— चिन्मय मिश्र —
बन्धुओ, कसाई भी आड़ में बकरा काटता है। तालिबानी भी छुपकर ही बम लगाता है। पर घुत्तु में मौजूद हिमालयहंताओं का बर्ताव को क्रूरतर था। कतई इस्लामिक स्टेट वालों की मानिंद यहां भी था सारा कुछ बेपर्दा। हिमालय की देह में छेद करना। छेद में डायनामाइट फँसाना। डायनामाइट में दूर बैठ बत्ती लगाना। सब सरेराह, सब खुलेआम।’’
‘‘सार्थवाह हिमालय” – डा. अजय सोडानी
ऊपर जो लिखा है वह लेखक ने सन् 2012 में देखा और महसूस किया था। आज जो ‘‘जोशीमठ’’ में हो रहा है, या जो अब तक हिमालय में बांधों, सड़कों और ऐशगाहों के बनने से हुआ है, तीर्थों के पर्यटन स्थल बन जाने से हुआ है और हो रहा है, तथा भविष्य में होगा, वह सब इस किताब यानी ‘सार्थवाह हिमालय’ से समझा जा सकता है।
नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियां हम सुनते-पढ़ते रहते हैं, परंतु हमारे अपने हिमालय में जो घटित हो रहा है, उसकी पूर्व चेतावनियों की हम लगातार अनदेखी करते चले आ रहे हैं। सन् 1976 में मिश्रा समिति द्वारा रिपोर्ट दिए अब करीब 50 साल होने आए। पर हम नहीं संभले। दिल्ली के शौचालयों को भरपूर पानी मिले इसलिए हिमालय को दरका दिया। दिल्ली और बाकी देश दूधिया रोशनी में नहाता रहे इसलिए हिमालय का विध्वंस हमें विचलित नहीं कर पाया।
जोशीमठ के घरों, मंदिरों, बाजारों में पिछले चार बरसों से बढ़ती दरारों की ओर हमारा ध्यान तब तक नहीं गया, जब तक कि वे इतनी चौड़ी नहीं हो गईं, जिसमें हम सशरीर आड़े समा सकते थे। अभी भी ध्यान भर गया है, हम चेते नहीं हैं। जोशीमठ को एक ओर से पहाड़ों के बीच से गुजरती सुरंग प्रलय की ओर ले जा रही है और दूसरी ओर नीचे बन रही ‘‘सिक्स लेन’’ सड़क उसका आधार – उसकी नींव को खोखला कर रही है। जो पत्थर ठोस हैं, गहरे हैं वे डायनामाइट से उड़ाए जा रहे हैं और ढीले व कमजोर हैं हथौडे़ से, यानी विनाश का दौर अपने चरम पर है।
अजय सोडानी ने तभी बता दिया था, ‘‘इन दिनों हिमालय को मनमाफिक बरतने की मंशा चरम पर है। उसे वैसे तैयार किया जा रहा है जैसे करते हैं घोड़े हाथी को आरोहण हेतु। जैसे बनाया जाता है बच्चों को जबरन भिखारी, गायक, धावक, बाहुक (तमाम अर्थ जैसे कुली, मजदूर, आज्ञाकारी, गुलाम, नौकर, मुलाजिम) या नौजवानों का मानस ढाला जाता है, बाजार चलाने, सरकार बचाने अथवा आतंक फैलाने हेतु। ठीक वैसे ही हिमाला को बिकने योग्य दिखने के लिए स्मार्ट बनाया जा रहा है। कुरेदे जा रहे हैं उसके कोने। तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है वहां की नदियों को। उनकी सघन जटाओं को छाँट कुछ इस तरह से सँवारा जा रहा है कि वह अन्तरराष्ट्रीय फुटबाल खिलाड़ी सा दिखने लगें। बदन टैटूमय। खुपड़िया अलग-अलग सफाचट, बीच में तरतीब से उलझाए, मनचाहे रंगत के केश। कल्पनातीत है हिमाधिराज की कल सामने आने वाली जर्क-बर्क छब।’’
जोशीमठ तो आगाज है, विनाशलीला का। वैज्ञानिक एवं भूगर्भीय तथ्यों की पड़ताल होना एक अनिवार्यता है, लेकिन जब हम साक्षात परिणाम देख रहे हों, तो कैसा परीक्षण? हिमालय नई शब्दावली में कहें तो वेंटिलेटर पर है। अभी संभलना ही किसी अन्य परिणाम पर ले जा सकता है। याद रखिए पोस्टमार्टम से किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण अवश्य बताया जा सकता है, लेकिन वजह जान जाने के बावजूद विज्ञान उसे पुनः जिन्दा नहीं कर सकता। हाँ इतना अवश्य है कि दूसरे लोग इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
परंतु हिमालय व मनुष्य में फर्क है। दूसरा हिमालय अब विकसित नहीं हो सकता। अतएव पोस्टमार्टम का कोई लाभ नहीं निकलेगा। इसे तो हर हाल में बचाना ही होगा। कोई और विकल्प ही नहीं है हमारे पास। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि हिमालय का विनाश भारत के चालीस प्रतिशत क्षेत्रफल के विनाश का कारण बनेगा। हिमालय के विनाश से गंगासागर तक वाया दिल्ली पूरा देश बिना पानी का हो सकता है। पर जिद का तो कोई इलाज ही नहीं है।
हिमालय में रहने वाले अनादि काल से यह जानते रहे हैं कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं है। ‘सार्थवाह हिमालय’ में लिखा है, ‘‘पूछने वाले इस देवी-कथा और जोशीमठ में नवदुर्गा पर घी चढ़ाने की परंपरा का नाता पूछेंगे। तो जान लें, जोशीमठ कभी इतना गर्म नहीं होता कि घी पिघल जाए। जो पिघला, तो मायने यह कि मौसम अतिशय गर्म है। जिस जगह ने कभी तीक्ष्ण ग्रीष्म ही नहीं देखा वहां गर्मी से कहर बरपा कि बरपा। प्रतीत होता है हमारे पूर्वज उत्तराखंड हिमालय की तासीर से भी भलीभांति परिचित थे। उन्हें इल्म था कि वह अधिक दिनों तक एक पासे नहीं बैठने का। कि यहां भूचाल आते ही रहेंगे। (बांध, नदी बांधने, जलविद्युत बनाने हेतु उद्यम स्थापित करने के बाद सन् 1983 से 1992 ई. तक गढ़वाल ने ग्यारह तगड़े भूंकप झेले हैं। छोटों की गिनती नहीं) इससे जानमाल की हानि के साथ जोशीमठ, बदरीनाथ, गोपेश्वर के देवालयों को नुकसान पहुंचा है। गोपेश्वर इलाके में धरती में पड़ी दरार पूर्व पश्चिम की ओर बढ़ रही है।
हिमालय जैसा का वैसा नहीं रहने का। बिनाबर एहतियातन उन्होंने तमाम तैयारियां कर लीं। ‘‘भविष्य बदरी की जगह नियत कर दी, भविष्य केदार की भी। मुझे तो यह अब अज्ञान नहीं लगते अनुभवजन्य विज्ञान लगते हैं।’’ गौर करिए ‘‘भविष्य बदरी’’ व ‘‘भविष्य केदार’’ की परिकल्पना पर ! तो जानिए भविष्य बदरी कहां स्वयंभू विकसित हो रहा है?
जोशीमठ से बद्री विशाल की ओर जाएं तो दो रास्ते कटते हैं। एक नीचे बद्रीविशाल की ओर जाता है और दूसरा ऊपर नीति वैली (घाटी) की ओर। इस मार्ग पर 20 किलोमीटर आगे रेणी गांव है। यहीं पर घोलीगंगा मिलती है। जो तपोवन से आती है। इसी के गाड (नाले) पर उस जलविद्युत परियोजना का निर्माण हो रहा था जो पिछले वर्ष ध्वस्त हो गई है। स्थानीय लोगों का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बावजूद यहां काम चलता रहा था और सन् 2016 के बाद तो देश में बड़े लोगों पर कोई कानून वैसे भी कहां लागू होता है? यहीं पर वह सुरंग बन रही थी, जिसमें न मालूम कितने मजदूर बाहर नहीं आ सके। इसी नाले में नंदा देवी की ओर से पानी आता है जिसे कथित तौर पर रेडियोधर्मी भी कहा जाता है। इस गाड की दूसरी तरफ लाता गांव है।
इसी गांव से सटे पहाड़ के शीर्ष पर कहीं भविष्य बदरी स्थित हैं। हमारे पूर्वजों ने अपने देवता का नया निवास भी तैयार कर दिया था। परंतु बीच में ‘‘विकास’’ आ गया। पुरखे यह तो जानते थे कि हिमालय का यह हिस्सा स्थायी नहीं है। ग्लेशियर के पीछे हो जाने से बाहर आया यह भूस्खलन कैसे स्थायी हो सकता है? उन्होंने इसी को ध्यान में रखकर अपने घर भी बनाए। लोगों का कहना है कि वहां कुछ पांच मंजिले मकान पिछले 400 बरसों से भी ज्यादा समय से अक्षुण्ण खड़े हैं। लोग उनमें रह रहे हैं। उन्होंने तीव्र से तीव्र भूकंप भी झेल लिये। परंतु वे भविष्य के आधुनिक विकास नामक दानव के इतने शक्तिशाली होने की कल्पना नहीं कर पाए थे। वैसे वे भस्मासुर की कल्पना तो पहले कर ही चुके थे। ये आधुनिक विकास भी कमोबेश भस्मासुर, खासकर हिमालय के संदर्भ में सिद्ध हो रहा है।
भस्मासुर उसे वरदान देने वाले शिव को ही भस्म करने दौड़ पड़ा था। पर तब विष्णु ने उनकी मदद की थी। परंतु अब विकास की इस भस्मासुरी प्रवृत्ति को नष्ट करने के लिए जिस मोहिनी की आवश्यकता है, वह कहीं नजर नहीं आ रही। गौरतलब है विष्णु भी तभी मदद को आए थे जब शिव ने मदद मांगी थी। पर विकास नामक आधुनिक भस्मासुर अपने पूर्वज से अधिक चालाक हो गया है और वो अब शासकों की ओर मुखातिब ही नहीं होता। उसकी जद में आम आदमी हैं और शासक? वो तो आप जानते हैं कि क्यों इस भस्मासुर को वरदहस्त प्रदान कर रहे हैं। तो जोशीमठ इसका नवीनतम शिकार है। टिहरी आदि पहले इस विकास भस्मासुर का शिकार हो चुके हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो विध्वंस अभी जोशीमठ से शुरु हुआ है वह बहुत तेजी से ‘‘भविष्य बदरी’’ जहां शिव अपना भविष्य का निवास बनाना चाह रहे हैं तक, बहुत जल्दी पहुंच सकता है। इसे सीधे शब्दों में समझें तो हमारा भविष्य इन ‘‘भविष्य बदरी’’ और ‘‘भविष्य केदार’’ से जुड़ा है, अगर इनका ही भविष्य नहीं बचेगा तो हमारा भविष्य भी नहीं बचेगा और अंततः हम भी नहीं बचेंगे।
बहरहाल वर्तमान में लौटते हैं। प्रशासन ने अभी औली में स्थित देश के सबसे लंबे रोप-वे के संचालन पर भी रोक लगाई है। औली को लेकर ‘सार्थवाह हिमालय’ में कटु टिप्पणी है, ‘‘प्रकृति के प्रति हमारी बर्बर मानसिकता का जिन्दा नमूना है औली। कैसे? वो ऐसे कि ‘‘बारहमास रोजगार’’ के नाम पर यहां शीतकालीन खेलों को विकसित करने की योजना बनी। इसके लिए पहाड़ के ढलान पर से जंगल छांटे गए। मैदान तो हासिल हो गए पर बर्फ खत्म हो गई। अब स्नोस्कीटिंग कैसे हो ? बर्फ नहीं तो खेल भी नहीं। इसलिए यहां पर बर्फ के उत्पादन के लिए एक संयंत्र स्थापित हुआ। यानी हिमालय में कृत्रिम बर्फ ! परंतु मुद्दा यह भी था कि पानी कहां से लाएं। तो वहां एक तालाब बनाया गया, पच्चीस हजार धनमीटर क्षमता वाला।
अब आप खुद ही सोचिए एक कमजोर पहाड़ पर बरसात का पानी इकट्ठा कर यदि इतना बड़ा तालाब बनेगा तो उसके वजन से और जमीन में पानी के रिसाव से किस तरह की परिस्थिति या पारिस्थितिकी का निर्माण होगा। मगर जीवित ‘‘रोबोट’’ तो सोचते नहीं। जो आदेशित होता है उसका पालन करते हैं तो रोबोट ही विकास नामक भस्मासुर को आदेशित कर रहे हैं।
औली के नामकरण को लेकर इस छोटी सी गाथा पर गौर करिए, ‘‘बहुत पहले की बात है। कब की किसे खबर ? तब की जब एकान्त तलाशता एक प्रेमी युगल यहां के जंगलों में घूम रहा था। न जाने क्यों और कैसे युवती धुन्ध में कहीं गुम हो गई। प्रेमी ने उसे तलाशा। गाँव वालों ने भी। देर तक फिरते रहे वन में – औली SS………. औली SSS का हेला लगाते हुए। औली-औली के मायने (हैं) आओ… आ जाओ। तब से यह शब्द फ़िजा में यूं स्थिर हो गया कि इस जगह का नाम ही औली पड़ गया।’’ तो जो आवाज प्रेमिका के लिए लगी थी, लग रही थी, उसे वह तो नहीं सुन पाई पर आधुनिक ‘‘विकास’’ ने समझ लिया कि यह बुलावा ‘‘औली-औली’’ उसके लिए है और वह आ गया। वह औली को गड़प गया। पहाड़ की सह्दयता ने उसे आने दिया। और ….. !
तो विनाश को बुलावा तो खुद हिमालय ने ही दिया है। क्यों? क्योंकि वह इतना भरपूर हैं, इतना मोहक है, इतना समावेशी है, इतना विशाल ह्दय है और इस सबसे ऊपर इतना भोला है की सहज विश्वास करता है? शायद भोलेनाथ का निवास होने के कारण। पर भोलेनाथ अंततः भस्मासुर को नष्ट कर ही देते हैं। वे छोड़ते तो कामदेव को भी नहीं हैं। जोशीमठ का विनाश क्या उनके तीसरे नेत्र के खुलने की पूर्व सूचना है?
भागवत पुराण की एक कथा के अनुसार उमा (पार्वती अवतार) के पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में शिव के बिना बुलाए आने व विवाद के बाद, उमा के हवन कुंड में कूदने और शिव का उनको कंधे पर लेकर आकाश मार्ग में विचरण और विष्णु के चक्र द्वारा उमा का शरीर खंडित कर गिराने की प्रक्रिया जिससे कि शिव की वेदना कम हो, हम सब जानते हैं। उस प्रक्रिया में सती उमा के अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ बन गए थे।
हिमालय के ऊपर से गुजरते हुए उमा की आँखों से ज्योति निकल नीचे गिर गई। जहां यह ज्योतिर्पात हुआ कालांतर में ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कल्पनाएं ही भविष्य की रचना करतीं हैं। हिमालय क्षेत्र में हो रहा विकास अंततः विनाश ही सिद्ध होगा। इसे चाहें तो कथित वैज्ञानिक नजरिए से देखें या समाज में प्रचलित गाथाओं के नजरिए से, परिणाम एक ही निकलेगा।
इसी पुस्तक के इस अंश पर गौर करिए, ‘‘थोड़ी देर में वीरान हो चुकी बस्ती में आमद हुई एक मोटे-ताजे मकोड़े की। उसने पीछे छूटा अंडा उठाया और गुम हो गया हिमलोक में। मैं अचम्भित। कि मकोड़े को पीछे छूटे अंडे की खबर हुई तो हुई कैसे ? क्या ये अकिंचन जीव गिनना जानते हैं ? कुछ छूटा तो नहीं पीछे, क्या ऐसी चिन्ता मकोड़े भी करते हैं। तपते सूरज तले, महसूसते हुए बहती शीतल पवन को, मैं सोच रहा था मोनाल का रिरियाना और मकोड़े का भागना। और उनका छूटा अंडा उठाना, कि तभी जोरदार धमाका हुआ।’ एवलांच ?” याद रखिए वह मकोड़ा अपने भविष्य यानी अंडे को उस धमाके से पहले, उस तूफान आने के पहले वहां से ले गया। तब वह अपने भविष्य को लेकर सचेत था परन्तु हम? हम जोशीमठ का धमाका सुनने के बाद भी अपने भविष्य को सुरक्षित मान रहे हैं। यदि हमें अपने भविष्य को लेकर चिंता है तो हमें भस्मासुरी विकास नहीं उस मकोड़े को अपनाना होगा।
अंत में महात्मा गांधी की इस बात पर गौर करिए “Your liberty of swing your hand ends where tip of my nose begins” यानी हाथ हिलाने के अधिकार में दूसरों को घूंसा मारने का अधिकार निहित नहीं है। उम्मीद (वैसे तो नहीं है) है विश्व के राजनेता और नियोजनकर्ता अपनी सीमा पहचान पाएंगे।
(humsamvet.com से साभार)