अडानी प्रकरण : देश का सबसे बड़ा घोटाला

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— जीतेश —

गौतम अडानी के बहाने ‘हिंडेनबर्ग की घटना’ बहुप्रचारित हो चुकी है, फिर भी संक्षेप में-

1937 में नाइट्रोजन गैस से भरे एक गुब्बारे से सौ लोगों की जर्मनी से न्यूयार्क की यात्रा. गुब्बारे में बेहद ज्वलनशील गैस हाइड्रोजन भर दी गयी, क्योंकि वह बहुत सस्ती थी. नतीजा गुब्बारा जलकर कर खाक हो गया. हादसे में अधिकतर यात्रियों की जान चली गयी थी. वह एक मैनमेड डिसास्टर था! मनुष्य के लालच के कारण हुआ ऐसा हादसा, जिसे टाला जा सकता था.

उसी तरह यहां तक कि पूंजीवाद में भी सौ रुपये के शेयर को तीन हजार में बेचकर भारी धन उगाही पूंजीवाद की मार्जीनल नैतिकता से परे है.

नाथन एंडरसन ने उसी हादसे की याद में ‘हिंडेनबर्ग’ नामक कंपनी बनायी, जो खुद बाजार में मुनाफा कमाती है. मगर जिसका दावा है कि वह वित्तीय क्षेत्र में फर्जीवाड़ा करने वालों का भंडाफोड़ करता है. इसी कंपनी की रिपोर्ट से यह हंगामा शुरू हुआ, जिसके केंद्र में गौतम अडाणी हैं.

हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट ने उन तमाम तथ्यों को निवेशकों के सामने ला दिया है, जो अडानी की विभिन्न कंपनियों में होती रही कथित गड़बड़ी का खुलासा करते हैं.

शेयर का ओवरवैल्यूड होना क्या है?

500 करोड़ के एसेट (asset) वाली एक कंपनी को सरकार की विभिन्न एजेंसियों से 500 करोड़ रुपये का ही कर्ज मिलता है. (यह किसी प्रजातांत्रिक आर्थिकी के हिसाब से जोखिम भरा है) कंपनी ने दस रुपये की यूनिट में दस करोड़ शेयर (सौ करोड़ का) का एक पोर्टफोलियो बनाया.

75 फीसद शेयर अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के लिए रखकर बाकी 25 फीसद शेयर बाजार में खुदरा या संस्थागत निवेशकों के लिए छोड़ दिया.

कंपनी अपने बैलेंस शीट पर 2 फीसद नेट मुनाफा दिखाती है और कंपनी का सालाना बिजनेस एक हजार करोड़ का है. तो नेट मुनाफा 20 करोड़ का हुआ.

अब 20 करोड़ का शुद्ध मुनाफा यदि दस करोड़ (यूनिट) शेयर के बीच बांट दिया जाए तो दस रुपये के एक शेयर की कीमत मात्र 12 रुपये होनी चाहिए. लेकिन अडाणी के शेयर की कीमत तो 120 रुपया है!

इसी बिना पर हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट कहती है कि अडानी के शेयर 85 फीसद ओवरवैल्यूड हैं.

हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट आगे कहती है कि इस 12 रुपये के शेयर को 120 रुपये के भाव में पहुंचाने के लिए अडानी ने गलत तरीकों का सहारा लिया; और कुल मिलाकर यह कॉर्पोरेट जगत का अब तक का सबसे बड़ा स्कैम/घोटाला है.

अब एक चीज समझने की है

120 रुपये की दर से मात्र 25 फीसद शेयर की बिकवाली से कंपनी को 300 करोड़ की पूंजी आ गई.

120 रुपये की दर से 7.5 करोड़ शेयर कंपनी के प्रमोटरों के हाथ में है, जिसकी कीमत 120 रुपया X 7.5 करोड़ शेयर = 900 करोड़ रुपया है.

अब एक चीज और समझ लें –
500 करोड़ का एसेट
500 करोड़ का कर्ज
300 करोड़ का रिटेल निवेश
900 करोड़ का बोर्ड पोर्टफोलियो

कुल 2200 करोड़ रुपया कंपनी का मार्केट कैप हुआ.

ऐसी ही दस कंपनियों के मार्केट कैप से अडानी विश्व के तीसरे सबसे बड़े धनाढ्य बने गए, जिनके पेट में नौ-नौ सौ करोड़ का जो मुनाफा है वो अलग. यह 900 करोड़ रुपया कमाकर बैठी इंतजामिया को देश की रोजगारी से अभी कोई लेना देना नहीं है. लेकिन तब ये है कि जो खानदानी रईस हैं वो मिजाज रखते हैं नर्म अपना…
वे अपनी ‘छप्पन इंच की छाती’ नहीं दिखाते फिरते..!
वो यह स्वीकार करते हैं पैसे पेड़ पर नहीं उगते..

अडानी, जो देखते ही देखते दुनिया के तीसरे सबसे बड़े धनकुबेर बने थे, आज हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट के बाद लुढ़क लुढ़क कर सत्रहवें स्थान पर आ गये हैं.

अब जरा देश की आर्थिकी पर इसका असर समझिए..

पता नहीं आपने एक चीज पर ध्यान दिया कि नहीं. जिस कंपनी को अपने 75 फीसद शेयर पर दो रुपया प्रति शेयर के हिसाब से मात्र 15 करोड़ कमाना था, वह अपने पूंजी बाजार से ही 900 करोड़ की कमाई कर चुकी है.

यही तो है पूंजीवाद का शाइलोक वाला चेहरा!

ये जो 2200 करोड़ का मार्केट कैप है, वह एक तरह का तम्बू-बम्बू है, जिसे हमेशा एक बैलेंस की जरूरत होती है. एक इक्विलीब्रियम होता है जिसे संभाले, रहना पड़ता है. इस पूरे प्रकरण में जोखिम सरकार द्वारा दिये गये कर्ज पर है और बचा-खुचा जोखिम रिटेल इंवेस्टर पर है.

तो ये समझना भी लाजिमी है कि वो खुदरा निवेशक, जिसने शेयर की मांग और पूर्ति के दांवपेच में अपनी बचत की जमापूंजी लगायी, वह आज हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट आने से कितना तबाह हुआ?

आपको यह जानकारी होगी ही कि कोविड के गाढ़े दिनों में जब रोजगार पर संकट गहराया, तो वह मध्यवर्ग जिसके पास कुछ बचत थी, उसने अपनी बचत का पैसा, यहां तक कि पीएफ से भी पैसा निकालकर शेयर बाजार में लगाया और 11 हजार का सेंसेक्स सत्रह हजार के पार पहुंच गया. मात्र 2.5 करोड़ डिमैट खाताधारकों की संख्या दस करोड़ के पार चली गई.

अब चूंकि आज अडानी के नेतृत्व में भारत का पूरा शेयर बाजार ही धाराशायी है तो पूंजी जो लूट ली गयी, वह निसंदेह मध्यम वर्ग की ही थी.

उधर सरकारी प्रतिष्ठानों से मिले कर्ज को अडानी की कंपनी ने जिस तरह डुबाया, उसका परिणाम यह है कि ये प्रतिष्ठान अब सरकार को कम से कम डिविडेंड देंगे तो सरकार की रेवेन्यू कम होगी और फिर सरकार टैक्स बढ़ाएगी.

यानी ले-देकर झेलना पब्लिक को ही है, चाहे कमाई के लालच में अपनी बचत गंवाने से हो या नये नये टैक्स झेलने के रूप में हो.

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