उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन की पड़ताल

0


— हिमांशु जोशी —

यायावरी के अनुभवी अरुण कुकसाल के साथ उत्तराखण्ड का पर्वतीय समाज और बदलता आर्थिक परिदृश्य किताब को लिखने में शोध कार्यों में अनुभवी चन्द्रशेखर तिवारी भी शामिल हैं। यायावरी के साथ शोध के अनुभवों का मिश्रण इस किताब को बेमिसाल बना देता है। लेखकों और उनके साथियों द्वारा तीस साल पहले उत्तराखंड के गांवों में की गई अपनी यात्रा को एक बार फिर से करने की इस कोशिश में बहुत से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। बदहाल सड़कें, फसल को जंगली जानवरों से नुकसान, सरकारी स्कूलों की दयनीय स्थिति, पीने के पानी की कमी वह कारण है, जिनकी वजह से तीस साल पहले उत्तराखंड के दूरस्थ गांवों से पलायन होता था। आज तीस साल बाद सड़कों की स्थिति में सुधार तो आया है पर बाकी स्थितियां और भी बदतर होने के साथ ही सड़कें पलायन करने को आसान बनाने का काम ही कर पाई हैं.

अरुण कुकसाल

किताब को पढ़ते आपको कभी-कभी ऐसा लगेगा कि आप उत्तराखंड के इन दूरस्थ गांवों की कहानी किसी विदेशी खोजकर्ता की किताब में पढ़ रहे हैं। लेखकों ने इन गांवों की वास्तविक दशा बता कर वह कार्य किया है, जो कभी सम्भव नही था।

इस किताब में स्थानों का विवरण ऐसे दिया गया है कि उन्हें पढ़ते पाठकों को लगता है वह उसी स्थान पर मौजूद हैं और वहां के इंसानों के साथ पशुओं की जनसंख्या के आंकड़े इतनी सटीकता से दिए गए हैं कि वह पाठकों को अचंभित करने के लिए काफी हैं।

चन्द्रशेखर तिवारी

अरुण कुकसाल को अपनी पिछली किताब ‘चलें साथ पहाड़’ के लिए हाल ही में पर्यटन मंत्रालय द्वारा पर्यटन से संबंधित विषयों पर मूल रूप से हिंदी में लिखी पुस्तकों को मिलने वाला प्रतिष्ठित ‘राहुल सांकृत्यायन पर्यटन पुरस्कार 2020-21’ मिला है। इसमें ‘चलें साथ पहाड़’ को प्रथम स्थान पर चुना गया है, समतामार्ग पोर्टल में इसकी समीक्षा 31 अक्टूबर 2021 को प्रकाशित हुई थी।

किताब का आवरण चित्र पहाड़ के कठिन जीवन को दर्शाता है. बी के जोशी के लिखे ‘आमुख’ और लेखकों द्वारा लिखे ‘कहो! कैसे हो पहाड़’ को पढ़ने के बाद किताब के प्रति रुचि जाग जाती है और पहाड़ के कष्टों को समझने के लिए इस किताब का पढ़ा जाना जरूरी लगता है। ‘अनुक्रम’ से यह जानकारी मिलती है कि किताब साल 2016 और 1986 के दो दौरों में बंटी हुई है।

किताब के रेखाचित्र डॉ नन्दकिशोर हटवाल और निधि तिवारी द्वारा खींचे गए हैं। साल 2016 और 1986 के दौरों की शुरुआत में इनका प्रयोग हुआ है, यह रेखाचित्र इन दोनों समय में पहाड़ का चेहरा हमारे सामने हूबहू रख देते हैं। किताब के सभी शीर्षकों के साथ भी छोटे से बने रेखाचित्र किताब का आकर्षण बढ़ाते हैं.

किताब की शुरुआत में लेखक देहरादून के आसपास के क्षेत्रों में 30 साल के दौरान आए परिवर्तन पर लिखते हैं।

‘ब्लॉक ऑफिस की और तब कुछ खेतों से गुजरना पड़ता है अब यह चमचमाती दुकानें दिखती हैं।’

लेखक ने गांवों की स्थिति बताने के लिए उनकी समुद्रतल से ऊंचाई को बताया है, इसके साथ ही वह गांवों के आसपास के दृश्यों को बताते हैं।

इस तरह पाठक भी उनके सहयात्री बन जाते हैं। इसका उदाहरण यह पंक्तियां हैं ‘पुरानी पहाड़ की धार पर बांज, बुरांश और देवदार के जंगलों से घिरी सुरम्य जगह है। समुद्रतल से 8500 फीट की ऊंचाई पर स्थित चुरानी स्थल नागनाथ से 10 किमी चकराता से 20 किमी और मसूरी से 55 किमी की दूरी पर स्थित है।’

लेखक जितने भी गांवों में गए वहां पर पशुपालन में कमी सबसे प्रमुख समस्या के रूप में सामने आई और इसके लिए उन्होंने आंकड़े भी जुटाए हैं। जैसे एक गांव के लिए वह लिखते हैं ‘पहले प्रत्येक परिवार में औसतन 1 जोड़ी बैल होते थे. आज 50 परिवारों में मात्र 10 परिवारों के पास 1-1 बैलों की जोड़ी है।’

पहाड़ में बिना जांचे परखे योजना लागू करने से उसका लाभ नहीं मिलता, इसके लिए लेखक ने मौके पर लोगों से बातचीत कर उदाहरण दिए हैं। जिनमें हैंडपंप और बिना किसी उपयोग का पानी का चैंबर प्रमुख हैं।

पहाड़ों की स्वास्थ्य व्यवस्था 30 साल पहले और अभी समान दिखती है। इस स्थिति पर एक व्यक्ति का यह कथन कि  ‘हमारे गांव में आसान है मौत! बीमारी से’, विचलित कर देता है।

लेखक के अंदर मानवीय संवेदना कूट-कूट कर भरी है। वह एक जगह लिखते हैं ‘क्वाला गांव आते समय मिली गाय अभी भी एक पेड़ के नीचे खड़ी है। असहाय नजरों से वह हमें आंखों से ओझल होने तक ताकती रहती है’। शायद अपनी इसी मानवीय संवेदना की वजह से लेखक पहाड़ की समस्याओं का समाधान भी ढूंढ पाए हैं।

महिपाल सिंह जैसे जागरूक किसान से मिलकर पहाड़ों से खत्म हो रही खेती में तकनीक के लाभ लिखे गए हैं।

पृष्ठ संख्या 75 की पंक्ति ‘ ग्रामीणों का कहना है कि बच्चों को जो शिक्षा दी जा रही है, वह किसी भी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश के अनुकूल नहीं है। पढ़ लिखकर तो रोजगार बाहर करना है यह मनोवृति सब की है ‘ के जरिए लेखक हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश रखते हैं।

किताब पढ़ते पहाड़ के गांवों की समस्याओं पर आपकी समझ का विस्तार होता जाएगा। अब तक पहाड़ों को लेकर पानी, स्वास्थ्य ,शिक्षा की समस्याओं से ऊपर भी आपको बड़ी समस्याएं स्पष्ट रूप से समझ आने लगेंगी।

लेखक किताब में ‘मानिला का डांडा’ जैसे रोचक शीर्षक देते हैं तो उनके अंदर शराब के चलन, सरकारी कार्य में लापरवाही को भी किसी मंझे हुए ग्राउंड रिपोर्टर की तरह पाठकों के सामने रखते हैं।

मुश्किल परिस्थितियों में की गई इस यात्रा में लेखकों और उनके साथियों को कहीं बारिश मिली तो कहीं बाघ, पर वह अपनी इस यात्रा को बड़ी हिम्मत से पूरी करने के बाद, हमें यह ऐतिहासिक दस्तावेज प्रदान कर गए।

दूसरे दौर में बहुत सी घटनाएं ऐसी लिखी गई हैं जो पहले दौर में लिखी जा चुकी थी, वह दोहराई हुई लगती हैं पर तब तक किताब उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन की पड़ताल करने का अपना कार्य पूरा कर गई है।

किताब के अंत में अध्ययन में शामिल गांवों का विवरण दिखता है और इसी के साथ लेखकों के साथियों की किताब पर टिप्पणी भी है। यही टिप्पणी आपको किताब के आवरण चित्र के पीछे भी मिलती है, टिप्पणी करने वालों में लेखक नवीन जोशी, राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा, लेखक देवेंद्र मेवाड़ी और एक्टिविस्ट गीता गैरोला शामिल हैं।

किताब- उत्तराखण्ड का पर्वतीय समाज और बदलता आर्थिक परिदृश्य

लेखक- अरुण कुकसाल, चंद्रशेखर तिवारी

प्रकाशक- दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, समय साक्ष्य

लिंक- https://amzn.eu/d/bVDwyCc

मूल्य- 180₹


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment