— श्रीनिवास —
शाहरुख ख़ान की नयी फिल्म ‘पठान’ को लेकर विवाद क्या है? ‘बायकाट पठान’ के मूल में क्या है? यह कि उसके एक कथित अश्लील नृत्य-गीत में नायिका दीपिका पादुकोण ने भगवा या केसरिया कपड़े पहने हैं? नहीं, मुख्य कारण यह है कि उसका हीरो शाहरुख ख़ान है; साथ ही फिल्म का नाम ‘पठान’ है! और हम जानते हैं कि इन दिनों देश में मुसलिम नाम और उर्दू शब्दों तक से एलर्जी और नफरत का माहौल बना हुआ है.यह अनायास नहीं है, एक योजना के तहत यह घृणा फैलायी गयी है. ऐसे मुसलिम कलाकार और लेखक आदि, जिन्होंने अब तक ‘मोदी राग’ पर थिरकना शुरू नहीं किया है, वे खास निशाने पर हैं. और शाहरुख ख़ान उनमें से एक हैं. और शाहरुख अपने दौर के हिंदी फिल्मों के सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकारों में से एक रहे हैं. सलमान और आमिर ख़ान भी. इन तीनों को ‘ख़ान तिकड़ी’ कहा जाता रहा है. लेकिन यह बात तब भी कुछ संकीर्ण हिंदुओं को अखरती थी कि ये ‘ख़ान’ ही इंडस्ट्री पर राज क्यों कर रहे हैं! अब उस तिकड़ी को ‘ख़ान गैंग’ कहा जाता है.
गनीमत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह बात समझ में आ गयी कि यह एक गैरजरूरी मुद्दा है. उन्होंने गत 17 जनवरी को भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं से कहा कि वे फिल्मों जैसे अप्रासंगिक मुद्दों पर अनावश्यक टिप्पणी करने से बचें, इससे पार्टी की छवि पर बुरा असर पड़ता है.
लेकिन काश कि मोदी जी ने समय रहते हस्तक्षेप किया होता. सच वही है, जैसा श्री मोदी के इस कथन पर फिल्मकार अनुराग कश्यप ने कहा है कि पीएम मोदी की सलाह अगर चार साल पहले दी गई होती तो फर्क पड़ता. अब तो ऐसे लोग बेकाबू हो चुके हैं.
जरा पीछे के दौर और वर्षों को याद करें, तो हिंदी फिल्मों में हमेशा से मुसलिम अभिनेता ही नहीं, लेखक, गीतकार, गायक, संगीतकार, निर्माता व निर्देशक आदि काम करते रहे हैं. सफल और सम्मानित भी. तमाम कमियों के बावजूद देश का, खासकर हिंदी फिल्म उद्योग भारत की मिलीजुली संस्कृति का नायाब उदाहरण रहा है. क्षेत्रीयता, भाषा आदि की संकीर्णता से परे. हिंदू-मुसलिम और अंतर्धार्मिक विवाह भी वहां कभी कोई मुद्दा नहीं रहा.
लेकिन चंद संकीर्ण हिंदुओं को यह बात हमेशा से खटकती थी. पर वे यह बात खुलकर बोलने का साहस नहीं कर पाते थे. अब जब खुलेआम भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की बात होने लगी, तो वे किसी बहाने फिल्म जगत के मुसलिम व उदार लोगों को भी निशाना बनाने लगे. सच तो यह है कि शाहरुख ख़ान ने आज तक भाजपा-संघ और मोदी के खिलाफ कभी जुबान नहीं खोली है. न ही आमिर ख़ान या सलमान ख़ान ने. इस खामोशी के लिए उनसे सवाल भी किया जाता रहा है. मगर ‘भारत में यदि रहना है, तो मोदी मोदी जपना होगा’ मानने वाले बजरंगियों को कष्ट यह है कि इन लोगों ने अब तक घुटने क्यों नहीं टेके हैं!
जहां तक अश्लील नाच-गाने का सवाल है, तो हिंदी फिल्मों की सफलता में ऐसे ‘आयटम डांस’ का बड़ा रोल रहा है. धीरे धीरे और बढ़ता गया है. ऐसे नाच-गाने ‘पारिवारिक’ फिल्मों तक का अनिवार्य हिस्सा बन गये. पहले इसके लिए खास महिला कलाकार/नर्तकी होती थीं. बाद में मुख्य नायिकाएं ही वह सब करने लगीं. माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी जैसी सम्मानित और सफल नायिकाओं से लेकर करीना कपूर और कैटरीना कैफ तक. अब तो शायद ही कोई नायिका होगी, जो ऐसे किसी नृत्य-गीत को यह कहकर करने से इनकार कर दे कि इसमें अश्लीलता है! कमाल यह कि हमारे पारिवारिक आयोजनों में घर के बच्चे उन्हीं गानों पर, बिना उनका अर्थ समझें, कमर मटकाते हैं और ‘संस्कारी’ अभिभावक खुश होते हैं. ऐसे ‘आयटम डांस’ के उदाहरण देने की शायद जरूरत नहीं है. ऐसे में अश्लीलता का आरोप महज बहाना ही हो सकता है. वैसे भी ‘अश्लीलता’ की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकती. जो आपको अश्लील लग सकता है, उसमें बहुतों को कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लग सकता है.
फिर केसरिया रंग को भी किसी खास धर्म से जोड़कर देखना बेमानी है. हां, दीपिका से ‘उनकी’ चिढ़ की यह वजह हो सकती है कि उसने कभी जेएनयू के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करने का ‘दुस्साहस’ किया था. मगर यह उस फिल्म के विरोध का आधार कैसे हो सकता है, जिसमें उसने सिर्फ अभिनय किया है.
इस विवाद के शुरू होने पर मैं सोच रहा था कि आज शाहरुख ख़ान इतना लोकप्रिय और बड़ा कलाकार क्यों है? इसीलिए तो कि सभी धर्मों, सभी जातियों के फिल्म प्रेमी उसे पसंद करते हैं. सिर्फ मुसलिम प्रशंसकों के दम पर भारत में कोई फिल्म कलाकार, गायक या खिलाड़ी इतना बड़ा स्टार तो नहीं हो सकता. अचानक क्या हो गया कि उनकी फिल्म के बहिष्कार की अपील होने लगी? वह मुसलमान हैं, यह तो सब लोग जानते ही हैं. तो आज उनका मुसलमान होना उसका ‘अपराध’ क्यों हो गया. उसके प्रति ऐसी घृणा कौन लोग फैला रहे हैं, सोचिए. क्या ऐसा करके वे हिंदू समाज और देश का भला कर रहे हैं? सोचिएगा. कोई कितना बड़ा स्टार हो, फिल्म सिर्फ उसके कारण सफल भी नहीं होती. दिलीप कुमार से देवानंद शाहरुख ख़ान और तमाम बड़े कलाकारों की फ़िल्में फ्लॉप होती रही हैं. ‘पठान’ भी फ्लॉप होगी या सफल, यह दर्शक तय करेंगे. दर्शक ‘पठान’ को फ्लॉप कर दें, मेरी बला से. लेकिन वह महज इस कारण से फ्लॉप हो जाए कि कुछ लोग चाहते हैं कि शाहरुख़ की फिल्म कोई न देखे, कि लोग उनके भय से फिल्म देखने न जाएं, यह देश के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा.
जहां तक अश्लील नाच-गाने का सवाल है, तो हिंदी फिल्मों की सफलता में ऐसे ‘आयटम डांस’ का बड़ा रोल रहा है. धीरे धीरे और बढ़ता गया है. ऐसे नाच गाने ‘पारिवारिक’ फिल्मों तक का अनिवार्य हिस्सा बन गये . पहले इसके लिए खास महिला कलाकार/नर्तकी होती थीं. बाद में मुख्य नायिकाएं ही वह सब करने लगीं. माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी जैसी सम्मानित और सफल नायिकाओं से लेकर करीना कपूर और कैटरीना कैफ तक. अब तो शायद ही कोई नायिका होगी, जो ऐसे किसी नृत्य या गीत को यह कह कर करने से इनकार कर दे कि इसमें अश्लीलता है! कमाल यह कि हमारे पारिवारिक आयोजनों में घर के बच्चे उन्हीं गानों पर, बिना उनका अर्थ समझें, कमर मटकाते हैं और ‘संस्कारी’ अभिभावक खुश होते हैं. ऐसे ‘आयटम डांस’ के उदाहरण देने की शाय़द जरूरत नहीं है. ऐसे में अश्लीलता का आरोप महज बहाना ही हो सकता है. वैसे भी ‘अश्लीलता’ की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकती. जो आपको अश्लील लगता है, वह बहुतों को कुछ आपत्तिजनक नहीं भी लग सकता है. वैसे भी केसरिया कपड़े पहन कर फूहड़ ढंग से नाचते गाते इस जमात के कुछ माननीय सांसदों, यहां तक कि एक मंत्री के वीडियो भी बाजार में उपलब्ध हैं. आश्चर्य कि तब भी ये ‘बदरंग’ गाने पर शोर मचा रहे हैं.
बात असल में यही है कि कोई बहाना चाहिए!
इस विवाद पर सटीक बात, जयपुर में हो रहे लिटरेरी फेस्टीवल में एक चर्चा के दौरान फिल्म समीक्षक राजीव राय ने कही है. यह कि यह विरोध फिल्म ‘पठान’ का नहीं, शाहरुख ख़ान का है. शाहरुख़ अगर ‘शाहरुख़’ नहीं होते, तो विरोध भी नहीं होता.
प्रसंगवश, कुछ दिन पहले टीवी पर एक फिल्म ‘धनक’ टुकड़ों में देखी थी. एक सहज भावनात्मक फिल्म. कोई स्टार नहीं. नाच-गाना नहीं. बस शाहरुख खान की (फिल्म स्टार के रूप में) अदृश्य उपस्थिति है. राजस्थान की कहानी है. एक बच्ची अपने छोटे भाई की ख़राब हो गयी आंख के इलाज के लिए भटक रही है. उनके माता पिता का निधन हो चुका है. लड़की ने एक विज्ञापन देखा, जिसमें शाहरुख ख़ान आंख के मुफ्त इलाज का प्रचार कर रहा है. शायद किसी समाजसेवी संस्था या अस्पताल की ओर से. फिर पता चलता है कि जैसलमेर में शाहरुख ख़ान की किसी फिल्म की शूटिंग होने वाली है. वह लड़की भाई को लेकर जैसलमेर के लिए निकल पड़ती है. जैसे तैसे पहुंच भी जाती है. लेकिन तब तक शूटिंग खत्म हो चुकी होती है. तब भी वहां शाहरुख़ के प्रशंसकों की भीड़ जमा है. वे दोनों रेगिस्तान में भटकते हुए बेहोश हो जाते हैं. फिर कोई अज्ञात व्यक्ति उनको अस्पताल ले जाता है. लड़के के इलाज का पैसा जमा करा देता है. लड़के की आंख ठीक हो जाती है. इसके पहले लड़की सपने में देखती है कि शाहरुख ख़ान ही उसे गोद में उठाकर दोनों को अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुंचाता है. हालांकि लड़का कहता है कि वह कोई और था. पर लड़की कहती है- तुम अपनी बात को सच मानो, मैं अपनी. जाहिर है, वह शाहरुख की फैन है.
फिल्म की बहुत चर्चा नहीं हुई. शायद सफल भी न हुई हो. पर यह तय है कि इस फिल्म में कुछ गलत नहीं लगा था. किसी ने आपत्ति की भी नहीं कि फिल्म में शाहरुख खान का महिमामंडन क्यों किया गया. लेकिन तब शाहरुख ख़ान बस एक कलाकार था. उसकी पहचान ‘मुसलमान’ के रूप में नहीं थी. उसके करोड़ों फैन थे. शायद अब भी हों. लेकिन अचानक वह निशाने पर क्यों है, किनके निशाने पर है? विचार कीजिएगा.
इस लेख के पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि धर्म के नाम पर नफरत के इस दौर में बह जाने से बचिए. औरों को भी बचाइए. यही हम सबके, समाज और देश के भी हित में है.
न देखने की अपील और फिल्म ‘किसी को नहीं देखने देंगे, नहीं चलने देंगे’ कहने में अंतर है. वैसे इस जमात ने तो एक फिल्म (विधवा समस्या पर बनी दीपा मेहता की ‘वाटर’) की शूटिंग तक रोक दी थी. बाद में उसकी शूटिंग श्रीलंका में करनी पड़ी थी. इसके अलावा बिना आधिकारिक रोक के गुजरात दंगों पर बनी फिल्म ‘परजानिया’ को गुजरात में चलने नहीं दिया गया. तब वहां के मुख्यमंत्री वर्तमान प्रधानमंत्री ही थे. इस जमात का ऐसा आतंक कि खुद सिनेमाघर मालिकों ने फिल्म दिखाने से मना कर दिया था! अब यदि मोदी जी को यह बात ‘सचमुच’ समझ में आ गयी है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. जब जागो, तभी सवेरा.
पुनश्च :
मैं गांधी और गोडसे पर बनी एक नयी फिल्म को बैन करने की कांग्रेस की मांग को भी गलत मानता हूं, उसकी निंदा करता हूं. इसके लिए सेंसर बोर्ड है. उस पर भरोसा रखना चाहिए. यही बात ‘पठान’ सहित किसी भी फिल्म को बैन करने की मांग करने वालों के लिए भी सही है. आप किसी फिल्म की आलोचना कर सकते हैं. उसके खिलाफ लेख लिख सकते हैं. उसे बुरी और बदनीयत बता सकते हैं. संभव है, बुरी हो भी. आप लोगों से उसे न देखने की अपील भी कर सकते हैं. मगर किसी फिल्म पर रोक लगाने या लोगों को उसे देखने से रोकने का प्रयास कहीं से उचित नहीं है. और मेरा ख्याल है, कांग्रेस के लोगों ने तो वह फिल्म देखी तक नहीं होगी.
गांधी ऐसी छुईमुई तो हैं नहीं कि कोई फिल्म उनकी छवि को धूमिल कर सके. गांधी के आलोचक और उनसे नफरत तक करने वाले हमेशा से रहे हैं. अभी उनकी तादाद बढ़ी भी है. पर ऐसे नफरती लोगों पर मरा हुआ गांधी भी बहुत भारी है.