रवीन्द्र के.दास की दस कविताएँ

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पेंटिंग - हिमाद्री रवानी


1. घर से दूरी

घर से दूरी
जितनी बड़ी होती जाती है
घर
उतना बड़ा होता जाता है

मसलन,
आप मंगल पर जाएंगे
तो धरती आपका घर होगा
और पेरिस में भारत
दिल्ली में बिहार
पड़ोस के गाँव में अपने गाँव के
गाँव में आँगन
आँगन में कमरा …

किसी से नजदीकी
जितनी बढ़ती जाती है
उसके लिए दिल
उतना छोटा होता जाता है

2. तलाश

जो जहाँ नहीं था
वहाँ मुझे उसी की तलाश थी

कुछ देर बाद
अहसास हुआ कि मुझे
तलाश अधिक ज़रूरी लग रही है
उस चीज से
जिसकी तलाश में हूँ मैं

मसलन, मैं उस स्त्री की तलाश में था
जो मुझे प्यार करे
जबकि मुझे प्यार की तलाश न थी

मुझे उस चिड़िया की तलाश थी
जो बात करे मुझसे
मानुष भाषा में
जिसके लिए मैं मनुष्यों को चुन सकता था

मैं कवि था उस वक़्त
और जी जान से
तलाश रहा था कविता

3. इतनी जगह तो रहने दो

इतना मुक्त तो रहने दो
धरती को
कि अचानक आ जाए बारिश
तो खुल के सांसें ले
मुस्कुराए, शरमाए, सिहरे
भीग ले अंदर तक
कर ले गुफ़्तगू आकाश से
शिकायतें, मनुहार
कुछ छेड़छाड़
आकाश जब बॅंध न पाया
तो कर लिया कब्जा धरती पर

पेड़ों के मखमली ॲंधेरों को
बचा रहने दो
बचा रहने दो पहाड़ की तलहटियों को
बचा रहने दो हर ढलान को
उठान को
कि मानसून में धरती मिलती है
आकाश से वहीं वहीं
इतनी जगह तो रहने दो
जब आकाश आए धरती से मिलने
तो भटके नहीं रास्ता

4. स्वराज्य के लिए

सवाल ने तभी तक
इंतजार किया
जब तक
नहीं मिल गया था जवाब
और जवाब ने
सोख लिया जवाब को
या रह गया था
केकड़े के ढांचे सा

खोखला खोखला
हो गया वक़्त

तुम्हें नहीं हो मालूम
कि तुम थीं कोई रहस्य
तुम्हारा मिल जाना
खुल जाना था
किसी पुरानी उलझी गांठ का
किसी ॲंधेरी सुरंग में
मिली थी रोशनी की राह
कि जैसे तुम मुस्कुराईं
मैंने टटोला खुद को
गोया तुम थीं
कोई अनसुलझा सवाल

यह ॲंधेरा नहीं था
कोई तिलस्मी रोशनी थी
सुनो!
मुझे फिर से ॲंधेरा दे दो
ॲंधेरे में राहत है
उम्मीद है जुनून है
तुम्हारा तसव्वुर है
वहीं कोई स्वराज्य है

5. कवि-चर्या

सच्चाई यह थी
कि कवियों ने बेड़ा गर्क़ किया
और जिम्मेदारी तय हुई बाजार की
लेकिन बाजार के पैर नीचे
दबी थीं हमारी गर्दनें
फिर हम कोसने लगे
सरकार को
जबकि सरकारी मेहरबानी से ही
हमारा रुतबा था
कि हम अचानक
थूकने लगे विचारधाराओं पर

वह थूक
पलट कर गिरने लगा
हमारे चेहरे पर
हमने मुँह छिपा कर
साफ किया अपना चेहरा
कहीं से जुगाड़ की शराब पी
और सपना सॅंजोने लगे
किसी बड़े व्यभिचार का

पेंटिंग – सुनील मोदी

6. पहाड़ खड़ा था जहाँ

पहाड़ खड़ा था जहाँ
अपनी विराटता में
वहीं थोड़ी दूर पर बिछी थी
कोमल, मुलायम घास

पहाड़ रौंद रहा था जिस
धरती को
घास लिपटकर अँकवार रही थी उसे

मुझे अच्छा लगा
घास पर बैठना ही
हालांकि मैं पहाड़ देखने गया था वहाँ

आपके अंतिम चयन से
स्पष्ट होती है आपकी राजनीति
जबकि आप
सुख और आनंद की खोज में होते हैं
राजनीति तो
कतई नहीं कर रहे होते हैं

वहां नदी भी हो सकती है
चिड़िया या फूल भी
कोई बांसुरी बजाता गड़रिया भी
पेड़ और सुगंधित हवा भी
पर जगह
मशहूर होती है पहाड़ के नाम से

धरती के लिए
नमी सॅंजोती घास और पेड़ पौधों की
अस्मिता को
इतिहासकार भी तो नहीं पहचानते

7. तमस सा दीप्त उजास

जो ऐतिहासिक होता है
वह प्रेम नहीं होता
वह तो ऐकान्तिक होता है स्मृति की तरह
मानस पटल पर अंकित
किसी असंबद्ध चलचित्र की तरह
बदलते कई कई चेहरों वाले तुम
धाराप्रवाह कई कई स्वप्नों वाला मैं
अज्ञात दिशा से आती हुई
बेतरतीब अनेक धाराओं में बहती कोई नदी
कि जिसका किनारा
कभी तुम्हारा माथा, कभी कपोल
तो कभी अधरोष्ठ, कभी नर्म साँसें
कि सभी भाषा व्याकरण और संरचनाओं का
अतिक्रमण करती
किसी पूर्ण हो चुकी प्रतीक्षा को आतुर
प्रत्येक स्वर में नींद सी बेचैनी
तूफ़ान सी पुलकन से थर्रायी साँसें
स्वप्न सी जागृति
तमस सा दीप्त उजास

इतिहास की बनाओ मूर्ति तो गल जाए नमक सा
उसमें विक्षोभ कहाँ होता है
न कोई विभ्रम
कि जैसे कागज पर बना कोई नक्शा
धत्!
समय चाट जाता है जिसे तिलचट्टे की तरह
यहां तो
मधुमक्खियां भी लड़ जाती हैं तो छोड़ जाती हैं
सोंधी मिठास
कि नींद खुलने बाद तक
कि होंठों पर जीभ फेरने भर से
घूम उठता है कोई न कोई देखा हुआ दृश्य
सजीव, अनुभूत, पुनर्जन्म सा

8. दुआएं

सबको अन्न मिले
सबको पानी मिले
सबको आग मिले
सबको वाणी मिले

सबको राह मिले
सबको पनाह मिले
सबको हक़ मिले
सबको बेईमानी मिले

सबको शौक मिले
सबको परवाह मिले
सबको रोशनी मिले
सबको निशानी मिले

सबको समर्थन मिले
सबको विरोध मिले
सबको कविता मिले
सबको कहानी मिले

सबको वक़्त मिले
सबको नींद मिले
सबको ख़्वाहिश मिले
सबको रवानी मिले

सबको हँसी मिले
सबको आँसू मिले
सबको इंतज़ार मिले
सबको मानी मिले।

9. सीता के विषय में

सीता के विषय में
तो यही सुना गया
कि वह खेतों में कहीं पड़ी हुई मिली

[नहीं है ज्ञात कि सीता किस वय में ब्याही गई]

सीता विवाह के बाद चौदह वर्ष तक
वनवास के रूप में निर्वासित रही
निर्वासन के दौरान वह एक वर्ष तक लुप्त रही
जब रावण द्वारा अपहृत हुई
उसे छुड़ाने-बचाने के लिए
जाने कितनी दुरभिसंधियाँ हुईं

कितना बड़ा नरसंहार हुआ
वापस आने पर
कुछ समय
बाद वह गर्भिणी अवस्था में
फिर से जंगल भेज दी गई
और अंत में
वह सप्राण धरती के अन्दर समा गई

सीता का न जन्म हुआ
और न सीता की मृत्यु हुई
सीता के चरित्र की हर बड़ी घटना के लिए
कोई न कोई अन्य व्यक्ति जिम्मेदार है

10. सम्राट का दुख

सम्राट के सामने
प्रजा अपना दुखड़ा सुनाकर रोने लगी
सम्राट भी रो पड़े
उनका दिल भर आया
व्यथित होकर बोले, बहुत बुरे हैं मेरे लोग
मैं उन्हें बहुत समझाता हूँ
कि न करें प्रजा का शोषण
पर बहुत जिद्दी हैं वे
मानते नहीं मेरा कहना भी

बड़े बड़े शिलालेख लिखे गए
उनमें सम्राट का यह विराट दुख लिखा गया
उनकी बेबसी लिखी गई
प्रजा के दुखों को सुनकर रो पड़े थे सम्राट
यह भी लिखा गया

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