— विवेक मेहता —
सत्ताईस जनवरी (2004) को 11 बजे के करीब जार्ज फर्नांडीज के करीबी श्री अनिल हेगड़े का दिल्ली से फोन था। उन्होंने प्रश्न किया- “डूंगरवाल जी का स्वास्थ कैसा है?” मैंने कहा- “कुछ खराब ही चल रहा था। मगर अभी कैसा है मुझे नहीं मालूम।” तभी अंदेशा हो गया था कि कुछ गड़बड़ है। सोचा नीमच फोन कर घर से मालूम करूं। बच्चे, पत्नी सभी फोन के कारण उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो उठे थे। ’93 में जॉर्ज के नेतृत्व में चले कारगिल आंदोलन के समय वह कच्छ में आंदोलनकारियों का जत्था लेकर आए थे। गिरफ्तारी भी दी थी। उस दौरान एक दो दिनों के लिए घर पर हमारे साथ रुके थे। उनकी सहजता और स्थिति के अनुरूप अपने को ढालने वाले व्यवहार के कारण बच्चे भी उनसे लगाव महसूस करने लगे थे।
हम लोग सब लोग जल्दी उठने में विश्वास नहीं रखते थे। वे सवेरे जल्दी उठते थे। सबेरे नींबू-पानी लेते थे। रात को ही कह देते, फ्रिज में नींबू रख दो। किचन में चाकू मिलना चाहिए। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खुद कर लूंगा। उठकर व्यायाम भी करते। एक दिन हम जैन तीर्थ भद्रेश्वर भी गए। रास्ते में टैक्सी खराब हो गई। बच्चे और पत्नी मुझसे नाराज, एक टैक्सी भी ढंग की नहीं कर सकते! और वह बीच सड़क पर खराब टैक्सी के पास खड़े होकर बच्चों को समझा रहे थे। भीड़ भरी लोकल बस से भद्रेश्वर पहुंचे। थकान, परेशानी निश्चित रूप से हुई होगी मगर वे सहज रहे। तब से बच्चे उन्हें दादाजी के नाम से ही जानने लगे।
मैंने उन्हें पहले पहल कब देखा याद नहीं। वे पापा से कुछेक वर्ष आगे पढ़ते थे। मुझे याद पड़ता है एक समय समाजवादियों का गढ़ रहे जीरन में लाडली मोहन निगम जी की सभा थी। पापा (डॉ.मंगल मेहता) की तबीयत खराब थी। तब वे लोग घर आए थे। मैं किले की ओर, घर के पिछवाड़े में खुले में उन्हें पेशाब करने के लिए ले गया था। बाद में पापा का तबादला जब जावद हुआ तो जावद से जीरन जाते समय कई बार उनके घर भी गया। उनकी पत्नी दूर के रिश्ते में मेरी-कमला बुआ होती हैं। पेशे से वे वकील थे। बंगला, डाइनिंग टेबल और आभिजात्य, तब उनसे थोड़ी दूरी रखने को विवश करते। आपातकाल के बाद जब शामगढ़ में जनता दल की सभा को संबोधित करने आए थे तो भाषण समाप्त कर मंच से नीचे उतर आए थे। पीछे खड़े हम लोगों को ढूंढ़कर खुले मन से, सभा से हटकर बातें करते रहे। तब वे अपने-से लगे थे। उस वक्त मैं 10वीं-11वीं में पढ़ता था।
1925 में उनका जन्म नीमच जिला के जमुनिया कला में हुआ था। शिक्षा इंदौर में हुई। गांधीजी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में भाग लिया। पहले कांग्रेस में रहे। नीमच की एक सभा के दौरान मामा जी ने गोलवलकर जी की नीतियों की आलोचना की तो विघ्नसंतोषियों ने पत्थरबाजी चालू कर दी। डूंगरवाल जी ने कांग्रेस में रहते हुए इस घटना का विरोध किया। फिर पारदर्शिता को लेकर सीताराम जाजू से मतभेद हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़कर 1 मई 1951 को सोशलिस्ट पार्टी में सम्मिलित हो गए। और अंत तक समाजवादी रहे। सफेद खादी का कुर्ता, पाजामा के अलावा दूसरी पोशाक मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। लोकसभा का पहला चुनाव उन्होंने देश के गृहमंत्री डॉक्टर काटजू के विरुद्ध लड़ा और एक विधानसभा चुनाव में उनसे ज्यादा मत भी पाए, मगर हार गए। आपातकाल के बाद वह पहली बार नीमच से विधायक बने। जनता दल के प्रदेश मंत्री भी रहे। समाजवादी धड़ा नहीं चाहता था कि 1968 की संविद सरकार में मंत्री रहते हुए जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे ऐसे श्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। मगर वे बनाए गए। सकलेचा जी इस विरोध को सहज स्वीकार नहीं कर पाए। इस कारण समाजवादियों को या उनसे संबंध रखने वालों को प्रताड़ित भी करते रहे।
राज्यसभा के चुनाव में मामा बालेश्वरदयाल को हराने के लिए क्रास वोटिंग जबरदस्त हुई। तीसरे दौर की मतगणना के बाद मामाजी मुश्किल से जीत पाए। मामाजी की जीवनी लिखने वाले लेखक डॉक्टर मंगल मेहता को भी समाजवादियों से निकटता की सजा मिलनी ही थी। उन्हें मालवा से छत्तीसगढ़ भेज दिया गया। सरकार में रहकर भी अपने आदमियों पर होने वाले अत्याचार को न रोक पाने का डूंगरवालजी को मलाल था। आदिपुर घर पर रुके तब भी कहा करते थे- मंगलजी स्वाभिमानी आदमी हैं। सरकार ने जब जब उन्हें परेशान किया वे एक नई पुस्तक लेकर आए। तब उनका इशारा उस वक्त प्रकाशित ‘कहराता धान कटोरा’ उपन्यास की ओर होता था।
उनकी मृत्यु के पहले की दिवाली पर मैं उनसे मुलाकात करने गया था। वह वैसे ही ऊर्जावान दिखे। बोले- मुलायम सिंह की ओर से दबाव था कि समाजवादी पार्टी संभालो। रघु गया था। उसने मेहनत की, पर महाराज के प्रचार का आदेश दे दिया गया! अब बहुत भागदौड़ नहीं होती। जार्ज आए थे भोपाल। बुलावा था। चला गया तो अब समाजवादी पार्टी का दबाव कम हो गया (उस दौर में जॉर्ज और मुलायम अलग हो गए थे)। आखिर तक उनकी इच्छा थी कि इधर-उधर बिखरे समाजवादी एक हों। शरद-जार्ज के मिलन को भी वह उसी रूप में देखते थे। समाजवादियों के बार-बार बिखराव के बाद भी वे संतुलन बनाए हुए थे। सत्ता की जोड़ तोड़ के बजाय वे नीतियों में विश्वास रखते थे। जब भी बिखराव या गठजोड़ होता, नीतियों के अनुरूप उसे नहीं पाते तो कोसने के बजाय लोहिया जी की, या समाजवाद पर किताबें बेचना चालू कर देते। पढ़ने का उन्हें शौक था। उन्होंने मुझसे पूछा- “मेरी ‘समाजवाद और मर्म’ पुस्तक है तुम्हारे पास?” मैंने कहा- “थी, मगर भूकंप में नष्ट हो गई।” वे मेरे घर पर पुस्तकों का संग्रह देख चुके थे। इस कारण बोले- “चलो गई तो गई।” और दूसरी पुस्तक, अपनी साइन करके दे दी। मजाक में बोले दो-चार नई किताबें आई हैं। मंगल जी को भी एक-एक प्रति बेच दूंगा।
बातों में वे सहज, स्पष्ट होते थे। इस कारण कार्यकर्ताओं से जुड़ने में उन्हें परेशानी नहीं होती थी। उनके कारण ही लोहिया, जार्ज, मधु लिमये, राजनारायण, मामा बालेश्वरदयाल, लाडली मोहन निगम जैसे अनेक नेता मंदसौर-नीमच जिले से जुड़े रहे। आपातकाल के दौरान उन पर रेलवे लाइन तोड़फोड़ के फर्जी आरोप भी लगे। जेल में बंद रहे मगर माफी मांग कर बाहर नहीं आए।
अब जब विचारों का महत्त्व खत्म हो गया, विचारों पर चलने वाले नेता इतिहास की किताबों में दर्ज हो गए। और इन दिनों इतिहास कौन पढ़ता है! इस कारण श्री कन्हैयालाल डूंगरवाल जैसे लोगों को कौन याद रखता है!
उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन।