27 दिसंबर। 1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय के सदस्यों पर हुई जातीय हिंसा की जाँच कर रहे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने न्यायिक आयोग को बताया है, कि पुणे के पास भीमा कोरेगांव में भड़की जातीय हिंसा में एलगार परिषद कार्यक्रम की कोई भूमिका नहीं थी। जातिगत हिंसा के संबंध में सोलह कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और वकीलों को गिरफ्तार किया गया था। पुलिस का दावा है कि ये लोग 31 दिसंबर, 2017 को भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए एलगार परिषद के कार्यक्रम में शामिल थे। पुलिस ने दावा किया कि इस कार्यक्रम में भड़काऊ भाषणों के कारण अगले दिन बड़े पैमाने पर हिंसा हुई।
उप-विभागीय पुलिस अधिकारी गणेश मोरे द्वारा हिंसा की जाँच के लिए दो सदस्यीय न्यायिक आयोग के सामने किए गए इस महत्वपूर्ण रहस्योदघाटन ने पुणे पुलिस और बाद में एक अलग मामले में गिरफ्तार किए गए 16 मानवाधिकार रक्षकों के खिलाफ राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के दावों की पोल खोल दी है। मोरे ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा, “मुझे यह दिखाने के लिए कोई जानकारी या सामग्री नहीं मिली, कि 1 जनवरी 2018 को हुई दंगों की घटना, 31 दिसंबर 2017 को पुणे में एलगार परिषद के आयोजन का परिणाम थी।” यह शायद पहली बार है, जब राज्य के किसी प्रतिनिधि ने स्वीकार किया है कि एलगार परिषद की घटना की हिंसा में कोई भूमिका नहीं थी।
Rediff की रिपोर्ट के अनुसार, मोरे जो हाल ही में सेवा से सेवानिवृत्त हुए हैं, 1 जनवरी 2018 को क्षेत्र में व्यवस्था के प्रभारी वरिष्ठ अधिकारी थे। उन्होंने आयोग को बताया कि जब वह भीमा कोरेगांव से 3.5 किलोमीटर दूर वधु बुद्रुक गाँव में ड्यूटी पर थे, तो उन्होंने भगवा झंडे लिये करीब 1200 लोगों की भीड़ को खदेड़ दिया था। दलित समूहों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने हिंदुत्ववादी नेताओं मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिडे पर घटना से पहले अभद्र भाषा के माध्यम से हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार ने पहले भी हिंसा में हिंदुत्व समूहों की भूमिका के बारे में संदेह जताया था।