भारतीय मूल्यचेतना और समकालीन चुनौतियाँ

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— नंदकिशोर आचार्य —

भारतीय चित्त और पश्चिमी चित्त में एक बुनियादी फर्क नजर आता है। पश्चिम नैतिक उत्कर्ष के अपने श्रेष्ठतम क्षणों में भी अधिक-से-अधिक मानव-केंद्रित लगता है। मानव-केंद्रित होना भी मानव-निरपेक्ष होने से तो बेहतर है ही- लेकिन उसकी सीमा यह है कि इस दृष्टि में अन्य सब कुछ मानव के उपभोग के लिए हो जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि मानवेतर सृष्टि के प्रति वह अधिक-से-अधिक एक दयाभाव तो रख सकता है, लेकिन उसके साथ वह अस्तित्व की उस एकता का बोध नहीं कर सकता, जो भारतीय चित्त की बुनियादी संवेदना है।

भारतीय चित्त, इसलिए मानवमूलक नहीं, बल्कि समग्रतामूलक है और संपूर्ण मानवीय और मानवेतर सृष्टि के साथ एक अस्तित्वगत अद्वैत का संबंध अनुभव करता है। कर्मफल का सिद्धांत उसे केवल अन्य मनुष्यों के प्रति ही नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि के प्रति उत्तरदायी बनाता है और इस उत्तरदायित्व की पृष्ठभूमि में संपूर्ण सृष्टि के अस्तित्व की एकता की भावना काम कर रही है, इसलिए यह स्वाभाविक लगता है कि सृष्टि की प्रत्येक चीज के साथ मनुष्य का रिश्ता एक मर्यादा से अनुशासित है और मर्यादा-भंग का अर्थ है पाप- जिसका परिणाम अनिवार्यतः उसे भोगना होगा।

‘महाभारत’ में पांडु के द्वारा मैथुनरत मृग के आखेट की कथा इस बोध का सुंदर उदाहरण है, जिसमें महाभारतकार के अनुसार पांडु को शाप इसलिए मिलता है कि शिकार करना उसकी मर्यादा में होते हुए भी जिस स्थिति में पांडु ने शिकार किया, वह मर्यादा का उल्लंघन था। वाल्मीकि द्वारा व्याध को शाप का कारण भी क्रौंच का वध नहीं, क्योंकि वह तो उसके कर्म की मर्यादा में ही है- बल्कि यह है कि जिस स्थिति में व्याध ने क्रौंच का वध किया, वह व्याधकर्म की अपनी मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला एक नृशंस कार्य था। भारतीय चित्त मर्यादाहीन आचरण को ही अधर्म या पाप कहता है।

लेकिन मर्यादा का आधार क्या है? जिसे हम मर्यादा या धर्मसम्मत आचरण कहते हैं, उसकी कोई कसौटी भी है कि नहीं? भारतीय परंपरा में उसकी कसौटी वही है जो महाभारतकार के शब्दों में, दूसरे के प्रति ऐसा कुछ नहीं करना है, जो यदि हमारे प्रति किया जाए, तो हमें प्रतिकूल लगे (आत्मानां प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्)। इस दूसरे में मानवेतर सृष्टि भी सम्मिलित है।

इस कसौटी का आधार एक समग्रतामूलक अहिंसा बोध है, जो संपूर्ण सृष्टि की तात्विक एकता के बोध का सामाजिक प्रतिफलन है। मर्यादाहीन आचरण ही हिंसा का दूसरा नाम है। मर्यादा और अहिंसा भारतीय दृष्टि में एक-दूसरे पर अवलंबित हो जाते हैं।

इस अहिंसा बोध की व्याप्ति केवल सामाजिक संबंधों तक ही नहीं, बल्कि अस्तित्व मात्र तक है, बल्कि मानवेतर सृष्टि के साथ इस मर्यादा का पालन ही वास्तविक अर्थों में मनुष्य को मनुष्य बनाता है। मनुष्य किसके प्रति आचरण कर रहा है, इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि आचरण करने वाला मनुष्य है, जिसके आचरण में हर स्तर पर मानवता प्रतिबिंबित होनी अनिवार्य है। शायद यही कारण है कि भारतीय चिंतन में अधिकारों के बजाय कर्तव्य का आग्रह अधिक है।

कुछ आधुनिकतावादी इसे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की स्पष्ट अवहेलना के रूप में देख सकते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति या वर्ग के कर्तव्यों में अन्य के अधिकार की स्वीकृति है और यह भी कि अधिकार को तो छोड़ा भी जा सकता है, पर कर्तव्य से कोई छूट नहीं है, क्योंकि वह अधर्म है। यदि भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन को ऋणशोधन का यज्ञ मानती है, जिसमें देवयज्ञ, पितृयज्ञ और ऋषियज्ञ के साथ नृयज्ञ औऱ भूतयज्ञ का भी विधान है, तो यह मूलतः उस समग्रतामूलक अहिंसक दृष्टि से प्रसूत विधान है, जो संपूर्ण दृष्टि के साथ मनुष्य के रिश्तों की एक मर्यादा निर्धारित करता है। इस आधारभूत एकता की अनुभूति और उससे उपजी अहिंसा दृष्टि के कारण ही भारतीय परंपरा में सामाजिक-आर्थिक संस्थाएं ही नहीं, विज्ञान और तकनीकी भी एक ऐसी प्रक्रिया को प्रमुखता देते लगते हैं जिसमें मानवेतर सृष्टि के साथ संघर्ष के बजाय समन्वय और कृतज्ञता का संबंध हो जाता है।

भारतीय चित्त की बनावट और समाज की वर्तमान दशा को संभवतः गांधीजी ने सबसे बेहतर ढंग से समझा था। उन्होंने यदि आधुनिक सभ्यता को अधर्म कहा तो इसका कारण यही था कि यह सभ्यता हिंसा के विभिन्न रूपों पर आधारित है और अपनी प्रक्रिया में उन्हें और पुष्ट भी करती है।

पारंपरिक समाज में आ गईं  विकृतियां तो हिंसक हैं ही, लेकिन परिवर्तन की जो तीव्र मांग उठ रही है, वह भी बुनियादी अर्थों में हिंसक लक्ष्यों और प्रक्रिया की ओर उन्मुख दिखाई दे रही है। एक ओर सामाजिक जीवन को निरंतर अर्थ और सत्ता के नियंत्रण में लाया जा रहा है, तो दूसरी ओर स्वयं राज-व्यवस्था और अर्थव्यवस्था हिंसक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हैं, क्योंकि दोनों केंद्रीकरण की समर्थक हैं और केंद्रीकरण अनिवार्यतया स्वतंत्रता का दमन करता और अपने अंतर्गत रहनेवाले नागरिकों के मनों को हिंसक बनाता है जो एक ओर अलगाववाद और उग्रवाद में बदलता है, तो दूसरी ओर राज्य के सर्वसत्तावाद में।

आधुनिक प्रौद्योगिकी भी प्रकृति के साथ एक अनिवार्य हिंसक रिश्ता रखती है। वह मानवेतर सृष्टि तो क्या, स्वयं मनुष्य के साथ भी कोई लगाव नहीं रखती। समाजशास्त्रीय अनुसंधान यह प्रमाणित करता है कि अधिनायकतंत्रीय और निरंकुश शासन व्यवस्था के लिए संचार साधनों, हथियारों और आर्थिक जीवन पर एकाधिपत्य आवश्यक है और वह किसी-न-किसी प्रकार के औद्योगिक आधार के बिना संभव नहीं है।

यदि ऐतिहासिक भौतिकवाद की इस मूल प्रतिज्ञा को ध्यान में रखा जाए कि उत्पादन के उपकरण ही समाज-संरचना का मूल कारण बनते हैं तो इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि हिंसक मनोवृत्ति और केंद्रीकृत व्यवस्थावाली तकनीकी पर आधारित समाज-संरचना भी अनिवार्यतः केंद्रीकरण की ओर उन्मुख होती है। ऐसी व्यवस्था में उस समाज का सपना एक मगृमरीचिका ही साबित होगा, जिसमें स्वयं मार्क्स के अनुसार प्रत्येक की स्वतंत्रता सबकी स्वतंत्रता की अनिवार्य शर्त है।

हम अर्थव्यवस्था को तो कोसते हैं, लेकिन उस तकनीकी को अपनाना चाहते हैं, जो इस असंतोषजनक  अर्थव्यवस्था का मूलाधार है।

गांधीजी ने जब उत्पादन के देसी तरीकों की बात की थी तो उनका तात्पर्य भारत को आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ रखना नहीं था- वे हिंदुस्तान की ‘रंक’ दशा को लेकर सर्वाधिक दुखी थे- बल्कि उनका मंतव्य यही था कि भारत की अपनी मूल्य चेतना से निस्सृत ऐसी तकनीकी का विकास किया जाना चाहिए जो अहिंसा के व्यवहार को पुष्ट करने वाली हो अर्थात् हम जिसमें मनुष्य और मानवेतर जगत के बीच भी एक मर्यादाबोध बनाए रख सकें, क्योंकि उसके बिना मनुष्य के मनुष्य कहलाने का कोई नैतिक आधार नहीं बचता।

कोई भी नैतिक व्यवस्था अहिंसा बोध के बिना संभव नहीं है। विभिन्न जीवन-प्रणालियों का सह-अस्तित्व इस अहिंसा-दृष्टि के चलते ही संभव होता है, जिसमें अन्य के अधिकारों का सम्मान हमारा धर्म हो जाता है।

भारतीय समाज आज भी गहरे स्तरों पर सृष्टि की तात्त्विक एकता और मानवेतर सृष्टि तक के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध करता है- यद्यपि तात्कालिक राजनीतिक-आर्थिक व्यवहार ने इस बोध में बहुत दरारें पैदा कर दी हैं। इसी बोध ने अहिंसक संघर्ष किया था, जिसने देश में नए जीवन का संचार किया। लेकिन आजादी मिलने के बाद जिस आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था का विकास हुआ है, वह अपनी मूल प्रेरणा और प्रक्रिया में अहिंसक नहीं है। इस कारण समस्याओं का पुंज जटिल और विकराल होता गया है।

आज भारतीय समाज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनके समाधान की दिशा एक समग्रतामूलक अहिंसा बोध में ही हो सकती है- अहिंसा अपने सूक्ष्मतर और व्यापकतर अर्थों में। यह बहुत संभव है कि इस दृष्टि से विकसित की जानेवाली संस्थाओं में कुछ कमियां रह जाएं और कालांतर में उन्हें संशोधित करना पड़े। लेकिन मूल बात यह है कि हमारी दिशा क्या है और वह हमारे लोकचित्त की बनावट के अनुकूल है या नहीं- क्योंकि उसके बिना कोई भी समाधान द्वंद्व ही पैदा करता है।

इस संदर्भ में डॉ. राधाकृष्णन का यह कथन द्रष्टव्य है कि ‘संस्थाएं तो और अच्छी व्यवस्था तक पहुंचने की सीढ़ियां मात्र हैं। यह ठीक है कि असंभव पूर्णता की खोज में हमें अपने-आपको खो बैठने की जरूरत नहीं है, फिर भी अपूर्णता को हटाने और आदर्श की ओर बढ़ने के लिए हमें निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। सभ्यता में प्रगति की परख इस बात से की जाती है कि ऐसे अवसर कितने आए और वे किस ढंग के थे, जिन पर नियम का अपवाद करने की छूट दी गई।’

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