सच का बैरिकेड या बैरिकेड का सच

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— सुधा उपाध्याय —

ब से अपनी अक्ल को थोड़ी समझ आई है, सच को सच कहने का जोखिम उठाया है, इन्हीं बैरिकेड से बार-बार टकराई हूँ…वे दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था, क्योंकि बैरिकेड्स तब वजह से बनाए जाते थे। जो वाजिब भी होते थे, कभी किसी आपातकाल से रोकने को, कभी भय और आतंक से बचाने को, तो कभी नियम-कानून सही ढंग से लागू हों इसके चलते। जनतंत्र को सफल बनाने के लिए। उसमें बढ़ती अराजकता को रोकने थामने के लिए बैरिकेड्स लगाए जाते थे। पर सच कहूँ, मैंने ‘सच’ को इन दिनों जितना ज़ख़्मी पाया, क्रूर, ताकतवर हिंसक के आगे गिड़गिड़ाते, घिसटते, भीड़ को आहत होते, जनशक्ति और जनसैलाब को रोकते, वजह-बेवजह इस बैरिकेड्स को तनकर सामने खड़ा पाया तो घिन सी आने लगी।

ये बैरिकेड्स आगे बढ़ने नहीं देते। भय और आतंक के माहौल को और उड़ाते हैं। हम और हमारे बीच हमेशा शक-संदेह कर दूरियाँ बढ़ाते हैं। हमारी खाई बढ़ती जाती है। जन का मन मिलने नहीं पाता और पूरे तंत्र के सुरक्षा कवच ये बैरिकेड, यहाँ वहाँ सब जगह तने हुए दिखाई देते हैं। संसद से सड़क हो या सड़क से संसद, स्कूल से कॉलेज हो या कॉलेज से विश्वविद्यालय, हर तरफ सच को लहूलुहान लाठी झेलते, आँसू गैस से टकराते, पानी के फुहारों से उड़ाते जंतर मंतर की पुकार को अनसुना करते, तंत्र की शक्ति को उसकी दरबारी संस्कृति को चहुँओर पसरता पाती हूँ। राजकाज का केंद्रीय स्थल हो या जनता के प्रतिनिधियों की अदालत, संसद हो या न्यायालय, पुलिस थाना हो या विश्वविद्यालय, सब जगह इस बेचारे ‘सच’ को बैरिकेड से दुरदुराकर दूर रहने को कहा जाता है…जबकि देखिए न सच तो यह है कि बनाए गए थे ये बैरिकेड्स उपद्रवियों के लिए, अराजक क्रूर हिंसक ताक़तों के लिए पर क्या कहें जब अपराधियों का संयुक्त परिवार इस क्रूर भ्रष्ट तंत्र का सिपहसलार है। मीडिया, पुलिस, संसद, न्यायालय, विश्वविद्यालय या बेख़बर बेसुधी परोसती खबरिया चैनल की सेक्स सनसनी व स्कैंडल की दुनिया हो। जहाँ से सच हमेशा के लिए निष्कासित है, बहिष्कृत, अनादृत है अपमानित है।

सच को ढाँकने के लिए पूरे समाज व सामाजिक को काटकर रखा जा रहा है, क्योंकि गढ़े जाते हैं संवाद, गढ़ी जाती है समीक्षा, गढ़ी जाती है टिप्पणी और जन-जन उर सूल। मठाधीशों की दुनिया का सच और सर्वहारा का सच अलग अलग होता है। कोई भी युग रहा हो या ज़माना। बुद्धिजीवी बुद्धि, विवेक, विचार, संवाद सबको गिरवी रखकर कृतदास बन चुका है। बाहरी चकाचौंध किराये पर ढोकर विवेक पर कालिख पोते, रीढ़ से नपुंसक होकर बहुत सी नींद की गोलियाँ खाकर सो रहा है। इस लोकतंत्र के ज़माने में उसे दो ही महारोग है। एँन्जाइटी और हायपर टेंशन और इसकी दवाई चल रही है। यही कारण है उसे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी, भूख, बदहाली, बेरोजगारी, नस्लभेद, क्षेत्र भेद व जाति भेद के बजबजाते नासूर की गंध नहीं मिल रही।

अराजक शक्तियाँ ही बैरिकेड्स लगा रही हैं। जहाँ चौकीदार से ही जान व माल का ख़तरा हो, वहाँ अपराध और अपराधी पाल-पोसकर बड़े किए जाते हैं। कॉमनमैन को घेर-घारकर ढेल दिया जाता उसपर ताकि उसका गुस्सा, उसकी खीझ और उसका रुदन साहब की नींद में खलल न डाले। लगातार इस तंत्र लोक में अपराधियों का संयुक्त परिवार बेलौस निर्भीक होकर अपने प्रचार-प्रसार में जुटा रहे और तमाम बुद्धिजीवी, चाहे वह अध्यापक, पत्रकार, डॉक्टर व इंजीनियर हों, मासूम जनशक्ति का लहू अपनी जीभ पर चढ़ाए इन कर्मठ जुझारू और ईमानदार नेताओं का बल बढ़ाते रहें। औसत लोगों की साँसें संसद के बाहर ही बैरिकेड्स से रोक दी जाएँ और सर्वहारा की साँसत संसद के भीतर अच्छे से जुगलबंदी और जकड़बंदी बनाए रखे।

आम जनता, जिसका प्रवेश वर्जित है इन देवालयों, महालयों, दरबारों और महामहिम के इलाकों में और इससे भी ज्यादा शर्मनाक और आपत्तिजनक, दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि हॉस्पिटल, जहाँ बैरिकेड्स लगाकर जनरल ओपीडी के बाहर गरीब पीड़ितों घायलों बीमारों को लाइनों में खड़ा कर धक्कामुक्की करवाते हुए साधन व सुविधाओं से खदेड़ा जा रहा है….सबसे ज़्यादा बैरिकेड्स इन्हीं जगहों पर दिखाई देते हैं। जिन्हें होना चाहिए था जनता के प्रोटेक्शन के लिए, पीड़ितों, वंचितों, अभावग्रस्त लोगों की सुरक्षा के लिए वही बैरिकेड्स अब पूरी वफादारी से इन वाणिज्य बुद्धि वाले देश के कर्णधारों, अराजक डॉक्टरों, बेईमान इंजीनियरों और भ्रष्ट पत्रकारों की सुरक्षा हेतु! जिन्हें आज भी जनशक्ति, जन आंदोलन और जनोत्सव से खतरा है। हिम्मत और शोहरत के बीच ये बैरिकेड्स आ ही जाते हैं।

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, सब कहीं जनता की हिम्मत और हौसले को रोकने के लिए ये बैरिकेड्स तैनात हैं। मिशन से प्रोफेशन, प्रोफेशन से फैशन बनती जा रही पत्रकारिता ने राजकर्मी आकाओं, रसूखदारों, मठाधीशों, वर्चस्व का चक्रव्यूह तानने वाली अराजक शक्तियों के आगे घुटने टेक दिया है। कमोबेश यही हालत शिक्षा जगत की है। हर साख पर उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगाहोगा? सत्संग सा चल रहा है। इन चुप्पे सत्संगियों में लोगों के पास बहुत सारा कौतूहल है, बहुत सारी जिज्ञासाएँ, और अगर ‘सच’ सवाल पूछना चाहता है तो उसे झूठों के डंडे पड़ते हैं। इन महाप्रभुओं ने भक्तों की भीड़ इकट्ठा कर रखी है। सच कभी परेशान रहा करता था, इन दिनों पराजित महसूस करता है। उस पर रोज गालियों की बौछार पड़ती है और उसके हिम्मत-हौसले को तौलकर निरस्त कर दिया जाता है।

राजनीति के इस अपराधियों के संयुक्त परिवार से बढ़कर शिक्षा जगत के बड़े-बड़े गुरुघंटाल अपने पीछे मिमियाने वाले चेलों को लेकर गुट बनाए चलते हैं। संसद से सड़क तक और सड़क से विश्वविद्यालय तक इन गुरुघंटालों के जलसे जुलूस निकलते हैं। इसमें से अगर एक सच ने भी गुर्राहट की तो उसे भीड़ में लांछित कर दूर हंकाकर बैरिकेड्स लगा दिए जाते हैं। यही कारण है कि व्यक्तिगत आक्षेपों और हमलों से बचने के लिए लोग बड़ी तेजी से अपने ‘गुबार’ को गुब्बारों में बदलने लगे। फूलकर उड़ने लगे और जगह-जगह फटने लगे।

हुआ यूँ कि राजनीति, समाज, शिक्षा और सत्ता के इन्हीं गलियारों में लोकतंत्र का महापर्व मनाते हुए इन गुब्बारों की आपस में होड़ बढ़ने लगी। उनको बैरिकेड्स के भीतर आने-जाने दिया जाने लगा। वे इस संयुक्त परिवार का सौतेला ही सही कल-पुर्जा बनकर गुरूर करने लगे। और यहाँ साँसत वालों की साँस कम होने लगी। हौसले व हिम्मत दिखाने वालों की ‘सच’ की धज्जियाँ उड़ाई जाने लगीं। हर युग का समाज हमेशा दो हिस्सों में बंटा रहा। पहले वे, जो चुनौतियाँ पसंद करते थे। दूसरे वे, जो अवसरों के फिराक में थे।

चुनौतियों को नकारना और अवसरों को भुनाना इस आइडेंटिटि क्राइसिस के जमाने में किसी संक्रामक रोग की तरह बढ़ने लगा। इन गुब्बारों ने अपने विवेक, सोच, तर्क, विचारधारा से छुटकारा पा लिया और बैरिकेड्स के उस पार जाकर विशिष्ट कहलाने का आइडेंटिटि कार्ड उन्हें मिल गया। आज भी अब तलक हौसले और हिम्मत का सच बैरिकेडर के इस पार है और अवसरों का झूठ का पुलिंदा बैरिकेडर के सुरक्षा कवच में उस पार ।

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  1. राजकाज का केंद्रीय स्थल हो या जनता के प्रतिनिधियों की अदालत, संसद हो या न्यायालय, पुलिस थाना हो या विश्वविद्यालय, सब जगह इस बेचारे ‘सच’ को बैरिकेड से दुरदुराकर दूर रहने को कहा जाता है…

    सटीक और मारक बातें। जो ज़रूरी है उसको बैरिकेड के दूसरी तरफ़ रखो और बैरिकेड को पार मत करने दो। यही है लोक और यही है हमारा तंत्र। बहुत बढ़िया लेख। मज़ा आ गया। 🙏

  2. बहुत शुक्रिया आपका जुड़े रहियेगा। सच को सच कहने वाले रह ही कितने गये हैं। यह इस पोस्ट पर भी असर दिखा है। वह समय और था जब सत्य परेशान रहता था पराजित नहीं होता था ख़ैर जय पराजय तो मन के भाव अभाव हैं। सच तो ही रहेगा।

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