सत्याग्रही समाजवादी : राममनोहर लोहिया

0
Lohiiya

anand kumar

— प्रो. आनंद कुमार —

क्रांतिकारी चिंतक, समता और संपन्नता के सपनों को आंदोलनों से सगुण बनानेवाले एवं सत्याग्रही समाजवाद के जनक डॉ. राममनोहर लोहिया का यह स्मरण है। आइए, पहले लोहियाजी के युग को जानें, फिर उनकी विरासत को पहचानें। यही डॉ. लोहिया की प्रेरक स्मृति से ऊर्जा पाने का उचित रास्ता होगा।

20वीं शताब्दी एशिया व भारत के लिए युगांतरकारी परिवर्तनों की शताब्दी रही है। इसमें बड़े सपनों, बड़े आंदोलनों और बड़ी घटनाओं का बोलबाला था। विदेशी राज का लंबा सिलसिला टूटा और स्वराजी समाज की रचना का संकल्प पूरा हो, ऐसा ऐतिहासिक अवसर पैदा हुआ। परिवर्तनकारी सिद्धांतों की दृष्टि से राष्ट्रीयता, जनतंत्र और समाजवाद की चौतरफा गूँज हुई। विचारधाराओं की दृष्टि से यूरोप के कार्ल मार्क्स और एशिया के मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों को प्रबल आकर्षण था। मार्क्स, लेनिन, रोजा लक्जेमबर्ग और माओ आदि ने वर्ग-आधारित जन-संगठनों और क्रांतिकारी आंदोलनों से खूबसूरती दी। फिर रूसी क्रांति (1917) के बाद स्टालिन व ट्राट्स्की के मतभेदों ने अनेक शंकाएँ भी पैदा कीं। दूसरी ओर गांधी-चिंतन सत्याग्रह और रचनात्मक कार्यक्रमों के दो पहियों पर जन-जागरण के रथ को वेगवान् बनाता रहा।

स्वतंत्रता को सत्य-अहिंसा-स्वदेशी-सेवा और सत्याग्रह के संयोग से उत्पन्न होनेवाली शक्ति को रूस में प्रस्तुत करके गांधी ने सांस्कृतिक मूल राजनीति का श्रीगणेश किया। सन् 1906 (जोहानेसबर्ग) से 1946-47 (नोआखली) के चार लंबे दशकों में देश और दुनिया के तमाम अन्याय-पीड़ितों के मेन में सिविल नाफरमानी को आकर्षण पैदा करके एक नए युग का सूत्रपात किया। इसका बीजमंत्र ‘हिंदू-स्वराज’ (1909) के रूप में दुनिया को दिया गया था। लेकिन इस विचारधारा का असली बूल असहयोग आंदोलन (1920) से भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के बीच गाँव और गरीब के बीच क्रांतिकारी रचनात्मक सक्रियता और सात्त्विक राजनीति के जरिए विकसित हुआ।

गांधी के विचारों में प्रेम व त्याग की केंद्रीयता थी, सत्य और शुभ के लिए प्रतिबद्धता थी, साध्य और साधन की पवित्रता के जरिए समाज को निर्मल बनाने की लगन थी। इस सबका बार-बार समाज को साक्षात्कार कराते हुए अपने महाबलिदान से गांधी हिंसा के खिलाफ हिंसा, धामक नफरत के मुकाबले सर्वधर्म समभाव और अन्यायों के खिलाफ न्याय के श्रेष्ठतम प्रतीकु के रूप में अमर हो गए।

गांधी के बाद गांधी धारा में तीन उपधाराएँ पैदा हुई- राजसत्ता को केंद्रीय बल बनाकर जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकारी गांधीवाद ने आकार लिया, राजमार्गी बने, आचार्य विनोबा भावे की अगुवाई में विभिन्न् गांधी ऑश्रमों में सात्त्विक जीवन और आध्यात्मिक चिंतन के प्रयोगों में रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए जुटे हुए लोगों ने ज्ञानमार्गी संप्रदाय बनाया, सर्वोदयी कहलाए, भूदान का बेमिसाल अभियान चलाया। बाद में सन् 1974-77 की अग्निपरीक्षा काल में सर्वोदय आंदोलन का एक हिस्सा राजसत्ता की ओर झुक गया और दूसरा हिस्सा लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से सत्याग्रह की ओर गतिमान हुआ। इस टूट से आचार्य विनोबा भावे की छवि धूमिल हुई और गांधी धारा के ज्ञानमार्गी भी आत्मविश्वास विहीन हो गए; क्योंकि सन् 1977 के बाद जे.पी. के कई अनुयायी भी राजसत्ता के स्पर्श सुख से लोभ में प्रखरता खोने के लिए अभिशप्त हो गए।

डॉ. लोहिया गाँधी धारा में निहित तीसरी प्रवृत्ति अर्थात् राजसत्ता व समाज व्यवस्था के अन्यायों का सामूहिक प्रतिरोध के स्वर बने, जिससे सत्याग्रही समाजवाद का उदय संभव हुआ। गांधी ने तो रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों और श्रमजीवियों को आत्मबल के कष्ट उठाकर संघर्ष करना सिखाया और समूचे भारत को विदेशी गुलामी, आथक शोषण और सामाजिक कुरीतियों की रचना व् संघर्ष की दोहरी शक्ति से दूर करने की क्षमता पैदा करने का प्रशिक्षण व नेतृत्व दिया। डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजादी की लड़ाई में ही गांधी के आशीर्वाद और कांग्रेस समाजवादी पार्टी के संघर्षशील सहयोगियों के बल पर किसानों, मजदूरों व छात्रों के सवालों पर सत्याग्रह शक्ति के उपयोग की क्षमता विकसित की, पूँजीवाद व मार्क्सवाद की यूरोपै-उन्मुखता को पहचाना, सन् 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में जे.पी. के साथ मिलकर जन-शक्ति का मार्गदर्शन किया और नेपाल, गोवा व तिब्बत के सवालों पर देश व दुनिया को झकझोरा।

इससे स्वाधीनता सेनानियों में कम उम्र होने के बावजूद अगली कतार के नायकों में गिने गए। लेकिन डॉ. लोहिया की असली पहचान का निर्माण आजादी के बाद के दौर में पैदा विचार ज्योति व राष्ट्रीय आंदोलन के संकल्पों को पूरा करने के लिए छेड़ी गई लड़ाइयों और उठाए गए कष्टों के जरिए हुआ। लोहिया ने मार्क्स को ऋषि जैसा महाज्ञानी माना और गांधी का करोड़ों शोषितों, पीड़ितों का हृदय-परिवर्तन करनेवाले क्रांतिकारी महामानव के रूप में अनुकरण किया। लेकिन काल-पात्र-परिस्थिति की सीमाओं के सत्य को जाननेवाले लोहिया ने एक ओर मार्क्सवादी या मार्क्स-विरोधी होने को गलत माना और दूसरी ओर गांधीवादी या गांधी-विरोधी होने को भी फिजूल बताया। वह ‘समाजवादी’ विशेषण में ही गांधी और मार्क्स की वैज्ञानिक दृष्टि व क्रांतिकारी राजनीति को समेटने की जरूरत पर बल देते थे, जिससे समाज परिवर्तन के जरिए बेहतर दुनिया बनाने की जरूरत पूरी की जा सके। व्यक्ति-केंद्रित विचारधाराओं को काल-सापेक्ष और व्यक्ति-आधारित बताते

हुए लोहिया ने चेतावनी भी दी कि माक्सवाद की आड़ में यूरोपीय सभ्यता एशिया को अपनी वर्चस्वता में बनाए रखने के लिए साम्राज्यवाद की पराजय के बाद नए षड्यंत्र कर सकती है। इसे चीन ने रूस की रणनीतियों को नकारते हुए सच भी पाया। इसी प्रकार लोहिया ने यह भी खतरनाक बताया कि गांधी के बाद ‘गांधीवादी’ के सरकारी और ‘मठ’ रूपों के प्रवर्तक गांधीमार्ग को आडंबरों और प्रतीकात्मकता से अवरुद्ध कर रहे हैं। दरिद्र नारायण की मुक्ति के लिए समुपत गांधी को समाज का सुविधा प्राप्त वर्ग धीरे-धीरे फूहड़, उपासना और आराधना में समेटकर अप्रासंगिक बनाने में जुट गया है। इससे सुत्याग्रही समाज-रचना की राह बनानेवाले गांधीजी सत्ताधीशों की रस्म्-अदायगीवाली राजनीति के औजार बन जाएँगे। अन्यायों से जूझ रहे अनगिनत स्त्री-पुरुषों के लिए अप्रासंगिक हो जाएँगे।

इसलिए ‘गांधीवाद’ और ‘मार्क्सवाद’ के दो वैचारिक कठघरों को तोड़कर लोहिया ने ‘निराशा के कर्तव्य’ के दर्शन, इतिहास चक्र के सिद्धांत और सप्तक्रांति के कार्यक्रम प्रस्तुत किए। निराशा के कर्तव्य में क्रांति की राजनीति की जरूरत और क्रांतिकारियों की सीमाओं दोनों का बराबर ध्यान रखने के लिए आवश्यक दार्शनिक स्वभाव की शिक्षा है। इसी चिंतन में से राग, जिम्मेदारी की भावना और मात्र भेद या अनुपात की समझ की जरूरत का आग्रह बना है। इसी प्रकार इतिहास चक्र का सिद्धांत समाज परिवर्तन के अंदरूनी और बाहरी पहलुओं की तुलनात्मक महत्ता को रेखांकित करता है।

इतिहास चक्र का सिद्धांत यह माँग करता है कि हर लोहियामार्गी स्थानीय, राष्ट्रीय व वैश्विक परिस्थिति की समझदारी के आधार पर ही परिवर्तन की राजनीति को आगे बढ़ाए। बिना इसके हम अपने काम के कारण व परिणाम दोनों के बारे में नासमझी कर सकते हैं। राममनोहर लोहिया के निधन पर अपनी श्रद्धांजलि में उनके शिष्य लोकबंधु राजनारायण ने कहा था कि “डॉ. लोहिया के निधन के बावजूद उनके द्वारा बताए गए रास्ते की कम-से-कम 100 साल तक प्रासंगिकता रहेगी।”

यह दावा इस आधार पर किया गया था कि लोहिया ने दर्शन और इतिहास की अपनी समझ के आधार पर सप्तक्रांति के कार्यक्रम के लिए देश व दुनिया को प्रेरित किया था। सात क्रांतियों में आथक गैर-बराबरी, सामाजिक अन्याय, नर-नारी विषमता, रंगभेद, देशों के बीच क्षेत्रफल और संसाधनों की विषमता, हथियारों से मुक्ति और राज्य सत्ता के मुकाबले नागरिक की हैसियत में विस्तार् शामिल था। पिछले कई साल हुम्ने लोहियाजी के बाद की दुनिया देखी है। इस दौर में भारत के ‘जाति तोड्रो’ का सवाल आरक्षण के कार्यक्रमों के जरिए चारों तरफ उठा है।

महिला आंदोलन लगातार प्रगति कर रहा है। रंगभेद पर आधारित दक्षिण अफ्रीकी सरकार समेत कई मोचर्चों पर विजय मिली है। दुनिया भर में मानव अधिकार की रक्षा के लिए आंदोलन को प्रबलता मिली है। दूसरी ओर आथक गैर-बराबरी, देशों के बीच गैर-बराबरी और हथियारों की दौड़ में लोहिया की आशा के विपरीत घटनाक्रम चला है। इस प्रकार कुल लेखा-जोखा करने पर यह साफ है कि लोहिया के बनाए गए विचार मार्ग की तरफ दुनिया के लोगों का और भारत की जनता का ध्यान बना हुआ है। लेकिन कई मोचर्चों पर अपेक्षित प्रगति का अभाव है। जहाँ तक राजनीतिक व्यवस्था का सवाल है, लौहिया के प्रतिपादित चौखंभा राज का सवाल और राजनीति को सत्ता-सुख की बजाय समाज-सुधार की पैगंबरी के रूप में कर्तव्य मानने की चुनौती पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो चुकी है है।

दूसरे शब्दों में, लोहिया के दिखाए रास्ते को पूरी तरह समझने के लिए मार्क्स और गांधी दोनों को बगैर कट्टरपंथी बने जानना जरूरी है। दूसरी तरफ सप्त-क्रांति के निजी जीवन, राष्ट्रीय राजनीति और विश्व व्यवस्था तीनों में समान प्रतिबद्धता को ही किसी भी लोहियामार्गी को जरूरी शर्त मानना चाहिए, अन्यथा लोहिया की क्रांतिकारी राजनीति के किसी एक टुकड़े को पकड़कर पूरे नतीजे नहीं पैदा किए जा सकते। इक्कीसवीं शताब्दी वैश्विकता की शताब्दी है और इसीलिए लोहिया जैसे विश्व मानव के दिखाए रास्ते पर चलनेवालों का दुनिया में ज्यादा असर होना निश्चित है। बशर्ते हम लोहिया विचार की बुनियाद को न भूलें और उसकी संपूर्णता को परिवर्तन की राजनीति का आधार बनाएँ।

Leave a Comment