सद्भाव बढ़ाओ देश बचाओ संवाद यात्रा का आखिरी पड़ाव

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29 जनवरी. रविवार 29 जनवरी को लगभग 12 बजे दिन से अम्बेडकर स्टेडियम के पास स्थित जेपी प्रतिमा पार्क में एक नागरिक सभा शुरू हुई। यह सभा साम्प्रदायिक सद्भाव समाज की पहल और लोकशक्ति अभियान, लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान और अन्य समूहों के समर्थन और सहभाग से सम्पन्न यात्रा का अंतिम पड़ाव था। सबसे पहले जेपी की प्रतिमा पर समावेश में जुटे सारे लोगों ने पुष्प अर्पण किया। उसके बाद सद्भावना संवाद यात्रियों का माला पहनाकर स्वागत किया गया।

मौसम सुबह से ही बूँदाबादी का था। बारिश की आशंका के बीच ही खुले परिसर में सभा शुरू हुई। संचालन शशिशेखर सिंह कर रहे थे। मंथन ने 23 जनवरी से 28 जनवरी तक की यात्रा, पड़ावों, संवादों, सहभागियों और आतिथ्य करनेवालों के बारे में एक रपट पेश की। रपट के बीच में ही बढ़ती बारिश के कारण सभा की जगह बदलनी पड़ी। जमाते उलेमा हिन्द के नेतृत्वकर्ता साथी की पेशकश पर उनके सभाकक्ष में आगे का सिलसिला चला।

सुरेन्द्र कुमार, राकेश रफीक, अम्बिका यादव, विकास नारायण उपाध्याय, कुमकुम भारद्वाज, मार्टिन फैसल, सुशील खन्ना, मौलाना जावेद सिद्दिकी, डा. रमेश कुमार पासी, सुशील कुमार, भोपाल सिंह, रिजवान अहमद, योगेश समदर्शी, ईशरत खान आदि ने यात्रा के अनुभव और यात्रा के प्रति अपने मनोभाव व्यक्त किये। ओड़िशा से आये किशोर दास, महाराष्ट्र से आये ज्ञानेन्द्र कुमार, अरुण त्रिपाठी, अनिल ठाकुर , संत प्रकाश, यात्री रमेश यादव, केके शर्मा, रामनिवास शास्त्री, रणजीत, संतरा चौहान, डा. संध्या, राकेश रमण झा भी वक्ताओं की सूची में शामिल थे। पर वक्त के दबाव के कारण संचालक को इन्हें न बुला पाने का खेद जाहिर करना पड़ा।

वक्तव्यों के बाद यात्रा को सफल बनाने में सहयोग देने वाले मेरठ से लेकर दिल्ली तक के बीसेक से ज्यादा सहयोगियों को फ्रेमबद्ध संविधान उद्देशिका/प्रस्तावना भेंट की गई। इस मौके पर डा आनन्द कुमार ने अपने उदगार व्यक्त किये। अंत में प्रो राजकुमार जैन ने मौजूदा दमनकारी राजनीतिक माहौल में यात्रियों के साहस की सराहना करते हुए हमेशा साथ रहने का इरादा जाहिर किया।

सभी वक्ताओं की बातों में राज्यसंरक्षित नफरत, तानाशाही, लूट की परिघटनाओं पर आक्रोश और मुकाबले का संकल्प शामिल था। 2024 में भाजपा को सताच्युत करने की ऐतिहासिक जरूरत का अहसास था। एक नयी सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलकदमी में सहभागिता की चाह थी। देश, संविधान और लोकतंत्र को बचाने की बेचैनी थी। व्यापक मित्रता की एक उभरती संभावना की उमंग थी। उमगती उम्मीद थी।

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