और टिकाऊ संतुलन नहीं बनाया जा सकता। निजी संपत्ति की जड़ में आसक्ति की केंद्रीय भूमिका है। आसक्ति मैं-केंद्रित होती है, जबकि जो कुछ है, उसमें दूसरों का भी बराबर हिस्सा है। किसी हद तक अनासक्ति की साधना के किए बगैर समाजवादी समाज नहीं बनाया जा सकता। लेकिन यह अनासक्ति वैराग्य की सहयोगिनी नहीं, बल्कि जीवन को छक कर जीने की आवश्यक शर्त है। लोहिया इसका उदाहरण कृष्ण के रंगीन, पर निर्विकार व्यक्तित्व से देते हैं। इस प्रकार, लोहिया का समाजवाद पूर्णतः इहलौकिक होते हुए भी उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तथा सभ्यता को संस्कृति का परिष्कार देने की कोशिश करता है। इसी से दूसरे नरक नहीं रह जाते, वे हमारी अनुभूति का स्थायी अंग बन जाते हैं।

2. लोहिया का समाजवाद भारत की विशेष स्थिति को समझने और उसके अनुसार मुद्दे निर्धारित करने की कोशिश करता है। उनके पहले और उनके बाद भी कोई ऐसा चिंतक या नेता दिखाई नहीं पड़ता जिसने जाति और भाषा के सवाल को निर्णायक महत्त्व दिया हो। आज भी जाति-प्रथा के उन्मूलन की कोई कार्यनीति दिखाई नहीं पड़ती, जबकि आरक्षण का ढोल और जोर से पीटा जाने लगा है, जो लोहिया के लिए अवसर की समानता के जरिए जाति को कमजोर करने और प्रगति में सबकी साझीदारी सुनिश्चित करने का एक माध्यम था।। लोहिया की आरक्षण योजना स्त्रियों को विशेष मौका दिए बगैर पूरी नहीं होती थी। पर आज स्त्रियों के लिए आरक्षण को सभी राजनीतिक धाराओं द्वारा शक की निगाह से देखा जाता है।

इसी तरह, भाषा के सवाल पर लोहिया की उग्रता को लेकर आज भी स्वार्थपूर्ण या बेवकूफी भरे एतराज जाहिर किए जाते हैं। भारत के सार्वजनिक जीवन में, जिसमें शिक्षा, प्रशासन, न्याय, विज्ञान और विचार विनिमय सब शामिल हैं, अंग्रेजी की सर्वनाशी भूमिका को लोहिया के अलावा और किसने इतने आग्रह के साथ प्रतिपादित किया था? भारत में समाजवाद की कोई भी राजनीति अंग्रेजी के बहिष्कार के बिना नहीं चल सकती। सचमुच, अंग्रेजी ने भारत का एक और विभाजन कर दिया है, जिसमें सिर्फ देशी भाषाओं का व्यवहार करने वाले लोगों की हैसियत जानवर से भी नीची है, जबकि अंग्रेजी जानना स्वर्ग की पहली सीढ़ी का काम कर रहा है।

3. भारत से आगे, लोहिया के समाजवाद में एशियाई स्वाभिमान की खुशबू है। इस खुशबू में अफ्रीका की अनोखी रंगत भी शामिल है, यों कि यूरोप ने पिछले तीन सौ वर्षों में इतिहास को जो दिशा दी है, उसका एक जैसा शिकार ये दोनों महादेश रह चुके हैं। फलस्वरूप लोहिया ने पश्चिम के इरादों पर हमेशा संदेह किया है। इसके जोश में वे यह दावा करने की हद तक चले गए कि मार्क्सवाद एशिया के खिलाफ यूरोप का आखिरी हथियार है। पश्चिमी सभ्यता के कुछ गुणों को स्वीकार करते हुए भी लोहिया को बराबर लगता रहा कि इस सभ्यता में अपने को नया जीवन प्रदान करने की क्षमता नहीं रह ग्ई है। पश्चिम की विश्व-दृष्टि में हमेशा कुछ न कुछ खोट रहा है और औद्योगिक क्रांति के बाद तो वह राक्षसी सभ्यता का केंद्र बन बैठी। वर्तमान वैश्वीकरण विश्ववाद की सहेली नहीं, उसकी सौतन है।

इसके बावजूद, लोहिया किसी से कम अंतरराष्ट्रीतायवादी नहीं थे। उनके चौखंबा राज्य के ऊपर एक और खंबा था- विश्व संसद और विश्व सरकार का। हैरत की बात है कि आज ज्यादातर समस्याएं, मसलन आतंकवाद, खाद्य संकट, पर्यावरण के प्रश्न, वैश्विक रूप ले चुकी हैं, फिर भी विश्व सरकार का कोई नाम तक नहीं लेता। लोहिया यह भी मानते थे कि मनुष्य को धरती पर कहीं भी आने-जाने की छूट होनी चाहिए। उन्हें अंतरराष्ट्रीय जमींदारी भी कम परेशान नहीं करती थी, जिसके जरिए छोटी-छोटी आबादियों ने धरती के बड़े-बड़े टुकड़ों पर कब्जा कर रखा है।

4. समाजवाद की जो दूसरी धाराएं उपलब्ध हैं, उनमें उत्पादन के ढांचे, पूंजी की भूमिका और उपभोग की सीमा के बारे में कोई यथार्थसंगत कैफियत नहीं मिलती। सभी यह मानते हैं कि पश्चिमी रहन-सहन ही पूरी दुनिया का भविष्य है और सभी को यही भविष्य हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। सोवियत संघ इसी लालसा के चलते मारा गया और अब चीन को पूंजीवाद आकर्षित कर रहा है। उपभोग को उपभोक्तावाद में बदल डालने की तरंग समाजवादी समाज के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। लेकिन लोहिया को छोड़कर तीसरी दुनिया के किसी अन्य अर्थशास्त्री या राजनेता ने यह हिसाब नहीं लगाया कि पश्चिमी देशों में औसत श्रमिक के पीछे कितनी पूंजी काम कर रही है और तीसरी दुनिया के गरीब देश प्रत्येक श्रमिक के पीछे ज्यादा से ज्यादा कितनी पूंजी का निवेश कर सकते हैं। लोहिया की असंदिग्ध मान्यता थी कि ऐसी कोई भी सभ्यता विश्व सभ्यता नहीं बन सकती जो विश्व के सभी समाजों को रहन-सहन का कमोबेश बराबर स्तर उपलब्ध न करा सके। इसलिए यह दावा आधारहीन नहीं है कि लोहिया के समाजवाद में सिर्फ भारत या एशिया-अफ्रीका की मुक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि उपभोगवादी पश्चिम की मुक्ति के लिए भी गहरा सरोकार था। लोहिया ने अपने समाजवाद को इन दो शब्दों के जरिए परिभाषित किया था- समता और संपन्नता। लेकिन समता की शर्त लगा देने के बाद संपन्नता की एक सीमा बन जाती है।

5. अहिंसा का विचार लोहियाई समाजवाद के केंद्र में है। हिंसा का पथ सभी किस्म के समाजवादियों को लुभाता रहा। मार्क्सवादियों ने तो इसे क्रांति का स्वाभाविक सहचर मान रखा है, जबकि क्रांति और हिंसा के बीच कोई अनिवार्य संबंध दिखाई नहीं पड़ता। स्वयं मार्क्स ने हिंसा को क्रांति की मिडवाइफ कहा है, न कि उसकी जननी। लेकिन अहिंसा गांधी की तरह ही लोहिया के लिए भी रणनीति नहीं, बल्कि एक बुनियादी मूल्य थी। अपनी इसी आस्था के बल पर लोहिया यह दावा करते थे कि या तो गांधी रहेंगे या एटम बम रहेगा। आज दुनिया बम से ऊब चुकी है और गांधी को याद करने लगी है।

दिलचस्प है कि अहिंसा के प्रति लगाव ने लोहिया को आंदोलनी होने से कतई नहीं रोका, बल्कि वह औजार दिया जिसके बल पर सच्चा जन आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। वह वीर ही क्या, जिसमें करुणा न हो। गांधी का नारा था- करेंगे या मरेंगे। लोहिया ने अपने सिपाहियों को यह संकल्प दिया- मारेंगे नहीं, पर मानेंगे नहीं। ऐसी दृढ़ता के बिना अहिंसा लुंज-पुंज हो जाती है। इसी से लड़ने का वह रास्ता खुलता है जो गांधी को सत्याग्रह और लोहिया को सिविल नाफरमानी की ओर ले जाता था। इस रास्ते पर चलने के लिए किसी समूह या दल की भी जरूरत नहीं है। इसका सहारा लेकर बच्चे तक अन्याय का विरोध कर सकते हैं।

6. लोकतंत्र के बिना समाजवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुतः समाजवाद लोकतंत्र की ही एक निष्पत्ति है। लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ी दुर्घटना यह हुई कि उसका विकास पूंजीवाद की छांव में हुआ। पूंजीवादी लोकतंत्र का कानूनी सिस्टम जीने की आजादी के बजाय धन कमाने की आजादी को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानता है। इसीलिए साम्यवादी व्यवस्थाओं ने लोकतंत्र को शक की निगाह से देखा, जबकि उन्हें लोकतंत्र को और ज्यादा ठोस तथा मानववादी बनाना चाहिए था। राममनोहर लोहिया मिजाज से ही लोकतांत्रिक थे। उन्होंने हमें सिखाया कि लोकतंत्र और केंद्रीकरण साथ-साथ नहीं चल सकते। बहस की संपूर्ण आजादी उन्हें अत्यंत प्रिय थी, पर कार्य के स्तर पर मर्यादा की मांग वे जरूर करते थे।

7. लोहिया का समाजवाद सिर्फ आर्थिक व्यवस्था तक सीमित नहीं है, न वह यह मानता है कि अर्थ ही मानव अस्तित्व की धुरी है। उनके अनुसार, यह मूलतः एक नैतिक व्यवस्था है, जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के सभी पहलुओं में बराबर ताकत के साथ होनी चाहिए। यह अकारण नहीं है कि राजनीति और अर्थशास्त्र के साथ-साथ कला और साहित्य में भी लोहिया का आना-जाना बना रहता था। सत्य और सौंदर्य दोनों उन्हें आकर्षित करते थे। समाजवाद तब तक संतोषजनक जीवन-दर्शन नहीं बन सकता जब तक जीवन के सभी पक्षों तक उसका फैलाव न हो। असल में तो यह एक पूर्ण मानव की खोज का ही एक सुंदर उपकरण है।

8. लोहिया के समाजवाद में व्यक्ति और समुदाय, दोनों के जायज दावों का सम्मान है। व्यक्ति न तो सिर्फ अपने लिए जीता है, न सिर्फ समाज के लिए। दोनों एक-दूसरे से शक्ति पाते हैं और एक-दूसरे को समृद्ध करते हैं। इसी तरह, लोहिया का आदमी न क्षण में जीता है न किसी सुदूर स्वर्ग के लिए वर्तमान को दांव पर लगाकर। वह अल्पकालीन और दीर्घकालीन के बीच पुल तैयार करने की कोशिश करता है। पूरकता और द्वंद्वात्मकता का दर्शन लोहिया के समाजवाद की खास अपनी शक्ल है, जिसकी सार्थकता आज कुछ ज्यादा ही है, क्योंकि हमारे समय में, और इसमें भारत का समय शामिल है, तरह-तरह की एकांगिताएं हावी होती जा रही हैं।

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