सोशलिस्ट मेनिफेस्टो : छठी किस्त

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(दिल्ली में हर साल 1 जनवरी को कुछ समाजवादी बुद्धिजीवी और ऐक्टिविस्ट मिलन कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसमें देश के मौजूदा हालात पर चर्चा होती है और समाजवादी हस्तक्षेप की संभावनाओं पर भी। एक सोशलिस्ट मेनिफेस्टो तैयार करने और जारी करने का खयाल 2018 में ऐसे ही मिलन कार्यक्रम में उभरा था और इसपर सहमति बनते ही सोशलिस्ट मेनिफेस्टो ग्रुप का गठन किया गया और फिर मसौदा समिति का। विचार-विमर्श तथा सलाह-मशिवरे में अनेक समाजवादी बौद्धिकों और कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी रही। मसौदा तैयार हुआ और 17 मई 2018 को, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 84वें स्थापना दिवस के अवसर पर, नयी दिल्ली में मावलंकर हॉल में हुए एक सम्मेलन में ‘सोशलिस्ट मेनिफेस्टो ग्रुप’ और ‘वी द सोशलिस्ट इंस्टीट्यूशंस’की ओर से, ‘1934 में घोषित सीएसपी कार्यक्रम के मौलिक सिद्धांतों के प्रति अपनी वचनबद्धता को दोहराते हुए’ जारी किया गया। मौजूदा हालातऔर चुनौतियों के मद्देनजर इस घोषणापत्र को हम किस्तवार प्रकाशित कर रहे हैं।)

युवाओं के सामने संकट

बढ़ती बेरोजगारी और रोजगार की गुणवत्ता में गिरावट

युवावस्था मदमत्त हाथी की तरह अनियंत्रित होती है। बारिश के दौरान सोनभद्र नदी की तरह अल्हड़, एक तूफान की तरह विशाल, हाल ही में आनेवाले वसंत की चमेली की पहली कलियों की तरह नाजुक, ज्वालामुखी की तरह बेबुनियाद और राग भैरवी के नोटों की तरह मीठी होती है।…यदि चाहें तो युवा समाज और मानवता को जागृत कर सकते हैं, देश के सम्मान को बचा सकते हैं, राष्ट्र को महिमा में ला सकते हैं, सबसे बड़े साम्राज्यों को उखाड़ फेंक सकते हैं। दुनिया को कमजोर करने और दुनिया को प्रेरित करने के सूत्र उनके हाथों में हैं।

शहिद भगतसिंह ने 17 वर्ष की उम्र में अपने लंबे काव्यमय लेख यूथ में  1925 में कुछ इस तरह की घोषणा की थी। शहीदेआजम का यह बयान एक अक्षर भर अतिरंजित नहीं था। किसी भी देश के युवाओं में अत्यधिक ताकत, अविश्वसनीय ऊर्जा, असीमित उत्साह, शानदार रचनात्मकता और अनंत क्षमताएं होती हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भविष्य में विकास के बारे में चिंतित कोई भी समाज अपने युवाओं को प्यार और स्नेह के साथ देखता है और अपने विकास के लिए अपनी अनंत ऊर्जा का उपयोग करना चाहता है।

हालांकि, हमारे देश में, हमारे नीति निर्माताओं ने हमारे युवाओं के हाथ काट कर उन्हें असहाय बना दिया है। हमारे देश के विकास के लिए हमारे युवाओं की अविश्वसनीय ऊर्जा का उपयोग करने के बजाय, उन्हें बेरोजगारी प्रदान किया गया है। अपनी आंखो में सपने देखने, चेहरे पर चमक और पैरों में वसंत होने के बजाय हमारे करोड़ों युवा सार्थक नौकरियों को खोजने ने असमर्थ हैं और अपमानजनक महसूस करते हैं, असहाय महसूस करते हैं और असहायता की भावना से घिरे होते हैं।

युवाओं को इन स्थितियों में लाने के लिए विश्व बैंक का देश में लागू किया नवउदार एजेंडा जिम्मेदार है। इसने एक विशाल बेरोजगारी संकट को जन्म दिया है।

विशाल विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बड़ी संख्या में आगमन- जो बहुत कम नौकरियां पैदा करती हैं और साथ ही साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत बड़ी नौकरियों को नष्ट कर देती हैं; खेती के निगमीकरण के लिए शर्तों को बनाने के लिए भारतीय कृषि का जानबूझ कर विनाश किया- क्योंकि कृषि में रोजगार निर्माण करीब-करीब शून्य तक गिर गया है। सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाओं पर सरकारी व्यय में की गयी भारी कटौती- जिसके कारण पिछले दो दशक में सरकारी नौकरियों की कुल संख्या में वास्तव में गिरावट आयी है (1991 में 190.6 लाख से 2012 में 176.1लाख)। यह इन सभी नवउदार नीतियों का परिणाम है जो देश में रोजगार उत्पादन में तेज गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं। आधिकारिक सर्वेक्षण आंकड़ों से पता चलता है कि 1972-73 से 1983 की अवधि के दौरान देश में रोजगार की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) 2.44% से 1993-94 से 2004-05 की अवधि के दौरान गिरकर 1.84% हो गयी। जो 2004-05 से 2009-10 की अवधि के दौरान 0.12% पर आ गयी। नौकरी की तलाश में हर साल नौकरी बाजार में प्रवेश करनेवाले लगभग 130 लाख युवाओं में से 1993-94 से 2009-10 की 16 वर्षों की अवधि में लगभग 41% को ही किसी भी तरह की नौकरियां मिलीं।

इससे भी बदतर बात यह रही कि, इनमें से अधिकतर नौकरियां असंगठित क्षेत्र की नौकरियां हैं जहां श्रमिकों को कानूनी न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है (जो पहले से ही कम से कम निर्वाह मजदूरी है), स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, स्वच्छता, सुरक्षित सहित एक गौरवपूर्ण जीवन यापन की बात को तो छोड़ ही दें। उदाहरण के लिए, 1999-2000 से 2009-10 के दशक के दौरान, अर्थव्यवस्था में कुल 6.35 करोड़ नौकरियां पैदा की गयीं, जिनमें से सभी ऐसी नौकरियां थीं; इस अवधि के दौरान औपचारिक नौकरियों की संख्या में वास्तव में गिरावट आयी है। इनमें असंगठित क्षेत्र की नौकरियां भी शामिल हैं :

  • कृषि में 72 लाख नौकरियां (इस दशक के दौरान बनायी गयी कुल नौकरियों में से 11%);
  • असंगठित विनिर्माण क्षेत्र में 38 लाख नौकरियां आयीं, जैसे मजदूर अपने घरों में पैपैड या रोलिंग बीडी बनाते हैं (कुल नौकरियों में से 6%);
  • निर्माण क्षेत्र की नौकरियों में से 2.7 करोड़ नौकरियां (कुल नौकरियों का 42%, सबसे बड़ा हिस्सा) – जहां मजदूर भयानक स्थितियों में काम करता है, चिकित्सा सुविधाओं से रहित, अक्षमता मुआवजे, बच्चों के लिए शिक्षा और सभ्य आवास से रहित होता है।
  • 84 लाख नौकरियां छोटे विक्रेताओं और सड़क के किनारे चाय की दुकानों और भोजनालयों (कुल नौकरियों में से 13%) में। जैसे- भौतिक रूप से थकाऊ नौकरियां जहां लोग दिन में 12 घंटे काम करते हैं, ऐसी कम कमाई के साथ कि वे चिकित्सा देखभाल नहीं कर पा रहे हैं और बुढ़ापे के लिए कुछ भी बचाने में सक्षम नहीं हैं।
  • लगभग 50 लाख नौकरियां परिवहन और भंडारण क्षेत्रों में (कुल नौकरियों में से 8%), जिनमें से अधिकतर ऑटो-रिक्शा, टैक्सी, ट्रक और टेम्पो ड्राइवर, साइकिल रिक्शा/ पुल कार्ट / बैलगाड़ी गाड़ीवान और उनके सहायक के रूप में नौकरियां होंगी, आदि। ये भी शारीरिक रूप से थकाऊ नौकरियां हैं जहां कम कमाई और कोई नौकरी सुरक्षा के साथ कोई निश्चित कार्य समय नहीं है।  

नतीजा यह है कि 2009-10 में, देश में लगभग 93%कर्मचारियों को इस तरह की नौकरियों में नियोजित किया गया था; कुल औपचारिक क्षेत्र का रोजगार केवल 7.2%था- जहां श्रमिकों के पास कम से कम कुछ कानूनी अधिकार हैं जैसे रोजगार की सुरक्षा, न्यूनतम मजदूरी, बीमारी में छुट्टी, कार्य से संबंधित चोटों के लिए मुआवजे और व्यवस्थित करने का अधिकार।

मोदी सरकार की नवउदार नीतियों के त्वरित कार्यान्वयन के तहत नोटबंदी और जीएसटी की नीतियों के माध्यम से असंगठित क्षेत्र पर जबर्दस्त हमला हुआ और इन क्षेत्रों की दशा बदतर हो गयी है, जिससे देश में रोजगार उत्पादन में और गिरावट आयी है। वास्तव में, एक और हालिया अध्ययन में कहा गया है कि मोदी सरकार (2014-16) के पहले दो वर्षों के दौरान रोजगार में पूर्ण गिरावट आयी थी, संभवतः स्वतंत्रता के बाद पहली बार ऐसा हुआ।

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