तूफान से जूझती आवाजें

0


— मिथिलेश श्रीवास्तव —

परोक्त शीर्षक रति सक्सेना की एक कविता की पंक्ति है. आज अपने पढ़ने की मेज़ पर पढ़ने के लिए रखी हुई कुछ किताबों को उलटने-पलटने के लिए बैठा तो कई ऐसी किताबें मिलीं जिन्हें पढ़ने के बाद उन पर लिखने का मन बनाया तो था लेकिन साहित्य के बाहर की व्यस्तताओं के कारण लिखना स्थगित होता चला गया. हालांकि पढ़ी हुई किताबों में से कुछ पर लिखने का मेरा ही दबाव मुझ पर रहता है. किताबों को फिर से देख कर लगा कि मैं बहुत जरूरी काम को वर्षों से स्थगित करता रहा हूँ. इन जरूरी किताबों में से कवयित्री *रति सक्सेना* का कविता-संग्रह ‘एक खिड़की, और आठ सलाखें’ को दुबारा पढ़ा. उनका यह संग्रह भाषा और कंटेंट दोनों ही लिहाज से महत्त्वपूर्ण है. उनका यह कविता-संग्रह तिरुवनंतपुरम की सांस्कृतिक- साहित्यिक संस्था ‘कृत्या’ ने 2007 में प्रकाशित किया था.

यह तो अब याद नहीं कि उन्होंने यह संग्रह मुझे कब और किस जगह दिया था, बस इतना याद है कि उन्होंने ही यह संग्रह मुझे दिया था. हो सकता है कि उन्होंने इसे डाक से भेजा हो; यह भी हो सकता है कि अपनी दिल्ली यात्राओं में से किसी एक यात्रा के दरमियान मुझे भेंट किया हो; या एक संभावना यह भी है कि जब मैं कृत्या के साहित्यिक समारोह में उनके आमंत्रण पर तिरुवनंतपुरम गया था तो उन्हीं दिनों उन्होंने यह संग्रह मुझे दिया हो. तारीख बताना संभव नहीं है क्योंकि किताब भेंट करते समय जो औपचारिकताएं की जाती हैं उनको यह पुस्तक देते समय बरता नहीं गया है जैसे, एक संबोधन, एक हस्ताक्षर और एक तिथि. एक लेखक दूसरे लेखक को अपनी किताब भेंट करते समय इन औपचारिकताओं का निर्वाह करता है. किताब पर ‘समीक्षार्थ’ भी नहीं लिखा गया है. बहरहाल यह कविता संग्रह मेरे पास है. यह किताब 2007 के बाद और कोरोना समय के पहले मुझे कभी मिली होगी. चौहत्तर कविताओं के इस संग्रह को फिर से पढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि इस संग्रह के बहाने रति सक्सेना पर कुछ बातें की जानी चाहिए.

रति सक्सेना

इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि रति सक्सेना इंसान की बेचैनियों और अकुलाहट को कई तरह से काव्याभिव्यक्त करने की सामर्थ्य की कवि हैं. निराशा और अवसाद ग्रसित लोगों की भावनाओं को मनोविश्लेषक की तरह ट्रीटमेंट देती हैं. कविताओं में निराशा और अवसाद को ऐसे पिरोती हैं जो पाठक की आत्मा में ठहरी हुई उदासी और ठहरे हुए अवसाद को पिघला देते हैं. रति सक्सेना आत्म अकुलाहट को प्रकृति से तादात्म्य जोड़कर प्रकट करती हैं. जब कविता प्रकृति को अवलम्ब बनाती है तब मनुष्य के अस्तित्व की जटिलता की अभिव्यक्ति का विस्तार होता है.

रति सक्सेना की कर्मस्थली केरल राज्य है जहाँ प्रकृति कविता में कई तरह से आती है. मनुष्य के भीतरी आवेग को समझने और महसूस करने में प्रकृति बहुत मदद करती है; कभी कभी कविता प्रकृति की अनुकृति लगती है तो कभी कभी प्रकृति कविता में इस तरह विन्यस्त होती है कि कविता की उदासी और प्रकृति की उदासी में कोई फर्क नहीं रह जाता है. केरल की प्रकृति के हरापन में अन्य भूगोलों से अलग हरापन दिखता है और यह वहीं दिखता है जहाँ जमीन और जमीन के भीतर की नमी की उर्वरता अलग किस्म की है. यह प्रकृति नारियल और केले के पेड़ों और विविध वानस्पतिक जैविकता में ही नहीं बल्कि वहाँ के पानी, नदियों, समुद्री तटों, समुद्री पानी, रेत, हवा, जंगल, घर-निर्माण की कला, लोक-कलाओं, नृत्य, संगीत, लोगों के पहरावों की सादगी और रंगों, देहयष्टि की लयात्मकता सब जगह प्रकृति उपस्थित है. मनुष्य, प्रकृति और संस्कृति एक लय में लहराते हुए दिखते हैं; केरल में प्रकृति से अलग रहकर या अलग होकर अपने होने की कल्पना नहीं कर सकते. प्राकृतिक सौंदर्य अनोखा और अलग है. रति सक्सेना इसी प्रकृति के भीतर रहते हुए इंसानी एहसासों को महसूस करती हैं. जरूरी नहीं है कि इंसान की उदासी हरे पत्ते छुपा लेते हैं या वहां के पानी में दुख की परछाइयाँ बनती नहीं हैं. हरे पत्ते उदास और आहत भावनाओं को संबल देते हैं.

उनके संग्रह में ‘एक खिड़की और आठ सलाखें’ नाम की एक लम्बी कविता है पाँच पन्नों में फैली हुई लेकिन 15 टुकड़ों में विभक्त जैसे कि 15 बादलों के बगल बगल सटे होने का एहसास कराती हुई या कि 15 द्वीपों की एक श्रृंखला समुन्दर में फैली हुई या कि प्रकृति के साथ 15 संवाद. रति सक्सेना के यहाँ कुछ भी निर्जीव नहीं है सब कुछ सजीव और संवाद की सामर्थ्य रखने वाला. पहले टुकड़े में एक दिन के गुजरने की दास्तान है जिसके ब्योरे मन में उदासी और अकेलापन महसूस कराते हैं. आठ सलाखों वाली एक खिड़की है. खिड़की के पीछे नायिका और खिड़की के बाहर नारियल पेड़ का तना, कटहल पेड़ की एक शाख, पत्ते, चिड़ियों की चहचाहट, पड़ोस के घर से बच्चे के रोने की आवाज, एक एक करके यह सब कुछ रंगमंच के दृश्य की तरह दिन के बीतते जाने का एहसास कराते हैं. दिन के अंत के पहले एक हवाई जहाज के गुजरने का दृश्य आता है और एक दिन पूरा हो जाने का एहसास. अंतिम हवाई जहाज के गुजरने से वही एहसास होता है जो कि छोटे स्टेशन से अंतिम रेलगाड़ी को जाते हुए देखने से होता है या अंतिम बस के छूट जाने से होता है.

धीरे धीरे यह एहसास गहरा होने लगता है और अवसाद ग्रस्त भी करने लगता है. यह सब ऐसे हो रहा है जैसे कि नायिका खिड़की के पीछे खड़ी है और कोई राह निहार रही है लेकिन प्रकृति के आसरे दिन काट रही है और दिन बीत रहा है. दिन पूरा होने के पहले के तीन दृश्यों की तार्किकता ध्यान खींचती है – चिड़ियों की चहचहाट जो उनके घोंसलों में लौटने का संकेत है, और एक दिन बीत जाने का एहसास भी, पड़ोस से बच्चे के रोने की आवाज का आना दिन के खत्म होने के पहले का वक्त है और हवाई जहाज का गुजरना परदे के गिरने का संकेत है. सारे दृश्य मिलकर एक दिन के गुजर जाने की आवाज बनाते हैं और शायद उसकी निरर्थकता की तस्दीक करते हैं. अंतिम पंक्ति कि ‘एक दिन पूरा हो गया’ अवसाद को गहरा देता है. प्रेम के बाद का अवसाद या अवसाद के बाद का प्रेम.

एक द्वीप से दूसरे द्वीप एक छलांग की यात्रा है और इस यात्रा के बाद सारे दृश्य बदल जाते हैं सिवाय उस खिड़की के जिसमें आठ सलाखें हैं. अवसादग्रस्तता की तीव्रता भी कम होती है खजुराहो की भंगिमाएं इस खिड़की से दिखने लगती हैं. शायद कवयित्री को अवसादग्रस्तता की तीव्रता का एहसास हो गया है और शायद इसलिए खजुराहो की भंगिमाएं सहसा कविता में आ जाती हैं. लेकिन यहाँ सिर्फ खजुराहो ही नहीं है बस्तर का घोटुल है, दिल्ली का कलमदान है, गुजरात है और पूरा देश है. खिड़की एक दूरबीन में तब्दील हो गयी है जहाँ से केरल की प्रकृति ही नहीं बल्कि सारा देश दिख रहा है. ऐसा कविता में ही संभव हो सकता है या फिर एहसासों में. लेकिन इसके बाद फिर अवसाद की यात्रा शुरू होती है जब तीसरे खंड में यह बात आती है कि खिड़की की जगह चित्र होता तो वह खिड़की के बाहर होती क्योंकि चित्र में पत्ते हिलते नहीं हैं और चिड़ियों के चहकने की आवाजें नहीं आतीं. चित्रों में शायद सब कुछ स्थिर नहीं होता, वहाँ भी पत्ते हिलते हैं, आवाजें आती हैं. जब सब कुछ स्थिर लगने लगे, वेगहीन महसूस हो तो वह एक स्थिति होती है अवसाद की.

कविता आगे बढ़ती है तो खिड़की के सामने एक घर नजर आता है और घर पर बैठा हुआ सारस उड़ना चाहता है लेकिन उड़ नहीं पाता है क्योंकि उसके पंजे सीमेंट में धँसे हैं. यह एक परेशान करने वाला दृश्य है. कविता के बिंब ऐसे हैं जो परेशान तो करते हैं लेकिन फिर राहत भी देते हैं.

“खिड़की के पार मकान
मकान के उस पार फिर मकान
फिर कहीं जाकर एक घाटी है
घाटी हवा गेंद की तरह घूमती है
उछल कर कूद आती है खिड़की से
मैं और खिड़की, दोनों खिलखिला उठते हैं.”

एक और अंश कविता का :

लोग हटाए जा रहे हैं
अपने पुरखों की जमीन से
लोग हट रहे हैं
पुरखों की जमीन से

खिड़की का कोई
कसूर नहीं
हटने हटाने के लिए
दरवाजा चाहिए.

विस्थापन का मतलब हमने यही लगाया है कि इंसानों को उनके पुस्तैनी हकों से वंचित करके कहीं और ले जाकर बसाना या असहाय छोड़ देना. विस्थापन की यह अधूरी परिभाषा है. विस्थापन केवल इंसानों का नहीं होता बल्कि विस्थापन पेड़-पौधे, जीव-जंतु, प्रकृति, आबोहवा सब का होता है. विस्थापन की प्रक्रिया में कुछ इंसान बचे रह जाते हैं लेकिन बाकी सब प्रायः नष्ट और विलुप्त हो जाते हैं. हटने हटाने के लिए दरवाजा चाहिए. खिड़की इस प्रक्रिया में शामिल नहीं है. खिड़की का एक मानवीय रूप यहाँ दिखायी देता है. कविता के एक खंड में एक मनोवैज्ञानिक गुस्से का ट्रीटमेंट किया गया है. गुस्सा है और गुस्से में एक चित्र का सृजन होता है जिसमें हाथ में पिस्तौल लिये एक आदमी का चित्र है; वह चित्र को फाड़कर अपने दोस्त की हत्या का बदला लेती है और उसका गुस्सा खिड़की से बाहर चला जाता है. चित्रकला, कविता, रंगमंच सरीखी कलाओं में अवसाद और गुस्से को नियंत्रित करने की अद्भुत क्षमता होती है. कलाओं के इस पक्ष का इस्तेमाल रति की कविताओं में दिखता है.

अगली मनःस्थिति की कविता ज्यों का त्यों :

“पंख फड़फड़ाये
बड़े शोर के साथ
मैंने खिड़की के बाहर देखा
कुछ पंख कतरे पड़े थे
मैंने भीतर देखा

कहाँ गए मेरे पर ?”

इसमें प्रतिरोध है मर्दवादी सोच और सामाजिक व्यवस्था का, जो स्त्री-विरोधी रहा है. पर कतरे जाने का विरोध है. पर कतरे जाने का दुख मामूली दुख नहीं है. लेकिन पर कतरे जाने का एहसास इस दुख से समाज को बाहर ले आएगा. अगले ही खंड में पिता के विरुद्ध लिखी गयी कविता पंक्तियाँ हैं जो अक्सर स्त्री की उड़ान और उसके सपनों के खिलाफ मुहावरेदार अवरोधों की बात करती हैं. चींटियों के पर अर्थात स्त्रियों के पर निकल आए हैं. इन दुखों की मनःस्थितियों के तालों की चाभियाँ ‘पहाड़ी रातें’ नाम की कविता के दूसरे खंड में मिलती हैं ‘मुझे तो तुमसे दोस्ती करनी थी लेकिन तुमने दोस्ती करायी पहाड़ों पर डेरा डाले बर्फीले अंधड़ों से, नदी पर उठते तूफानों से’, इत्यादि. कम से कम कविता के सहारे एक प्रतिरोध की भावना को रति सक्सेना जगाती हैं. उनकी कविता के शिल्प की एक खासियत यह भी है कि कम से कम शब्दों के प्रयोग और भाषा की सादगी से कई मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति करती हैं और पाठक के मन पर वैसा ही प्रभाव पैदा कर देती हैं. कविता की उदासी पाठक के मन में रिसने लगती है. कविता में अभिव्यक्त अवसाद पाठक को भी अवसादग्रस्त करने लगता है. रति सक्सेना की यही काव्यगत खासियत है.

रति सक्सेना बेहतरीन अनुवादक हैं जो हिंदी से मलयालम और मलयालम से हिंदी में अनुवाद करती रही हैं. उनके अनुवाद के काम को साहित्य अकादेमी ने सन 2000 में सम्मानित किया था अपने प्रतिष्ठित ‘अकादेमी अनुवाद सम्मान, 2000 ‘ प्रदान करके. रति ने मलयाली कवि अय्यप्प पणिक्कर की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया है. पणिक्कर मलयालम भाषा के बड़े कवि हैं. उन्होंने ही मलयालम कविता में आधुनिकता का द्वार खोला था. अंग्रेजी और मलयालम भाषाओं के विद्वान पणिक्कर कवि होने के अलावा अनुवादक, आलोचक, संपादक और आचार्य थे. उन्होंने सन 1967 में ‘केरल-कविता’ नाम से एक पत्रिका की शुरुआत की जो कविता और कविकर्म को समर्पित है. मलयालम की नई कविता को पाठकों के नए क्षितिज तक ले गए कविता के अनुवाद और कविता संग्रहों से संपादन से. 1930 में जन्मे पणिक्कर का देहांत 2006 में हुआ. 1984 में पणिक्कर को केंद्रीय साहित्य अकादेमी का सम्मान दिया गया उनके कविता-संग्रह ‘अय्यप्प पणिक्कर की कविताएं’. उनके इसी कविता संग्रह की कविताओं को रति सक्सेना ने हिंदी में अनूदित किया जिस पर उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादेमी का अनुवाद सम्मान मिला. अबतक रति सक्सेना ने कई अनुवाद-कार्य किये हैं हिंदी से मलयालम और मलयालम से हिंदी में.

राजस्थान के उदयपुर में जनमीं और पली-बढ़ीं रति सक्सेना उत्तर भारत की हिंदी की दुनिया से दूर तिरुवनंतपुरम में रहती हैं और उसी शहर को अपनी विभिन्न साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया हुआ है वर्षों से. उनकी इन गतिविधियों में काव्य-सृजन के बाद ‘कृत्या’ संस्था की साहित्यिक गतिविधियाँ हैं जो बहुत ही सलीके और प्रबंध-कुशलता से चलायी जाती हैं. शायद 2014 में उनके निमंत्रण पर कृत्या के अंतरराष्ट्रीय कविता समारोह में कविता पढ़ने तिरुवनंतपुरम गया था. कई नायाब प्रयोग देखने को मिले थे. कवियों ने अपनी भाषा में कविता-पाठ किया और उनकी कविताओं के मलयाली अनुवाद मलयाली भाषी ने पढ़े. उसके साथ ही स्क्रीन पर अंग्रेज़ी अनुवाद प्रदर्शित हो रहा था. मैंने हिंदी में अपनी कविताएं पढ़ीं, एक कविता पढ़ने के बाद उसका मलयाली अनुवाद पढ़ा गया और उस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद स्क्रीन पर प्रदर्शित किया गया. मेरी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद मैंने खुद किया था और मलयालम में मेरी कविताओं का अनुवाद रति सक्सेना ने करवाया था किसी से.

रति सक्सेना देश-विदेश में काफी यात्राएं करती हैं. उनके यात्रा संस्मरणों की भी कई किताबें आ चुकी हैं.

किताब : एक खिड़की आठ सलाखें (कविता संग्रह)
कवयित्री : रति सक्सेना
प्रकाशक : कृत्या, केपी 9/624, वैजयंत, चेत्तिकन्नु, मेडिकल कॉलेज पीओ, त्रिवेंद्रम-695011, केरल
मूल्य:100/- रुपये।

Leave a Comment