— विमल कुमार —
क्या अब कला की रोशनी में भारतीय लोकतंत्र को देखा और परखा जाना चाहिए है? क्या कला की रोशनी राजनीति और बाजार की रोशनी से अलग होती है? क्या उस रोशनी का अर्थ वह नहीं होता जो राजनीति की रोशनी व्यक्त करती है?
पिछले दिनों फ्रांस की राजधानी में पद्म विभूषण से सम्मानित दिवंगत चित्रकार सैयद हैदर रजा के जन्मशती वर्ष में उनकी चित्र प्रदर्शनी के दौरान मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पत्रकार रवीश कुमार और प्रख्यात कवि एवं संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी के बीच बातचीत से ये संकेत एक सवाल के रूप में सामने उभर कर आए।
संभवतः यह पहला मौका है जब मुख्यधारा का एक वरिष्ठ हिंदी पत्रकार एक चित्रकार के बारे में एक संस्कृतिकर्मी से इस तरह की बातचीत कर रहा हो क्योंकि आमतौर पर भारतीय पत्रकारिता विशेषकर हिंदी पत्रकारिता में कला के सवालों पर मुख्यधारा के पत्रकार बात नहीं करते या कला के सवालों को तवज्जो नहीं देते लेकिन रवीश कुमार ने रज़ा की चित्र प्रदर्शनी में भाग लेकर एक संवाद कायम करने की कोशिश की है। वह एक एक करके रज़ा के चित्रों के सामने जाकर श्री वाजपेयी से उन चित्रों को जानने समझने की कोशिश भी कर रहे थे और अपने दर्शकों को थोड़ा शिक्षित संस्कारित करने का भी काम कर रहे थे क्योंकि अब तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यह काम नहीं करता रहा है।
भारतीय मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कला और साहित्य से बहुत दूर जा चुका है और उसमें उसके लिए कोई स्पेस नहीं रह गया है। अगर भारतीय पत्रकारिता थोड़ी संवेदनशील और सुसंस्कृत होती तो राजा रवि वर्मा, टैगोर, नंदलाल बसु, अमृता शेरगिल से लेकर हुसेन या किसी भी कलाकार की जन्मशती के मौके पर हमें कुछ विशेष पढ़ने सुनने को मिलता।
बहरहाल, अशोक वाजपेयी ने रवीश कुमार के साथ बातचीत में यह बताया है कि रजा पहले भारतीय चित्रकार हैं जिन्हें साहित्य के प्रति गहरा अनुराग था और उन्होंने अपने चित्रों में शब्दों का इस्तेमाल किया है। उन्होंने वेद पुराणों से लेकर तुलसीदास, ग़ालिब, मीर, प्रसाद, महादेवी वर्मा, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अज्ञेय, मुक्तिबोध जैसे अनेक लेखकों को अपने चित्रों से, अपनी कला से जोड़ा है। वह आधुनिक कलाकार हैं लेकिन उनकी आधुनिकता पश्चिमी आधुनिकता से अलग है। वह ऐसी भारतीय आधुनिकता है जिसमें विध्वंस, तनाव और उथल-पुथल नहीं बल्कि उसमें परंपरा, मौन, मन, रोशनी और रंग अधिक हैं। रंगों में कोई अर्थ नहीं होता बल्कि कलाकार रंगों में अर्थ भरता है। कला की एक रोशनी होती है जो राजनीति की रोशनी से अलग है। उसमें एक वचन नहीं बल्कि बहुवचन होता है। कला में समय की आपाधापी, भीड़भाड़ नहीं होती बल्कि वह समय में एक स्थगन है आदि आदि..।
14 फरवरी को शुरू हुई यह प्रदर्शनी इन दिनों पेरिस में आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। बड़ी संख्या में कलाप्रेमी इन चित्रों को देख रहे हैं और उनसे एक आत्मीय रिश्ता बना रहे हैं। वे रज़ा साहब को अपना चित्रकार मानते हैं। आखिर क्यों न माने? रज़ा साहब ने अपने जीवन के 60 साल वहाँ गुजार दिए।
इस प्रदर्शनी का उदघाटन पेरिस के भव्य सेंटर पोम्पीदु की गैलरी-4 में सेंटर पोम्पीदु के प्रेसिडेंट लॉरेंट ले बॉन और प्रख्यात साहित्यकार व संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने किया। इस अवसर पर फ्रांस में भारत के राजदूत जावेद अशरफ़, भारत में फ्रांस के राजदूत एमैनुअल लेनैन, किरण नादार म्यूज़ियम की प्रमुख किरण नादार, पीरामल म्यूज़ियम की प्रमुख प्रमुख डॉ. स्वाति और अजय पीरामल उपस्थित रहे। रज़ा जन्मशती समारोह में भाग लेने के लिए भारत से लेखकों, पत्रकारों और चित्रकारों का एक शिष्टमंडल भी पेरिस आया हुआ है जिसमें जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार, प्रसिद्ध लेखक उदयन वाजपेयी, कलाकार अतुल और अंजू डोडिया, योगेन्द्र त्रिपाठी और विश्वनाथन, संयोजक और कला समीक्षक रुबीना करोड़े, गायत्री सिन्हा, अलका पाण्डेय, कवयित्री-कथाकार पूनम अरोड़ा, कथाकार अणुशक्ति सिंह, कवि वीरू सोनकर, पूनम वासम और चित्रकार अखिलेश और मनीष पुष्कले आदि शामिल हैं। प्रदर्शनी में फ्रांस के गण्यमान्य लोग उपस्थित रहे। तीन माह तक चलने वाली इस प्रदर्शनी में रज़ा के 93 चित्रों और 80 दस्तावेजों को शामिल किया गया है। इन सभी दस्तावेजों को अलग-अलग स्रोतों द्वारा भारत से एकत्र कर प्रदर्शनी में शामिल किया गया। यह पहला मौका है जब भारत के किसी चित्रकार की जन्मशती के मौके पर पेरिस में चित्र प्रदर्शनी लगाई गई है।
रज़ा फाउण्डेशन के न्यासी और ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी के अनुसार, “फ्रांस में किसी चित्रकार की यह अब तक सबसे बड़ी और सबसे अधिक दिनों तक चलने वाली प्रदर्शनी है। यह इस बात का संकेत है कि फ्रांस के कलाप्रेमियों में रज़ा साहब के चित्रों को लेकर गहरी उत्सुकता बनी हुई है। वे रज़ा साहब से प्रेम करते हैं और उन्हें अपना चित्रकार-नागरिक मानते हैं। एक कलाकार राष्ट्र की सीमाओं में बंधा नहीं होता।”
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश के मंडला में जनमे सैयद हैदर रज़ा 50 के दशक में फ्रांस में बस गए थे और करीब 6 दशक तक वहां रहे। इस समय में उन्होंने अपनी चित्रकला में नए आयामों को तलाशा और लगातार परिष्कृत हुए। पिछले एक साल से देश के विभिन्न शहरों में रज़ा जन्मशती पर अनेक आयोजन हुए लेकिन पेरिस में उनकी कलाकृतियों की प्रदर्शनी एक ऐसा भव्य आयोजन था जिसका स्वप्न रज़ा फाउण्डेशन के प्रबन्ध न्यासी और रज़ा के अभिन्न मित्र अशोक वाजपेयी के वर्षों के अथक प्रयासों के निर्णायक दिवस के रूप में कला के ऐतिहासिक देश फ्रांस के सबसे खूबसूरत शहर पेरिस में रज़ा के मक़बूल चित्रों की प्रदर्शनी के रूप में साकार हुआ।
लेकिन सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कला की रोशनी में हम अपने लोकतंत्र की जांच कब करेंगे। अब तक हम लोकतंत्र की परीक्षा या जांच राजनीति, चुनाव, संविधान या मीडिया के माध्यम से करते रहे हैं लेकिन क्या हमने कभी कालिदास, भरत मुनि, बाणभट्ट, कबीर, रैदास, तानसेन, बैजू बावरा, तुलसी, मीरा, मीर, ग़ालिब, टैगोर, प्रेमचन्द की दृष्टि से भी अपने लोकतंत्र को जांचने परखने का काम किया। क्या हमारा लोकतंत्र छीज नहीं रहा? उसमें संस्कृति और कला की संवेदनशीलता और दृष्टि या उदात्त स्पर्श क्यों नहीं है?
रज़ा पर आयोजन के बहाने यह बहस मीडिया और बौद्धिक समाज मे उठे तो रवीश और वाजपेयी की बातचीत का विस्तार होगा और वह सार्थक मानी जाएगी।