— सच्चिदानन्द सिन्हा —
प्रकृति द्वारा निर्धारित सीमाओं की अवहेलना करके भौतिक विकास के आत्यंतिक प्रयास मनुष्य की जीवन प्रक्रिया के लिए अब घोर समस्याएँ पैदा करने लगे हैं। एक भयावह समस्या तो पारंपरिक परिवार और समुदाय के टूटने से पैदा हो रही है। यह समस्या अपरिहार्य इसलिए बन रही है कि आधुनिक औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के लिए परिवार और समुदाय के भावनात्मक बंधन और उनकी वफादारियाँ बाधक सिद्ध होती हैं। आधुनिक समाजशास्त्री इसे ‘ऐफेक्टिविटी’ यानी भावनात्मक लगाव की जगह ‘ऐफेक्टिव न्यूट्रलिटी’ यानी भावनात्मक तटस्थता की आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस व्यवस्था के सुचारु रूप से चलने के लिए मानव रिश्तों का निजी (पर्सनल) की जगह कामकाजी (फंक्शनल) बन जाना जरूरी है।
यह ध्यान दिलाना दिलचस्प होगा कि कार्ल मार्क्स ने आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में यह लिखा था कि पूँजीवादी व्यवस्था में ‘कैश नेक्सस’ यानी मुद्रा के लेन-देन के समीकरण बाकी सारे मानव संबंधों का स्थान लेने लगते हैं। इस व्यवस्था की सफलता के लिए जरूरी है कि आदमी परिवार और परिवेश का मोह छोड़कर व्यावसायिक सफलता के लिए अपने प्रतिष्ठान के प्रति पूरी तरह समर्पित हो जाए। वह घर-बार छोड़ संसार के किसी भी कोने में जाकर किसी भी स्थिति में काम करने के लिए तैयार हो जाए। विनिमय और निवेश के अंतरराष्ट्रीय होते जाने के कारण अपनी क्षमता के उपयुक्त काम करने की तलाश में दूरदराज जगहों पर जाना उसकी मजबूरी बन गई है।
प्रायः विभिन्न स्थानों के काम और उत्पादन की अपनी विशिष्टता होती है और शिक्षा संस्थाएँ भी इसी के अनुसार विशेषज्ञ पैदा कर रही हैं। अतः यह स्थिति अब अतीत की चीज बन रही है जिसमें जरूरत की अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन स्थानीय था और लोगों के रोजगार भी स्थानीय थे। जरूरत होने पर लोग अपने व्यवसाय को बदल सकते थे। नतीजा यह है कि लोगों को घर-परिवार छोड़ कर दूर-दराज ऐसी जगहों पर जाना ही पड़ता है जहाँ उनके लायक काम मिल सके।
चूँकि काम का आधार पारिवारिक नहीं है और लोगों का काम और उनकी आय प्रतिष्ठान द्वारा निर्धारित निजी योग्यता पर निर्भर करती है, एक ही परिवार के विभिन्न सदस्यों की आय में बहुत ज्यादा फर्क हो जाता है। इससे सम्मिलित परिवार का ढाँचा टूट जाता है और परिवार के सदस्य एक-दूसरे से असंपृक्त, दूर-दराज अपनी अलग दुनिया बसाने का प्रयास करते हैं। कौटुंबिक अपनत्व आर्थिक गैर-बराबरी के सामने धराशायी हो जाता है।
पश्चिमी दुनिया में तो यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। माँ-बाप, भाई-बहन और दूसरे सगे संबंधियों से अलग सिर्फ पत्नी-बच्चों के साथ दूर-दराज रहना आम बात बन गई है। औद्योगिक समाज के तनाव और वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं की टकराहट से पति-पत्नी का संबंध भी अस्थायी बनता जा रहा है। बच्चे किशोरावस्था आते-आते परिवार के बंधन से मुक्त हो अपनी अलग दुनिया बनाने लगते हैं।
आदमी का समुदाय तो अतीत की चीज बन ही चुका है। महानगरों में हमपेशा और इक्के-दुक्के मित्रों की मंडली के बाहर किसी समुदाय के बनने की संभावना ही नहीं होती। नगरों की भारी भीड़ के बीच अधिकतर लोग नितांत अकेले होते हैं। एकमात्र साथी सिगरेट, शराब या अन्य नशीली वस्तुएँ होती हैं जिनकी लत खतरनाक बीमारियों की चेतावनियों के बावजूद बढ़ती जा रही है। यह आदमी के अचेतन में बैठी हताशा और असहाय भाव की अभिव्यक्ति भी है। इसलिए आधुनिक वैभव के साथ एक ऐसा दुश्चक्र बन रहा है जिससे उबरने का कोई उपाय नहीं दिखाई देता है।
सिंगापुर की घटती आबादी के परिप्रेक्ष्य में इस दुश्चक्र का कुछ आभास मिलता है। सिंगापुर तीसरी दुनिया के सामने आर्थिक तरक्की के नमूने की तरह पेश किया जा रहा है। लेकिन इस तरक्की के साथ अनेक विकसित देशों की तरह घटती आबादी की समस्या उभरकर सामने आ गई है। यह अनुमान किया जा रहा है कि वहाँ की आबादी कुछ ही वर्षों में आधी हो जाएगी और इसमें ज्यादा संख्या उन लोगों की होगी जो बूढ़े हो चुके हैं। जब हम वहाँ आबादी बढ़ाने के प्रयासों के सामने आने वाली बाधाओं पर विचार करते हैं तब आधुनिक जीवन का दुश्चक्र दिखाई देने लगता है।
सरकार की ओर से वहाँ ऐसे दंपतियों को उदारतापूर्ण आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है जो दो या अधिक बच्चे पैदा करें। लेकिन वहाँ की संपन्नता की आधुनिक व्यवस्था ही इस अभियान के आड़े आ रही है। ज्यादातर दंपति यह महसूस करते हैं कि अतिरिक्त संतान का बोझ उठाना उनके लिए दुष्कर है। वे कहते हैं कि एक बच्चे की देखरेख ही उनकी व्यावसायिक व्यस्तता के कारण मुश्किल है, एक से अधिक बच्चे की देखरेख वे कैसे करेंगे। यह समस्या अनसुलझी है।
पारंपरिक समाजों में, जहाँ परिवार बड़ा होता है। बच्चों और उनकी माताओं की देखभाल के लिए दादा-दादी, चाचा-चाची, नाना-नानी आदि का एक बड़ा समूह होता है। इसलिए परिवार का बड़ा होना कोई समस्या नहीं पैदा करता। चीन के कम्यून की सामूहिक खेती और उद्योगों की व्यवस्था और इजराइल में किबुत्स की सामूहिक खेती की व्यवस्था में काम करने वाले दंपतियों की यह समस्या सामने आई थी। चीन के कम्यूनों में तो सामूहिक भोजनालयों और बच्चों की देखरेख की सामूहिक व्यवस्था करने की कोशिश की गई। लेकिन यह व्यवस्था लोगों को रास नहीं आई और अततः पुराना परिवार वापस लौट आया।
कृषि-आधारित ग्रामीण परिवेश में बड़े परिवारों का टूटना फिर भी उतना त्रासद नहीं होता, जितना औद्योगिक महानगरों में। गाँवों के पारंपरिक परिवेश में परिवार के अभाव की पूर्ति कुछ हद तक समुदाय करता है। चूँकि इसमें सभी पड़ोसी विविध तरह के सामाजिक संबंधों से जुड़े होते हैं, आवश्यकता होने पर एक-दूसरे की मदद करना सामुदायिक दायित्व का अंग होता है। परिवार टूटने का सबसे त्रासद रूप औद्योगिक और व्यापारिक महानगरों में दिखाई देता है।
(बाकी हिस्सा कल)