— पी साईनाथ —
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया के साथ समस्या यह है कि चारों स्तंभों के बीच यही इकलौता है जो मुनाफा खोजता है। भारत का समाज बहुत विविध जटिल और विशिष्ट है, लेकिन बहुत नियंत्रित और संकुचित है। यह स्थिति खासी खतरनाक है।
बीते दो दशकों में हमने पत्रकारिता को कमाई के धंधे में बदल डाला है। मीडिया पर जिनका नियंत्रण है, वे पहले से ज्यादा विशाल और ताकतवर हो चुके हैं।
सबसे बड़े मीडिया तंत्र ‘नेटवर्क 18’ का उदाहरण लें। इसका एक ही मालिक है। ईटीवी नेटवर्क में तेलुगू को छोड़कर, उसके बाकी सारे चैनल उसी एक आदमी के हैं। उसे अपने कब्जे वाले सारे चैनलों के नाम तक नहीं पता हैं, बावजूद इसके वह जब चाहे तब फतवा जारी कर सकता है। ऐसा ही होता है। इन चैनलों के व्यापक हित, दरअसल इन्हें नियंत्रित करने वालों के व्यावसायिक हित हैं।
पिछले बीस सालों में मीडिया के मालिक संस्थान ही नवउदारवाद और निजीकरण के सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं। अब निजीकरण का अगला दौर आया है।
अगर खनन का निजीकरण होता है तो टाटा, बिड़ला, अंबानी और अडानी सभी लाभार्थी होंगे। अगर प्राकृतिक गैस का निजीकरण हुआ तो एस्सार और अंबानी को फायदा होगा। स्पेक्ट्रम से टाटा, अंबानी और बिड़ला को लाभ होगा। मतलब मीडिया मालिक निजीकरण के सबसे बड़े लाभार्थी बनकर सामने आएंगे। जब बैंकों का निजीकरण होगा तो ये लोग बैंक भी खोल लेंगे।
इन मीडिया संस्थानों ने एक व्यक्ति और एक पार्टी को गढ़ने में काफी पैसा लगाया और लोकतंत्र की दूसरी ताकत को कूड़ेदान में डाल दिया। यह सब जिनके लिए और जिस पार्टी के लिए किया गया, वह इनके मन का सारा कुछ, इनके मनमाफिक तेजी से नहीं कर पा रही है। इसलिए ये लोग खफा हैं। लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। तो हम देख रहे हैं कि मीडिया में जहां तहां हल्की फुल्की शिकायतें आ रही हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि भारतीय मीडिया राजनीतिक रूप से मुक्त है लेकिन मुनाफे का गुलाम है। यही उसका चरित्र है।
मीडिया संस्थान कोई नई बात नहीं हैं लेकिन कई दूसरे देशों के मुकाबले भारत में इनकी गति तीव्र है। पिछले दस सालों के अपने मीडिया पर नजर दौड़ाएं। पत्रकारिता का असर डालने वाले तीन सबसे बड़े भंडाफोड़ मुख्यधारा की पेशेवर पत्रकारिता ने नहीं किए। ये तीन खुलासे हैं – असांजे और विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन और चेल्सिया मैनिंग। आखिर ये खबरें पेशेवर समाचार संस्थानों से क्यों नहीं निकलीं? इसलिए कि ये समाचार संस्थान अपने आप में कारोबार हैं, सत्ता प्रतिष्ठान हैं। बाजार में इनका इतना ज्यादा पैसा लगा है कि ये आपसे सच नहीं बोल सकते। अगर शेयर बाजार को इन्होंने निशाने पर लिया तो इनके शेयरों के दाम गिर जाएंगे। जिन्हें अपने लाखों शेयर बचाने हैं वे आपको सच बताएंगे? पत्रकारिता की मुख्य कसौटी कमाई हो गई है, तो आपसी मिलीभगत जरूरी है।
फर्ज कीजिए आप एक मझोले व्यापारी हैं, जो लंबी छलांग लगाना चाहता है। मैं अंग्रेजी का सबसे बड़ा अखबार हूं। आप मेरे पास सलाह लेने आते हैं। मैं कहता हूं कि आइए, एक समझौता करते हैं – मुझे अपनी कंपनी में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी दीजिए। इसके बाद मेरे अखबार में आपकी कंपनी के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकेगी। अब सोचिए, यदि एक अखबार 200 कंपनियों में हिस्सेदारी खरीद ले, तो वह अखबार रह जाएगा?
अच्छी पत्रकारिता का काम है समाज के भीतर संवाद की स्थिति पैदा करना, देश में बहसें उठाना और प्रतिपक्ष को जन्म देना। यह एक लोकसेवा है। सेवा को जब आप धन में तौलते हैं तो हमें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
जरा ग्रामीण भारत को देखिए। 83.3 करोड़ की आबादी, 784 भाषाएं, जिनमें छह भाषाओं के बोलने वाले पांच करोड़ से ज्यादा और तीन भाषाओं के बोलने वाले आठ करोड़ से ज्यादा। ऐसे देश के शीर्ष छह अखबारों के पहले पन्ने पर ग्रामीण भारत को केवल 0.18 प्रतिशत जगह मिल पाती है; देश के छह बड़े समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में 0.16 प्रतिशत जगह मिल पाती है।
मैंने ग्रामीण भारत में हो रहे बदलावों की पहचान के लिए ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ की शुरुआत की। मैं जहां जाता हूं, लोग मुझसे पूछते हैं – आपका रेवेन्यू माडल क्या है? मैं जवाब देता हूं कि मेरे पास कोई माडल नहीं है, लेकिन पलट कर यह जरूर पूछता हूं कि अगर रचनाकार के लिए रेवेन्यू माडल का होना जरूरी होता तो हमारे पास कैसा साहित्य या कैसा कलाकर्म मौजूद होता? अगर वाल्मीकि को रामायण, या शेक्सपियर को अपने नाटक लिखने से पहले अपने रेवेन्यू माडल पर मंजूरी लेने की मजबूरी होती, तो सोचिए क्या होता! जो लोग मेरे रेवेन्यू माडल पर सवाल करते हैं, उनसे मैं कहता हूं कि मेरे जानने में एक शख्स है जिसका रेवेन्यू माडल बहुत बढ़िया था, जो चालीस साल तक कारगर रहा। उसका नाम था वीरप्पन!
इस वक्त की राजनीतिक परिस्थिति हमारे इतिहास में विशिष्ट है। पहली बार एक खास विचारधारा का प्रचारक बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बना है। बहुमत के साथ जब कोई प्रचारक सत्ता में आता है तो बड़ा फर्क पड़ता है। काफी कुछ बदल जाता है। मीडिया दरअसल इसी नयी बनी स्थिति में खुद को ॲंटाने की कोशिश कर रहा है। सामाजिक, धार्मिक कट्टरपंथ और बाजार का कट्टरपंथ मिल-जुल कर देश की राजनीतिक जमीन पर कब्जा करने में लगा है। दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। ऐसे में आप क्या कर सकते हैं?
सबसे जरूरी काम है कि मीडिया के जनतंत्रीकरण के लिए लड़ा जाए – कानून के सहारे, विधेयकों के सहारे और लोकप्रिय आंदोलनों के सहारे। साहित्य, पत्रकारिता, किस्सागोई, ये सब विधाएं बाजार की नहीं, हमारे समुदायों, लोगों, समाजों की देन हैं। इन विधाओं को उन तक वापस पहुंचाने की कोशिश करें।
बाल गंगाधर तिलक को जब राजद्रोह में सज़ा हुई, तब लोग सड़कों पर निकल आए थे। एक पत्रकार के तौर पर उनकी आजादी की रक्षा के लिए लोगों ने जान दी थी। ऐसा था तब मुंबई का मजदूर वर्ग! इनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें पढ़ना तक नहीं आता था, लेकिन वे एक भारतीय की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बचाने के लिए घरों से बाहर निकले। भारतीय मीडिया और भारतीय जनता के बीच ऐसा एक महान रिश्ता था। आपको मीडिया के जनतंत्रीकरण के लिए, सार्वजनिक प्रसारक के सशक्तीकरण के लिए लड़ना होगा। आपको मीडिया पर एकाधिकार को तोड़ने में सक्षम होना होगा – यानी एकाधिकार से आजादी! मीडिया एक निजी फोरम बनकर रह गया है, उसमें सार्वजनिक सवालों की जगह बढ़ानी होगी। इसके लिए हमें लड़ने की जरूरत है। यह आसान नहीं है लेकिन मुमकिन है।
(गांधी मार्ग के जुलाई-अगस्त 2018 के अंक से साभार)
मीडिया की अंदरुनी हक़ीक़त को दर्शाता एक बेहद जागरूक लेख अभिप्रेरित करते हुए आशा जगाता है।