— राजकिशोर महतो एवं मंथन —
13 जनवरी. जमशेदपुर के डिमना चौक से साकची गोलचक्कर तक 8 जनवरी को डहरे टुसु परब शोभायात्रा निकली। इस टुसु परब शोभायात्रा में झारखंड, बंगाल, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के हजारों लोग शामिल हुए। इसमें कुड़मि जनगण की भागीदारी 95 फीसद थी। विराट जनसमूह ने 6-7 किलोमीटर की दूरी थिरकते, नाचते, गाते, बजाते तय की।
यह आयोजन वृहत झारखंड कला संस्कृति मंच के आह्वान पर सम्पन्न हुआ। झारखंड प्रांत की मूल माँग बिहार के साथ ही प. बंगाल, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी बहुल क्षेत्रों को जोड़कर एक राज्य बनाने की रही है। आबादी के एक हिस्से में यह माँग आज भी जीवन्त है।
यह कार्यक्रम कई मायने में अभूतपूर्व था। पहली बार झारखंड के शहर की डगरों (राहों) यानी सड़कों पर टुसु परब का हुजूम उतरा। इसके पहले गाँवों में, नदियों के किनारे मेलों में यह परब दिखता था। ज्यादा से ज्यादा शहरों के मैदानों में मंचासीन राजनेताओं के आमंत्रण पर झाँकियों की प्रतियोगिता होती थी। इस बार सड़कों पर सामान्यजनों को, खासकर महिलाओं को आगे की पाँत देते हुए यह परब प्रदर्शन हुआ। जुटने और पहुँचने की जगह पर कोई मंच नहीं था। टुसु परब में भी मूर्ति की जो घुसपैठ हो गयी है उससे यह शोभायात्रा पूरी तरह मुक्त थी। सिर्फ चौड़ल लेकर लोग चल रहे थे। जमशेदपुर के कुछ दिन पहले धनबाद में टुसु संस्कृति यात्रा निकली थी। जमशेदपुर का यह सांस्कृतिक जनजुटान लगभग बीस हजार लोगों का था।
देखा जाए तो टुसु परब मुख्य रूप से कृषिप्रधान कुड़मि समाज का ही है। पर कृषिकार्य में सहयोगी अन्य जाति, जनजाति भी इस पर्व को मनाते हैं। कुड़मि आज की तारीख में सरकारी सूची में अन्य पिछड़ी जाति में दर्ज है। कुछ सालों से कुड़मि समाज में जनजाति या आदिवासी पहचान वापस पाने की आकांक्षा उमड़ी है। इस पक्ष में ऐतिहासिक दस्तावेजी दावे भी पेश किये जाते हैं। कर्मकांडों से ब्राह्मण की घुसपैठ को खत्म करने का अभियान जोर पकड़ा है। कुड़मि जनजाति में 12 माह में 13 परब का रिवाज आदिकाल से ही चला आ रहा है। जिसमें टुसु परब शभी एक महत्त्वपूर्ण परब है। यह मूल रूप से शस्य रूपी धान की शक्ति की आराधना का मासव्यापी परब है ।
वैसे तो टुसु परब बृहद झारखंड में रहनेवाले कई जातियों व जनजाति के लोग मनाते हैं लेकिन कुड़मि जनजाति में इसका महत्त्व और उत्साह कुछ अधिक है।
टुसु का मूल स्वरूप धान है जिसे मातृशक्ति डिनी टुसुमनी कहा जाता है। टुसु शब्द की उत्पत्ति टुई से हुई है जिसका अर्थ होता है शिखर अर्थात सबसे बड़ा जीवनयापन का माध्यम जिसे मनुष्य ने इस छोटानागपुर में पाया। धान ही टुसु है। वर्तमान में टुसु का अलिखित इतिहास होने के कारण कई लेखक मिथक रचते हैं। कहीं राजकन्या, कहीं कुड़मि कन्या, कहीं सती तो कहीं देवी के रूप में टुसु की काल्पनिक कथाएँ गढ़ते हैं। तरह-तरह की मनगढ़ंत किंवदंतियां लिखी जा रही हैं। यहां तक कि शहरों में बड़े पैमाने पर टुसु की मानव रूप में मूर्तियों की प्रदर्शनी भी की जा रही है। यह मूल तत्त्व से बिल्कुल अलग और भ्रामक है।
टुसु परब 1 महीने का पर्व है। इस पर्व की शुरुआत अघन संक्रांति से होती है। इस दिन टुसु की स्थापना की जाती है। इसी दिन से प्रतिदिन शाम को एक फूल देकर आराधना के साथ टुसु गीत गाया जाता है तथा प्रत्येक 8 दिनों में टुसु का महाभोग लगाया जाता है। इस महाभोग को “आठ कलइया” कहा जाता है। इस परब के अंतिम सप्ताह यानी पूस माह के अंतिम सप्ताह को आउड़ी, चाउड़ी, बाउड़ी और मकर के नाम से जाना जाता है। मकर के दिन ही इस त्योहार का समापन “टुसु भषाण” के साथ होता है। टुसु को पालकी रूपी “चौड़ल” में घर से निकाल कर बहते पानी में विदा कर दिया जाता है ताकि धान किसी स्थान पर किनारे लग फिर से पौधा बन किसी का पेट भरने का साधन बन सके।
इसी दिन सूर्य कर्क रेखा की ओर लौटते क्रम में मकर रेखा पर होता है। अगला दिन कुड़मि जनजाति कुड़मालि कृषि नववर्ष “अखाइन जातरा” के रूप में मनाते हैं। इस तरह टुसु परब कुड़मालि कृषि वर्ष का अंतिम त्योहार होता है।
शहर में टुसु परब मनाने का कारण यह है कि शहर में विभिन्न प्रदेशों के विभिन्न संस्कृतियों के लोग बसावास करते हैं और इन्हें झारखंड के गांव घर के परब त्योहारों का पता नहीं होता । आम लोगों तक हमारे झारखंडी परब त्योहारों की सटीक जानकारी हो इसलिए हम शहर में टुसु परब का आयोजन कर रहे हैं। साथ ही, हमारे राज्य की सरकार जो हमारे गांव घर के त्योहारों को महत्त्व नहीं देती है उसका ध्यान आकृष्ट करने के लिए शहर में टुसु परब का आयोजन किया गया।
बृहद झारखंड कला संस्कृति मंच के बैनर तले टुसु परब के साथ अन्य पर्वों का आयोजन करने का उद्देश्य एक संदेश सरकार तक भी पहुंचाना है कि तमाम झारखंडी परब झारखंड राज्य के साथ-साथ बंगाल, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों यानी कि पूरे छोटानागपुर पठार क्षेत्र में मनाया जाता है यानी कि पूरा छोटानागपुर पठार क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से एक है और इसे ही बृहद झारखंड कहा जाता है। बृहद झारखंड की मांग भी उठती रही है जो अभी तक अधूरी है।
इन दिनों भारतीय समाज में वर्ष के आरंभ की समयगत क्षेत्रीय विविधता को उपेक्षित कर हिन्दू नववर्ष सड़कों पर उन्मादी या दबंग रूप से उतरकर आक्रामक तरीके से मनाने का चलन शुरू हुआ है। इस नववर्ष आयोजन से ऐसा लगता है मानो नववर्ष सिर्फ आक्रामक युवा पुरुषों के लिए है। ऐसे आक्रामक धार्मिक और पुरुषवादी राजनीतिक प्रदर्शन के वातावरण में सौम्य रूप से हर उम्र की महिला और हर उम्र के पुरुष का संगीत, नृत्य के साथ सांस्कृतिक रूप से उतरना एक सुकुन देता है। एक सुरीली उम्मीद देता है।