बस्तर में ईसाई आदिवासियों पर अत्याचारों के पीछे कौन है

0


— विनोद कोचर —

त्तीसगढ़ के बस्तर जिले में मूल आदिवासियों द्वारा, धर्मांतरित आदिवासियों पर किये जा रहे ताजा अत्याचारों की जड़ें बहुत गहरी हैं।

ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासी कोई नए धर्मांतरित आदिवासी नहीं हैं। इनके पुरखों ने ब्रिटिश काल और आजादी के कुछ सालों बाद तक के अंतराल में ईसाई धर्म अपनाया था और अभी तक मूल आदिवासियों द्वारा धर्मांतरित आदिवासियों पर ऐसे अत्याचार कभी नहीं हुए कि उनकी कब्रों तक को उखाड़ दिया जाय, उनके बच्चों को मूल आदिवासियों के बच्चों के साथ पढ़ने से रोक कर उनकी पढ़ाई बंद करवा दी जाय, उनका पानी ये कहकर बंद कर दिया जाय कि वे लोग उनके साथ रहने लायक नहीं हैं, उनके बच्चों के साथ खेलने से भी अपने बच्चों को मना कर दिया जाय, उनकी खेतीबाड़ी की जमीन तक छीनकर उन्हें कह दिया जाय कि जहां जाना हो, जाओ लेकिन हमारे बीच में मत रहो।

ये घटनाएं आकस्मिक नहीं हैं। इनकी जड़ों को खोजने के लिए खोजी पत्रकारों को, आरएसएस के ही एक आनुषंगिक संगठन, ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ की गतिविधियों का अध्ययन करना चाहिए।

संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बालासाहेब देशपांडे ने, दशकों पूर्व, वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की थी।

संघ आदिवासियों की बजाय आर्यों को भारत का मूल निवासी मानता है इसलिए वह आदिवासियों को, जंगलों में ही उनका मूल निवास होने के कारण, शुरू से ही ‘वनवासी’ कहकर संबोधित करता आ रहा है।

आदिवासियों के बच्चों को संघ की विचारधारा के रंग में रंगने की बदनीयती से वह इन्हें जिन छात्रावासों में भरती करता है उन्हें संघ छात्रावास की जगह, पौराणिक इतिहास की नकल करते हुए, ‘आश्रम’ कहता है।

बस्तर जिले में घटित संदर्भित घटना के संदर्भ में याद रखना होगा कि 14नवंबर 2022 को बस्तर जिले के जशपुर स्थित ‘वनवासी कल्याण आश्रम में आयोजित वह भव्य कार्यक्रम जो संघ प्रमुख मोहन जी भागवत के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ था।

14 नवम्बर 2022 को जशपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का आगमन और आदिवासी समाज के क्रांतिकारी महानायक बिरसा मुंडा की प्रतिमा को माल्यार्पण के साथ, उन स्व. दिलीप सिंह जूदेव की प्रतिमा का अनावरण भी किया गया जिनपर, 2003 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री की हैसियत से, खनन की इजाजत देने के बदले घूस लेने का आरोप लगा था और एक स्टिंग ऑपरेशन में वे यह कहते हुए पकड़े गए थे कि ‘पैसा ख़ुदा तो नहीं लेकिन ख़ुदा की कसम, पैसा ख़ुदा से कम भी नहीं।’

छ.ग., झारखण्ड तथा ओड़िशा राज्य के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के हजारों वनवासी महिला-पुरुषों को, जनजातीय गौरव दिवस एवं स्व. दिलीप सिंह जूदेव के प्रतिमा अनावरण समारोह के बाद संघ प्रमुख ने कहा था कि “जनजातीय जीवन पद्धति हमारे भारतीय जीवन पद्धति का मूल्य है। हमें अपने गौरव का चयन करना है गौरव पर पक्का रहना है। अपने देश, धर्म, संस्कृति, और समाज इसको मन में रखना है। यह हमारा मूल्य है उससे कटना नहीं है। हमारे भोलेपन का लाभ लेकर ठगने वाली दुनिया से बचना होगा। हम मजबूत हैं तो कोई हमारा क्या कर सकता है? हमारे पास अपना गौरव है, धर्म है, अपना स्वाभिमान है। स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव और बिरसा मुण्डा ने हमें कैसे जीना है यह बताया है। हम वैसे ही दुनिया में अपना स्थान प्राप्त कर लेंगे। हमें अपने धर्म, संस्कृति, एवं अपने देश के लिए निर्भय होकर चलना है।”

यह भाषण संघ द्वारा आदिवासियों को, संघ द्वारा देश भर में संचालित वनवासी कल्याण आश्रमों के बाल और किशोर आदिवासी छात्रों को दिए गए वैचारिक संस्कारों का निचोड़ है जिसमें उन्हें यह सिखाया गया है कि उनका धर्म, स्वाभिमान और जीवन को जीने की शैली आरएसएस के हिंदुओं की जीवन शैली जैसी होनी चाहिए जिसके एक आदर्श पुरुष दिलीपसिंह जूदेव भी हैं। उन्हें ये भी बताते हैं मोहन भागवत, कि आदिवासियों को, ठगने वाली दुनिया से बचना होगा।

आरएसएस किसे मानता है, आदिवासियों को ठगने वाला? यह जगजाहिर है। उनका इशारा ईसाइयों की तरफ था क्योंकि ईसाई मिशनरियों ने धर्मांतरण के द्वारा, सबसे ज्यादा संख्या में आदिवासियों को ही ईसाई बनाया है।

आरएसएस, अतीत के मुगलकालीन और ब्रिटिशकालीन इतिहास से, दो अलग अलग कारणों से, नफरत फैलाकर लड़ रहा है। ईसाइयों से इसलिए क्योंकि ईसाइयों ने भारत में, अन्यों की बनिस्बत, आदिवासियों को ही सबसे जादा ईसाई बनाया है। इसीलिए आरएसएस के नेता अपने जहरीले भाषणों में (जिन्हें आरएसएस के नेता, भाषण की बजाय ‘बौद्धिक’ कहकर फूले नहीं समाते हैं), ईसाइयों को ही, आदिवासियों को ठगने वाला बताते हैं और इसीलिए आरएसएस ने आदिवासियों को ईसाई बनने से रोकने के लिए और धर्मांतरित आदिवासियों को हिंदूधर्म में धर्मांतरित करने के लिए ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ की स्थापना की है। सिर्फ इसी में उसे आदिवासियों का कल्याण नजर आता है।

आदिवासियों का वास्तविक कल्याण तो तब होगा जब आधुनिक सभ्यता और पूंजीवादी राजनीति के अलमदारों द्वारा आदिवासियों को उनकी प्राकृतिक संपत्ति, यानी जल, जंगल और जमीन वापस लौटाई जाएगी और बचे हुए जल, जंगल और जमीन से आदिवासियों को बेदखल नहीं किया जाएगा। लेकिन आरएसएस और उसके संस्कारों से संस्कारित वर्तमान भाजपाई हुक्मरान ऐसा करने की बजाय, कार्पोरेटियों को जंगलों में मौजूद मूल्यवान खनिजों के खनन के लिए तथा आदिवासियों की बजाय शेरों को जंगलों में बसाकर पर्यटकों से पैसा कमाने के लिए आदिवासियों को जंगलों से विस्थापित कर रहे हैं।

मोहन भागवत को क्या इन्हीं सब में ‘वनवासियों’ का कल्याण नजर आता है?

शेरों की लुप्त होती प्रजाति को बचाना और आदिवासी मानव संस्कृति को उजाड़ना ही आरएसएस परिवार की नजरों में आदिवासियों का कल्याण है।

वनवासी कल्याण आश्रमों अर्थात छात्रावासों में आदिवासी छात्रों को आरएसएस के हिन्दूराष्ट्रवादी संस्कारों से संस्कारित करना ही, इनके लिए आदिवासियों के कल्याण का एकमेव मार्ग है और ऐसे संस्कारों की कोख से ही, मुसलमानों के साथ साथ, ईसाई बन चुके आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों का अभियान, आरएसएस के स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी की हुकूमत के दौरान, तेजी से परवान चढ़ रहा है।

सूदखोर हिन्दू व्यापारियों ने सदियों तक अनपढ़ और साफदिल मासूम आदिवासियों को बुरी तरह से लूट कर, किस तरह से बेशुमार दौलत कमाई है, इसकी एक अलग कहानी है जिस पर आरएसएस कोई ध्यान इसलिए नहीं दे सकता क्योंकि ये सूदखोर हिन्दू व्यापारी भी हमेशा सत्ताधारी पार्टी की जिन्दाबादी करते रहते हैं।

घूसखोरी के इल्जाम में रंगे और पैसे को ईश्वर का दर्जा देने वाले आदिवासी नेता दिलीपसिंह जूदेव से जीने का तरीका सीखने का उपदेश देते हुए मोहन भागवत को जरा सी भी शर्म महसूस नहीं हुई!

बिरसा मुंडा के साथ दिलीपसिंह जूदेव के चरित्र की क्या कोई साम्यता है?

बिरसा मुंडा के साथ सच्ची और प्रेरणादायक साम्यता अगर किसी आदिवासी क्रांतिकारी नेता की हो सकती है, तो वो हैं शहीद वीर नारायण सिंह जिनका आरएसएस ने आजतक कभी भी अभिनंदन नहीं किया क्योंकि उन्होंने राजा होते हुए भी पैसे को कभी भी भगवान का दर्जा नहीं दिया।

वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, एक सच्चे देशभक्त व गरीबों के मसीहा थे। 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय उन्होंने जेल से भागकर अंग्रेजों से लोहा लिया था जिसमें वे गिरफ्तार कर लिए गए थे। 10 दिसम्बर 1857 को उन्हें रायपुर के “जय स्तम्भ चौक” पर फाँसी दे दी गयी थी।

वीर नारायण सिंह जब जमींदार बने, उसी समय सोनाखान क्षेत्र में अकाल पड़ा। ये 1856 का समय था जब एक साल नहीं लगातार तीन साल तक लोगों को अकाल का सामना करना पड़ा। इससे इंसान तो इंसान जानवर भी दाने-दाने के लिए तरस गए। नारायण सिंह ने अनाज भंडार से अनाज लूटकर ग्रामीणों में बंटवा दिया था।

इतिहासकार बताते हैं कि सोनाखान इलाके में एक माखन नाम का व्यापारी था जिसके पास अनाज का बड़ा भंडार था। इस अकाल के समय माखन ने किसानों को उधार में अनाज देने की मांग को ठुकरा दिया। तब ग्रामीणों ने नारायण सिंह से गुहार लगाई और जमींदार नारायण सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने व्यापारी माखन के अनाज भण्डार के ताले तोड़ दिये। नारायण सिंह ने गोदामों से उतना ही अनाज निकाला जितना भूख से पीड़ित किसानों के लिए आवश्यक था। इस लूट की शिकायत व्यापारी माखन ने रायपुर के डिप्टी कमिश्नर से कर दी। उस समय के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह के खिलाफ वारंट जारी कर दिया और नारायण सिंह को सम्बलपुर से 24 अक्टूबर 1856 को बन्दी बना लिया गया। कमिश्नर ने नारायण सिंह पर चोरी और डकैती का मामाला दर्ज किया था। नारायणसिंह को जेल की सजा सुनाई गई और उन्हें रायपुर की जेल में बंद कर दिया गया।

सोनाखान के किसान अपने नेता को जेल में में देखकर दुखी थे, लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं था पर उसी समय देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। इस अवसर का फायदा उठाकर संबलपुर के राजा सुरेन्द्रसाय की मदद से किसानों ने नारायण सिंह को रायपुर जेल से भगाने की योजना बनाई और इस योजना में सफल हुए। अंग्रेज इस घटना से आगबबूला हो गए और नारायण सिंह की गिरफ्तारी के लिए एक बड़ी सेना भेज दी।

नारायण सिंह ने सोनाखान में अंग्रेजों से लड़ने के लिए अपनी खुद की सेना बना ली थी। वे 900 जवानों के साथ अंग्रेजी सेना का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार थे। दुर्भाग्य की बात ये थी कि उस समय नारायण सिंह के रिश्ते में चाचा लगने वाले देवरी के जमींदार ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। इसके बाद स्मिथ की सेना ने लंबे समय के संघर्ष के बाद सोनाखान को चारों तरफ से घेरकर नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया।

इसके बाद अंग्रेजों ने रायपुर के जय स्तंभ चौक पर आम नागरिकों के सामने नारायण सिंह को 10 दिसंबर 1857 को फांसी दे दी। नारायण सिंह की बहादुरी से अंग्रेजों का छत्तीसगढ़ कब्जा का सपना टूट गया था। इसके बाद अंग्रेजी सेना के खिलाफ जमकर विरोध हुए। आम जनता के मन में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के भाव ने जन्म ले लिया और इसके बाद आए दिन छत्तीसगढ़ की जमीन से अंग्रेजी सेना को ललकारा गया।

शहीद वीर नारायण सिंह की कहानी के खलनायक व्यापारी माखन जैसे लोग आरएसएस के हीरो हैं और आजादी के लिए, 1857 से लेकर 1947 तक लड़ी गई किसी भी लड़ाई से दूरी बनाए रखकर आरएसएस अपनी ब्रिटिश हुकूमतपरस्ती के लिए बुरी तरह से बदनाम है। और अभी भी वह शहीद वीर नारायण सिंह की बजाय दिलीपसिंह जूदेव को अपना हीरो मानता है।

विविधता में एकात्मता वाली, मानवीय गरिमा के उच्चतम सोपान पर चढ़ी हुई, अनुपम भारतीय सभ्यता और संस्कृति को, विविधता विरोधी एकात्मता की हिन्दूराष्ट्रवादी असभ्य विकृति में तब्दील करने के काम की कोख से ही, आदिवासियों द्वारा धर्मांतरित ईसाई आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों की ऐसी दर्दनाक कहानियों का जन्म हो रहा है।

बकौल दुष्यंत –

अब नई तहजीब के पेशेनज़र हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं.

Leave a Comment