नई मुफ्त अनाज योजना से गरीबी बढ़ेगी

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— अरुण कुमार —

आखिरकार, सरकार ने मान लिया है कि देश में 81 करोड़ लोग गरीब हैं। देश में गरीबों की इतनी बड़ी तादाद क्यों है, जबकि सरकार तेज आर्थिक वृद्धि का दावा करती है? या तो आर्थिक वृद्धि काफी कम है, या यह वृद्धि संगठित क्षेत्र तक ही सिमटी हुई है। वास्तव में दोनों बातें सही हैं।

रकार ने देश के 81 करोड़ गरीब लोगों को एक साल तक मुफ्त अनाज देने का एलान किया है।

यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत किया जाएगा लेकिन घोषणा इस तरह की गई है जैसे यह मार्च 2020 में घोषित प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, जिसमें हर गरीब व्यक्ति को 5 किलो अनाज मुफ्त मुहैया कराया गया, का विस्तार या ताजा कड़ी है। इस योजना के लाभार्थियों में 80 करोड़ गरीब लोगों को रखा गया था, जो महामारी और पूर्ण लाकडाउन से बुरी तरह प्रभावित थे।

उस समय राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पहले से ही वजूद में था, और इसके तहत गरीबों को सबसिडी पर अनाज दिया जा रहा था। इसके दायरे में 75 फीसद शहरी आबादी और 50 फीसद ग्रामीण आबादी को रखा गया था। लाभार्थियों की कुल संख्या 81.34 करोड़ थी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक 80 करोड़ गरीबों को चावल 3 रुपए प्रतिकिलो, गेहूं 2 रुपए प्रतिकिलो और मोटा अनाज 1 रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से मिल रहा था।

खाद्य सबसिडी में कटौती

बजट-दस्तावेज बताते हैं कि 2021-22 में दो योजनाओं पर सम्मिलित रूप से 2.9 लाख करोड़ रुपए का खर्च आया। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना शुरू होने से पहले, 2019-20 में, खाद्य सबसिडी 1.09 लाख करोड़ रुपए थी। अब 81 करोड़ गरीब लोगों को 5 किलो अनाज मुहैया कराकर, दो योजनाओं को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में समेटा जा रहा है।

लिहाजा, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों को जो अनाज मुहैया कराया जाता था वह तो उन्हें मिलेगा लेकिन जो अनाज उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत रियायती दरों पर मिल रहा था अब वह उन्हें उपलब्ध नहीं होगा। इस तरह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सबसिडी के तौर पर जो 1.09 लाख करोड़ रुपए सरकार के खर्च हो रहे थे, वो बच जाएंगे।

यह गरीबों पर एक अतिरिक्त बोझ होगा, और यह बोझ, सबसिडी के मद में होने वाली सरकार की बचत के मुकाबले ज्यादा होगा। गरीबों को अपनी जरूरत की पूर्ति खुले बाजार से करनी होगी जहां अनाज का दाम सरकारी राशन की दुकान से अधिक है। 2022 में गरमी का मौसम जल्दी शुरू हो जाने के कारण गेहूं की पैदावार और सरकारी खरीद में गिरावट आई। मुख्य धान उत्पादक इलाकों में, बरसात देर से शुरू होने और सीजन के आखीर में बाढ़ आ जाने के कारण धान की फसल को भी नुकसान पहुंचा।

गरीबी बढ़ेगी

गरीबों को बाजार से कितना खरीदना पड़ेगा? मान लें कि किसी भी स्तर पर तनिक भी अनाज बर्बाद नहीं हुआ और 31.6 करोड़ टन पैदावार में से करीब 10 करोड़ टन अनाज गरीबों को मुहैया कराने में लगाया गया। इस प्रकार अनाज का करीब 32 फीसद हिस्सा साठ फीसद आबादी को मिल रहा था और अपनी जरूरत का बाकी हिस्सा उसे खुले बाजार से खरीदना पड़ रहा था। पिछला उपभोग-सर्वेक्षण 2011-12 में हुआ था, जो कि पुराना पड़ गया है।

सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, 2019-20 में (महामारी से पहले) अनाज की उपलब्धता 13.9 किलो प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह थी। यह तथ्य अनाज की औसत खपत का संकेत देता है। मान लें कि अमीरों की प्रतिव्यक्ति अनाज की खपत गरीबों के मुकाबले कम है लेकिन गरीब आदमी औसत मात्रा की खपत करता है, तो इसका अर्थ है कि जहां पहले गरीब आदमी को प्रतिव्यक्ति 3.9 किलो अनाज प्रतिमाह खुले बाजार से खरीदना पड़ता था वही अब उसे 8.9 किलो प्रतिमाह खरीदना पड़ेगा। गेहूं की मौजूदा कीमत ढाई हजार रुपये प्रति क्विंटल के मद्देनजर, पांच सदस्यों के एक परिवार को प्रतिमाह 575 रुपए अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा।

इसमें मसूर की दाल शामिल नहीं है जो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों को मिलती थी। यह अब नहीं मिलेगी।

नतीजतन भारत में गरीबी बढ़ेगी। महामारी के चलते रोजगार में घटोतरी और आय में गिरावट के कारण गरीबी में वृद्धि पहले ही हो चुकी है। अहम बात यह है कि सरकार ने यह माना है कि भारत में 80 करोड़ लोग गरीब हैं जिन्हें मुफ्त अनाज की जरूरत है। लिहाजा यह एक जनकल्याण का कदम है।

गरीब कितने हैं?

भारत में 81 करोड़ लोगों के गरीब होने का आंकड़ा हकीकत के करीब है। विश्व बैंक ने 1.9 डालर प्रतिदिन की जो गरीबी रेखा निर्धारित कर रखी थी उसे बढ़ाकर 2.15 डालर प्रतिदिन कर दिया है। यह विनिमय की मौजूदा दरों पर 143 रुपए से 176 रुपए है। क्रयशक्ति समतुल्यता के अनुसार इसे 2,650 रुपए प्रतिमाह माना जा सकता है। इस तरह गरीबी रेखा के संदर्भ में, पांच सदस्यों के एक परिवार के लिए 13,250 रुपए प्रतिमाह पारिवारिक खर्च का हिसाब बैठता है।

अगर 2018 के ‘दिल्ली सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण’ को पूरे देश पर लागू करें तो, भारत के 90 फीसद परिवार 10,000 रुपए प्रतिमाह से कम और 98 फीसद परिवार 20,000 रुपए प्रतिमाह से कम खर्च कर रहे थे। ई-श्रम पोर्टल पर असंगठित क्षेत्र के जो 28 करोड़ मजदूर पंजीकृत हैं उनमें से 94 फीसद ने बताया है कि उनकी आमदनी 10,000 रुपए प्रतिमाह से कम है। अगर एक परिवार में कमाने वाले दो व्यक्ति भी मान लें तो, उनकी पारिवारिक आय 20,000 रुपए प्रतिमाह से कम होगी। उपर्युक्त दोनों आंकड़े काफी मेल खाते हैं।

तो, अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर, 90 फीसद भारतीय गरीब हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 60 फीसद आबादी आती है, इस दायरे को और बढ़ाने की जरूरत है।

क्या यह न्याय है?

मुख्तसर यह कि भले पांच किलो अनाज मुफ्त दिया जाएगा, सरकार की योजना से गरीबी बढ़ेगी ही।

रियायती दर पर मिलने वाला अनाज अब नहीं मिलेगा और गरीबों को मजबूर होकर अपनी जरूरत का 64 फीसद अनाज ऊंचे दाम पर बाजार से खरीदना होगा।

आखिरकार, सरकार ने मान लिया है कि देश में 81 करोड़ लोग गरीब हैं। देश में गरीबों की इतनी बड़ी तादाद क्यों है, जबकि सरकार तेज आर्थिक वृद्धि का दावा करती है? या तो आर्थिक वृद्धि काफी कम है, या यह वृद्धि संगठित क्षेत्र तक ही सिमटी हुई है।

वास्तव में दोनों बातें सही हैं। देश के पास संसाधनों की कमी नहीं है पर वे धनिकों के हाथों में दिनोदिन और अधिक सिमटते जा रहे हैं। सरकार धनिकों के लिए करों में रियायतें बढ़ा रही है, जबकि गरीबों के लिए सबसिडी में कटौती कर रही है। क्या यह न्याय है?

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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