1. पहचान
न कोई शक न भ्रम न दुविधा न द्वन्द्व,
दो अलग-अलग पहचान हैं इंसान और शैतान.
होंगे दोनों के अलहदा मुकाम,
संभव है कि वे हों एक जिस्म दो जान.
दोनों पृथ्वी पर साथ-साथ बढ़े,
न आगे न पीछे.
साथ न आते तो अधूरे होते,
एक दूसरे के बिना कैसे पूरे प्रश्नवाची होते.
गप है कि इन्सान मिट्टी से बना है,
और शैतान आग से.
अरे ज्ञानी! मिट्टी हो कि आग
दोनों की देह में सबसे ज्यादा है पानी.
जैसे भी आए अभिन्न न सही मतिभिन्न तो हैं,
सुजात-कुजात न कहें
जिन्दगी की बिसात तो हैं.
इंसान के पहलू में ही शैतान छिपता है.
उससे पीछा छुड़ाने की जितनी जद्दोजहद करो,
वह उतना ही हमसाया रहता है.
उसकी जिद इंसान से कैसे कम है,
एक सम है तो दूसरा विषम है.
आकर्षण-विकर्षण भी एक नियम है.
जब दोनों साथ-साथ आगा-पीछा करते हैं,
तब परस्पर मुठभेड़ ही हासिल है.
कहां कोई गाफिल है?
तय है कि शैतान के पहलू में भी इंसान टोकता ही होगा,
ऐ! तेरी हरकतें मेरी निगाहों की जद में हैं.
शैतानियत की भी कोई हद है?
मेरा बचना ही तेरा प्रतिवाद है,
यह काले-उजले का विवाद है.
पूरी दुनिया में अन्यायी शैतानी जुन्टा है,
न्याय के लिए हर क्षण बजता इंसानी घंटा है.
हद से ज्यादा शैतान आबाद है,
इंसान भी बेहद जिंदाबाद हैं.
2. मकबूल
एक कलाकार अपनी कला में मकबूल,
हर कलाप्रेमी उस पर बेइंतहा फिदा।
कैसे होगा वह संवेदना से जुदा।
वह रहेगा दिल-दिमाग पर खुदा।
शैलाश्रयों में जैसे पुरखों के शैलचित्र,
और शैलचित्रों में साँसों की उष्मा।
जहाँ कहीं ली- छोड़ी उसने अंतिम साँस,
वहीं उसके ललाट पर मिट्टी का नम हाथ।
मिट्टी का सिर्फ रचाव से जैविक अपनापा,
रचाव के विनाश पर रचना का सियापा।
कोई नफ़रत कहां छू सकेगी मकबूलियत,
हर सर्वश्रेष्ठ कला है सिर्फ इन्सानियत.
हैरत है उस तमाशाई कला-समय पर,
खूनी खेदा उभरा राष्ट्रीय केनवास पर.
कार्बन डेटिंग से भी नहीं मिलेगा सही हिसाब,
कहीं नहीं है कहीं नहीं कला के खून का सुराग!
3. जोन्हा मंझियाइन
इंडिया गेट पर
एक फटेहाल औरत
कह रही है
स…ब…ग…ल…त…।
सा रे ग म प ध नी।
ग…ल…त…स…ब…
नी ध प म ग रे सा।
नार्थ ब्लाक साउथ ब्लाक के कंगूरों पर
गुमसुम थिर रहा हवामुर्ग।
वह महान इमारत भी चुप,
दिखती है जैसे बाइस्कोप।
उस बाइस्कोप में नहीं है
जोन्हा मंझियाइन।
झारखंड के गांव से उठाई गई,
दिल्ली के झांसे में लाई गई।
भरमाई गई हथियाई गई,
कह रही है लुटी-लुटाई।
सब गलत,
गलत सब।
4. सुरक्षा
नागरिको! मुझे सारी सत्ताएँ दो,
मैं सारा जनतंत्र दूँगा।
इतना कि ले नहीं सकोगे,
लेकर भी क्या करोगे?
कहाँ रखोगे, कैसे बचाओगे,
हमेशा लुट जाने से डरे रहोगे।
अंतत: जमा करने आओगे,
-अभी रखो बाद में कभी ले लेंगे।
मैं पूरा जनतंत्र सुरक्षित रखूँगा,
सत्ताओं के घेरे में महफूज।
आज्ञापालकों ने जनतंत्र महासत्ता को सौंपा,
शाबाश!अब उसे कहीं कोई खतरा कहाँ है?
कह गए कवि रघुवीर सहाय
-लोकतंत्र का अंतिम क्षण है,
-कहकर आप हँसे…हा…हा…हा!
5. लूट
लुटेरे आते रहे,
लूटते रहे।
इस पर इतिहास मुखर है।
हम लुटे जाते रहे,
लूट लिये गए।
इसके संदर्भ पर चुप्पी है।
हमने लूटने दिया,
हम लूट के लिए ही रहे।
इस पक्ष पर विचार गौण है।
लुटेरे कब नहीं आए,
लूट का उत्सव कब नहीं मना।
लूट की कथा सुनाकर लूट कब नहीं हुई?
लुटेरे न आए न गए अपने बीच रहे,
भारत की मिट्टी से जानो-
उसका कण-कण लूट है।
6. सभासद
इंडिया छलांग लगा रहा है।
सभासदों ने मेजें थपथपाईं।
भारत मझधार में है।
सभासदों ने उँगलियाँ चटकाईं।
हिंदुस्तान गर्त की ओर है।
सभासदों ने गुंबद पर नजरें टिकाईं।
राष्ट्रगान के बाद हुआ,
सदन का सत्रावसान।
किसिम-किसिम के वस्त्रों में झंडा बने
सभासदों ने किया प्रस्थान।
आएंगे-जाएंगे सभासद,
आपद-विपद से रहेंगे निरापद !
7. तैयारी
ये शाम,
रात में ढलने के पहले।
ये बादल,
बरसने के पूर्व।
ये हवा,
बहने से पेशतर।
ये पेड़,
झूमने से पहले।
ये आसमान,
खुलने के पूर्व।
ये चि़ड़िया,
उड़ने से पेशतर।
और सड़कें,
ठकमुक ठकमुक।
सबके सब बहुत भारी,
यह भारीपन मन पर तारी।
चुप्पियों की ऐसी यारी,
कैसी यह तैयारी?
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