यूक्रेन पर रूसी हमले का राजनीतिक अर्थशास्त्र

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— कौशल किशोर —

यूक्रेन में जारी युद्ध को दूसरा साल शुरू हो गया। इसके शीघ्र खत्म होने की अटकलों पर विराम लग गया है। कीव का पतन नाटो की हार से कम नहीं रहा। यूक्रेन की अस्मिता रूस को पीछे धकेल रही है। इसमें हिंसा का शिकार हुए लोगों की संख्या तीन लाख के पार पहुंच गई है। यूक्रेन के एक लाख लोगों के साथ इसमें दो लाख रूसी लोग शामिल हैं। डर कर भागने वाले लोगों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ तक पहुंचती है। विस्थापन का शिकार होने वालों में 94 फीसद यूक्रेन से हैं। पोलैंड 15 लाख शरणार्थियों को पनाह देने वाला देश है। पश्चिमी यूरोप के देश इसे रूस का विस्तारवाद कह रहे। अमरीका इस खेमे का नेतृत्व कर रहा है। शीत युद्ध के बाद फिर आणविक हथियारों का संकट खड़ा है। नाटो के बूते जंग लड़ने वाले यूक्रेन के पास हाथियार नहीं हैं किंतु जंग में मर मिटने को तैयारी है।

दूसरे विश्व युद्ध के उपरांत अस्तित्व में आए नाटो का परचम लहराने की कोशिशें जारी हैं। यह सकल घरेलू उत्पाद का दो फीसद रक्षा-उद्योग पर खर्च करने की पैरवी करता है। साल पूरा होने से पहले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन हठात कीव पहुंचे थे। वारसा में नाटो की एकता का बखान करते हैं। यूक्रेन को जंग जारी रखने के लिए हथियारों की आपूर्ति करने की घोषणा दोहराकर वतन लौट जाते हैं। शीत युद्ध के बाद से नाटो का विस्तार जारी है। यूक्रेन में इसके निशाने पर मौजूद रूस पर अमरीका और पश्चिमी देशों की बंदिशें बढ़ रही हैं। चीन इसकी निंदा कर 12 सूत्री शांति का प्रस्ताव पेश करता है। यह विनाशकारी युद्ध दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर हावी है। सप्लाई चेन प्रभावित हुआ है। कर्ज देने वाले बैंक और हथियारों का कारोबार लाभ में है।

राष्ट्र के नाम संबोधन में रूस के राष्ट्राध्यक्ष पुतिन ने इसके लिए पश्चिम को ही दोषी ठहराया है। अमरीका के साथ हुए परमाणु हथियार नियंत्रण की न्यू स्टार्ट नीति को भी तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है। पुतिन यूक्रेन को लेनिन की भूल मानते हैं। वे इसे रूस का हिस्सा बताते हैं। सोवियत संघ के विघटन से 1991 में उभरे यूक्रेन की रूस से लगती सीमा पर लम्बे अरसे से संघर्ष जारी है। क्रीमिया 2014 से रूस के कब्जे में है। डॉनबास व दूसरे रूसी बहुल क्षेत्र में जारी तनाव और हिंसा के कारण इसे रूस का अंतर्कलह भी कहते हैं। चीन ताइवान में और भारत कश्मीर में ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में जारी शांति इस युद्ध से भंग हुई। साथ ही इसके शीघ्र समापन की राह में रोड़े कम नहीं हैं।

साढ़े तीन करोड़ की जनसंख्या वाले यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन और नाटो में शामिल करने से रूस की स्थिति पर असर पड़ेगा। इस युद्ध से दुनिया तीन खेमों में विभाजित होती है। रूस के साथ चीन है। भारत और ब्राजील जैसे देशों का तीसरा खेमा भी है। अनाज का बड़ी मात्रा में उत्पादन करने वाले यूक्रेन से पाकिस्तान जैसे देशों में अन्न की आपूर्ति होती रही। इस युद्ध के कारण ऐसे देशों में अकाल जैसी हालत हो गई है। इसकी वजह से भारत का रूस से तेल का आयात एक प्रतिशत से बढ़ कर तीस प्रतिशत तक पहुंच गया है। हैरत की बात है कि इस तेल का निर्यात भी कई देशों को किया जा रहा है। तुर्की जैसा नाटो का सदस्य देश यूक्रेन को हथियार भेजता है। पर रूस के साथ व्यापार भी जारी रखता है। इसके कारण होने वाले नुकसान से पार पाने की युक्ति निकालकर रूस की अर्थव्यवस्था फायदे का सौदा करने लगी है। सभी इसी तरह अपने ही हितों की रक्षा में लगे रहे तो यह जंग लंबे समय तक चलती रहेगी।

रूसी सैनिकों ने कीव की सीमा पर बूचा में सैकड़ों निर्दोष लोगों के नरसंहार से यूक्रेनी अस्मिता को मार्च में ललकारा था। इसके जवाब में वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक से अलग देश उभर रहा है। विदेशी मदद से यूक्रेन युद्ध के मैदान में है। रूस की जेलों से कैदियों को मोर्चे पर भेजने हेतु रिहाई मिल रही है। इसकी आग में जलने वाले गरीबों का खयाल करने वाला कोई नहीं है। यूक्रेन की जनता युद्ध में हिस्सा ले रही है तो रूस की जनता में इसका विरोध करने वाले भी हैं। सीमाओं पर 1991 की स्थिति बहाल करने व यूक्रेन के पुनर्निर्माण का खर्चा रूस को वहन करने की मांग है। इसके साथ ही यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की क्रेमलिन के पतन की नहीं, बल्कि पुतिन की मौत की भविष्यवाणी करने में लगे हैं।

कोरोना वायरस के संक्रमण और महामारी से कायम हुए भय के साम्राज्य में इस युद्ध से इजाफा होता है। आमलोग भय से त्रस्त हैं। अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी से नाटो के बिखराव का संकट खत्म होता है। घातक हथियारों की खपत बढ़ाने वाली महाशक्तियों के सामने अहिंसा और विश्व शांति की बात करने वाले मौन धारण किए हैं। बुद्ध और गांधी के देश के प्रधानमंत्री ने द्विपक्षीय बातचीत में पुतिन से शांति की बात अवश्य की है और जी-20 की अध्यक्षता के दरम्यान इसे आगे बढ़ाने की संभावना भी जाहिर की है। परंतु इस सब के बावजूद भारत का प्रयास आधा अधूरा ही माना जाएगा। रूस जैसा मित्र देश और चीन जैसा पड़ोसी देश इस वर्चस्व की जंग में मानवता का ही शत्रु साबित हो रहा है। सहमति और सहयोग से शांति के पथ पर आगे बढ़ने की चुनौती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ इस युद्ध में नाकारा साबित हुआ है। संकटग्रस्त क्षेत्र में राहत कार्य तक सिमटता प्रतीत होता है। शांति सुनिश्चित करने के बदले तीनों खेमों को प्रदर्शन का स्थल मुहैया कराता है। चीन के शांति प्रस्ताव में नाटो की खेमेबाजी पर प्रहार है। शीत युद्ध की मानसिकता से बाहर होने की जरूरत है। युद्धबंदियों की वापसी सुनिश्चित करने में सहयोग का भरोसा भी। क्षेत्रीय सीमाओं को सम्मान देने की इस वकालत में संयुक्त राष्ट्र संघ की मर्यादा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की चीनी नेता शी जिनफिंग से मिलने की बात करते हैं। यदि चीनी हथियारों की आपूर्ति पर रोक लगी रही तो यूक्रेन में क्षति कम होगी। चीनी प्रस्ताव में युद्ध को बढ़ावा देने के बदले दोनों देशों को शांति के प्रयास में सहयोग करने की अपील है। इस सब के बावजूद निकट भविष्य में शांति प्रस्ताव पर कोई सहमति बनती नजर नहीं आती।

जाहिर है, भारत और चीन युद्ध से मुक्ति का मार्ग तलाश रहे हैं। रूस भी इस युद्ध की विभीषिका से बाहर निकलना चाहता है। चीन ने इसके लिए एक सम्मानजनक स्थिति उपलब्ध कराने की कोशिश आरंभ की तो रूस ने इसका स्वागत किया है। नाटो इसके खिलाफ खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ इस पर सही दिशा में नहीं बढ़ रहा है। यूक्रेन के लोगों को बचाने के लिए राष्ट्रपति जेलेंस्की यदि इस अवसर का लाभ उठाते हैं तो सभी के लिए अच्छा होगा ।

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